बुजुर्ग महिला ने अपने पति को शक्कर का डिब्बा खोलकर देने को कहा जिसे बुजुर्ग ने खोलकर दिया। पास बैठे युवक ने भीतर जाकर महिला से पूछा कि स्वयं खोल सकने में समर्थ होने के बावजूद डिब्बा पति से क्यों खुलवाया। महिला ने समझाया कि इसी को परस्पर निर्भरता कहते हैं। इसी निर्भरता और परवाह के भाव से उसके हृदय रोगी पति में यह सोच जागती है कि वे बहुत ताकतवर और महत्त्वपूर्ण हैं। इससे अपने बीमार पति के साथ रिश्ते सुधरते हैं और प्रेम बढ़ता है। यह निर्भरता और परवाह की ताकत है।
पैसे से उपलब्ध होने वाले संसाधनों में प्रेम नहीं पनपता
एक या डेढ़ दशक पहले की सामाजिक व्यवस्था में परिवारजन और अन्य व्यक्ति एक-दूसरे पर निर्भर होते थे। आपसी रिश्तों में गर्माहट दिखती थी, क्योंकि परस्पर सहयोग और एक-दूसरे की परवाह थी। मगर सहयोग और परवाह करने को अब कमजोरी माना जाने लगा है। इस परवाह में स्नेह छिपा होता था, जुड़ाव बढ़ता था और अहंकार नहीं होता था। अब हर सुविधा के लिए पैसा तैयार है। पैसे से उपलब्ध होने वाले संसाधनों ने आपसी प्रेम को कम कर दिया है।
व्यक्ति को लगता है कि पैसा फेंककर कुछ भी मिल सकता है। इसी सोच के चलते आज का युवा येन केन प्रकारेण सिर्फ धन कमाने में व्यस्त है। यहां यह सोचने योग्य बात है कि क्या पैसे से सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है?
रिश्तों की संवेदना और उसमें बसने वाला प्रेम अब ढीला पड़ चुका है। माता-पिता की सेवा हो या नवजात शिशु का पालन पोषण, घर पर भोजन बनाना हो या छोटे-मोटे घरेलू कार्य- इन्हें करने के लिए पैसे देकर सहायक रख लेना शगल है। हर चीज पैसे से खरीदने की प्रवृत्ति के चलते व्यक्ति के अवचेतन मस्तिष्क में आपसी स्रेह भाव में कमी और रिश्तों से जुड़ी भावनाओं में खटास आ रही है। वर्तमान में व्यक्ति पैसा खर्च करने के लिए तो तैयार है, लेकिन समय देने में उसे आपत्ति है।
शब्दों की गूंज और मौन की ताकत, चुप रहकर हम कैसे पाते हैं अंदर की शांति और जीवन का असली आनंद
यह सोचने की बात है कि कितने फीसद माता-पिता अपने बच्चों को पढ़ा रहे हैं और समय दे रहे हैं। वे पैसा देकर ट्यूशन पढ़ाने वाले शिक्षक रखते हैं, लेकिन बच्चों को समय नहीं दे पाते। माता-पिता की सेवा में भी कमोबेश यही हालत है।
आपसी परवाह के कारण पहले मनुष्य एक-दूसरे के प्रति कृतज्ञता का भाव रखता था। अब कृतज्ञता की अभिव्यक्ति करने के लिए भी कीमत चुकाई जा रही है। माता पिता के प्रति कृतज्ञता दिखाने के लिए सेवकों का हुजूम है। बच्चों को विशेष पढ़ाई कराने के लिए ट्यूशन पढ़ाने वालों या प्रशिक्षकों की भीड़ है। मित्रों के लिए कृतज्ञता दिखाने के लिए उपहारों की बाढ़ है। पर इन सबके बीच एक चीज छूट गई है और वह है आपसी प्रेम, सद्भाव और रिश्तों में गहराई।
इसी पैसे खर्च करने की प्रवृत्ति के कारण रिश्ते बहुत जल्दी दम तोड़ने लगे हैं। आज के दौर में आपको दस वर्ष पुराने मित्र ढूंढ़ने पर भी नहीं मिलेंगे। रिश्ते बनने का अब सिर्फ एक ही कारण है और वह है स्वार्थ। स्वार्थ न रहा तो रिश्ता खत्म होने में देर नहीं लगाई जा रही, क्योंकि अब सहयोग और परवाह तो है ही नहीं। हर व्यक्ति स्वच्छंद है। रिश्तों की ऊष्मा को बचाने के लिए ‘पैसों’ की जगह ‘परस्पर स्नेह’ को प्राथमिकता देना ही उत्तम जीवन का आधार होना चाहिए।
क्या सपने पूरे करने के लिए सिर्फ संघर्ष ही जरूरी है, या आसान रास्ते से भी सुकून मिल सकता है?
जीवन दूसरों की परवाह करने और संबंधों पर टिका है। पेशा चाहे कोई भी हो, व्यक्ति की असली ताकत है प्रेमपूर्ण संबंध बनाना। संबंध अच्छे तभी बन सकते हैं, जब समानुभूति का भाव हो। समानुभूति का अर्थ है खुद को सामने वाले व्यक्ति की परिस्थिति में डालकर देखना। ऐसा करते ही हमारा नजरिया बदल जाता है और हमारे संबंध लंबे समय तक टिके रहते हैं। संबंध सिर्फ औपचारिक नहीं होते। संबंधों को प्रेम से, परवाह करने की प्रवृत्ति से और सामने वाले के दृष्टिकोण को समझने की शक्ति से सींचना पड़ता है।
वर्तमान समय में संबंधों का निर्माण करने, उन्हें बनाए रखने और अहंकार को त्यागने वाले ही सफल हैं। अनेक शोध अध्ययनों से पता चला है कि नए कर्मचारी के चयन में चौरासी फीसद नियोक्ता, संबंधों का निर्माण करने और कार्मिकों की परवाह करने वाले व्यावहारिक कर्मचारी को सबसे अच्छा मानते हैं। इसका अभिप्राय है कि ज्यादातर नियोक्ताओं के लिए कार्मिक का व्यवहार उसकी शिक्षा और योग्यता से ज्यादा महत्त्व रखता है।
कुछ छोड़ें, कुछ माफ करें और रिश्तों को मजबूत बनाएं – सच्चा सुकून चाहिए तो टेंशन से बाहर निकलें
चिकित्सकों में मानवीय व्यवहार के गुणों को विकसित करने वाले महान चिकित्सक डाक्टर विलियम ओस्लर ने अपनी पुस्तक ‘प्रिंसिपल्स एंड प्रेक्टिसेज आफ मेडिसिन’ में समझाया है कि मरीज एक मामला नहीं, बल्कि जीवंत व्यक्ति है और उसके साथ प्रेमपूर्ण संबंध रखना चाहिए। डा ओस्लर निमोनिया से पीड़ित एक ऐसी बच्ची का इलाज कर रहे थे, जिसकी मृत्यु तय थी।
उस बच्ची से वे रोज मिलने जाते और उसे एक गुलाब का फूल देते. अगले दिन दूसरा गुलाब देते हुए समझाते कि जिस प्रकार गुलाब एक दिन बाद कुम्हला जाता है, उसी तरह मनुष्य कभी भी कुम्हला सकता है। इस परवाह रखने वाले रवैये से डा ओस्लर ने उस बच्ची और उसके परिजनों का दुख कम किया। ओस्लर कहते थे कि रोग के वैज्ञानिक विश्लेषण और इलाज के साथ ही रोगी की पीड़ा को समझकर उसकी परवाह करना धर्म है।
दिखावे की दौड़ में खो गई ‘कम में खुश रहने की सोच’, युवाओं को सादगी क्यों लग रही है बोझ?
परवाह करना या किसी से सरोकार रखना बहुत छोटा शब्द है, लेकिन यह दिखाना कि हमें किसी की परवाह है, बड़ी बात है। हमें सिर्फ परवाह करनी ही नहीं, बल्कि उस परवाह को जताने भी आना चाहिए। बीमार व्यक्ति की तबीयत पूछना, रोगी को उस रोग के मिट जाने का दिलासा देना, किसी शोकाकुल परिवार से नियमित अंतराल पर मिलते रहना आदि परवाह जताने के पल हैं। मधुर संबंध, परवाह और सामने वाले की पीड़ा समझना ही मनुष्यता है। संबंधों को सुधारने और परवाह करने से जीवन संवरता है।