लोकतंत्र में चुनाव जब केवल सत्ता पाने के लिए रणनीति बनाने तक सीमित हो जाएं, तब देश के प्रबुद्ध वर्ग का कर्तव्य और भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है। भाषण चाहे राजनीति से जुड़ा हो या फिर किसी अन्य विषय से, उसमें समस्या और समाधान दोनों हों, तभी वह सार्थक कहलाता है। स्वामी विवेकानंद ने जब शिकागो में 11 सितंबर 1893 को अपने ऐतिहासिक भाषण में अमेरिका के लोगों को ‘बहनों एवं भाइयों’ कहकर संबोधित किया, तो वहां मौजूद भीड़ इन शब्दों को सुनकर आह्लादित हो उठी। वे सनातन धर्म के प्रतिनिधि थे, जिसमें हर पंथ ससम्मान और समकक्ष स्वीकार्य था।
ऐसा कोई बंधन नहीं था कि अमुक पूजा पद्धति को ही अपनाएं, या किसी एक धार्मिक पुस्तक को पूरी तरह स्वीकार करें। यह सभ्यता और सनातन ज्ञान परंपरा हर प्रकार की जकड़न से मुक्त थी। आप पूजा करें या न करें, ईश्वर को मानें या न मानें, जब तक आप समाज की मर्यादाओं को स्वीकार करते हैं, आप हिंदू हैं। ऐसा कोई बंधन नही था कि आपका आस्तिक होना आवश्यक है!
भारत आने पर यहां के लोगों ने अब्राहमी धर्म के लोग किया था स्वागत
स्वामी विवेकानंद ने सनातन संस्कृति की विश्व-व्यापकता को जिस ढंग से प्रस्तुत किया, वह अद्वितीय था। यह भी ऐतिहासिक तथ्य है कि जब अब्राहमी धर्म के लोग यहां आए, तो भारत के लोगों ने उनका स्वागत किया और उन्हें अपने धर्म के अनुसार परंपराओं एवं मान्यताओं को आगे बढ़ाने का हर एक अवसर दिया। पारसी मत को मानने वालों का यहां आना इसलिए ज्यादा महत्त्वपूर्ण माना जाता है, क्योंकि वे यहां आकर पूरी तरह घुलमिल गए। आज उनकी संख्या कम होने के बावजूद उन्हें सम्मान की नजर से देखा जाता है। देश के निर्माण में उन्होंने जो योगदान दिया है, वह किसी अन्य धर्म से कम नहीं है। भारत में इस समय सभी बड़े पंथों के अनुयायी रहते हैं और उन सभी ने यहां की सभ्यता और संस्कृति को आगे बढ़ाने में अहम योगदान दिया है।
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इस समय देश में सांप्रदायिक माहौल को लेकर विचार अलग-अलग हो सकते हैं, लेकिन यह स्पष्ट है की यदि आजादी के बाद यानी भारत विभाजन के पश्चात के समय पर दृष्टि डाली जाए, तो यह कहना गलत नहीं होगा कि वर्तमान में धार्मिक ढांचे और सांप्रदायिक सौहार्द को लेकर समस्याएं और चिंता बनी हुई हैं। इनका समाधान निकालना केवल सरकार का नहीं, बल्कि समाज का भी कर्तव्य है। इसमें धर्मगुरुओं तथा बौद्धिक वर्ग की भूमिका अहम हो सकती है। इस कर्तव्य को पहचानना और उसे अंगीकार कर समाधान में लगना हर भारतीय का उत्तरदायित्व है। इस कार्य को प्राथमिकता मिलनी चाहिए।
यह सवाल भी अहम है कि क्यों सामुदायिक मनमुटाव का लाभ उठाने के लिए अनेक राजनीतिक दल अपने-अपने ढंग से अग्रसर हो गए हैं। वे दलगत हित और चुनाव जीतने जैसे सामान्य लक्ष्य को राष्ट्रहित के ऊपर प्राथमिकता देने में नहीं हिचक रहे हैं। इस क्रम में समाज में जातिगत भेदभाव बढ़ाने के प्रयास भी किए जा रहे हैं। किसी भी सामान्य नागरिक को यह लगता है कि जिस जाति प्रथा को समाप्त करने में महात्मा गांधी और बाबा साहब आंबेडकर जैसे अनेक मनीषियों ने जीवन लगा दिया, उन्हीं के नाम पर राजनीति करने वाले आज पूरे प्राणप्रण से जाति प्रथा के आधार पर देश को बांटने का प्रयास कर रहे हैं।
राष्ट्रहित पर पड़ता है इसका दीर्घकालिक और नकारात्मक असर
राष्ट्रहित पर इसका दीर्घकालिक और नकारात्मक असर पड़ता है, इसलिए सांप्रदायिक और जातिगत भेदभाव को समाप्त करने के लिए सभी की भागीदारी आवश्यक है। समाज में एक आंतरिक वैचारिक क्रांति लानी ही होगी और ऐसा तभी संभव होगा, जब हर तरुण, युवा और बुद्धिजीवी इस विचार में रच-बस जाएं कि देश तभी समृद्ध होगा, जब यहां अटूट भाईचारा और पंथिक सद्भाव सारे विश्व को दिखाई देगा! देश तभी सुरक्षित होगा, जब अपने अनुभव से सीख कर हर भारतवासी यह अंतर्मन से स्वीकार करेगा कि देशहित सर्वाेपरि है और बाकी सब कुछ इसके बाद ही आता है। इसके लिए बौद्धिक, मानसिक और शारीरिक तैयारी आवश्यक है।
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यह सब कैसे संभव होगा, इसकी सीख स्वामी विवेकानंद हमें बहुत पहले यह कह कर दे गए थे कि बड़े काम में बहुत समय तक लगातार और महान प्रयत्न की आवश्यकता होती है। यदि ऐसे कार्य में कुछ लोग विफल भी हो जाएं, तो भी उसकी चिंता हमें नहीं करनी चाहिए। संसार का यह नियम है कि अनेक लोग नीचे गिरते हैं और उनमें से कुछ फिर उठ खड़े हो जाते हैं। कितने ही दुख आते हैं, कितनी ही भयंकर कठिनाइयां सामने उपस्थित होती हैं। स्वार्थ और अन्य बुराइयों का मानव-हृदय में घोर संघर्ष होता है और तभी आध्यात्मिकता की अग्नि से इन सबका विनाश होने लगता है। इस जगत में भलाई का मार्ग सबसे दुर्गम एवं पथरीला है। कितने लोग सफलता प्राप्त करते हैं और कितने विफल हो जाते हैं, इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए। हजारों ठोकरें खाने के बाद चरित्र का निर्माण होता है।
कुछ रूढ़िवादी विचार समय के साथ इतने सशक्त हो जाते हैं कि उनसे पार पाने में सदियां लग जाती हैं। लंबे संघर्ष के बाद भारत के संविधान में जाति प्रथा और छुआछूत को दंडनीय अपराध घोषित किया गया, फिर भी यह सब समाप्त नहीं हुआ है। देश के युवाओं को इस ओर विशेष ध्यान देना होगा कि छोटे-छोटे राजनीतिक लक्ष्य सामने रखकर दलगत लाभ लेने के लिए समाज को सांप्रदायिक और जातिवाद के आधार पर विभाजित करने वालों से सावधान रहें।
स्वामी विवेकानंद ने दिखाया मानव जीवन को रास्ता
देश की भावी पीढ़ी को खुद को इस सबसे बचाना होगा और सामाजिक सद्भाव बढ़ाने की चुनौती को स्वीकार करना होगा। इस संसार में प्रकृति ने जो सृजन किए हैं, उसमें विविधता की सुंदरता को समझने के लिए वह सदा प्रेरित करती है। पंथिक विविधता को भी उसमें निहित सुंदरता को ध्यान में रखकर समझना होगा। ऐसा कौन-सा धर्म या पंथ है, जो सत्य, शांति, अहिंसा, प्रेम और सदाचार की बात नहीं करता या उसका समर्थन नहीं करता है? जरूरत है तो इन तत्त्वों को अपने जीवन में आत्मसात करने और उनके अनुरूप आचरण की।
स्वामी विवेकानंद ने मानव जीवन को रास्ता दिखाया था। उन्होंने यहां तक कहा था कि पूजाघर में जाना तब प्राथमिकता में नहीं है, अगर उसी समय किसी अकिंचन व्यक्ति को आपकी सेवा की आवश्यकता हो। दीन-दुखियों की सेवा ईश्वर की सेवा से कम नहीं है। उन्होंने यह सीख भी दी थी कि यदि आप मानते हैं कि हर मनुष्य में ईश्वर विद्यमान है, तो फिर हमारे पास दूसरे की सहायता करने का अधिकार रह ही नहीं जाता है, हम केवल सेवा ही कर सकते हैं।
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जहां तक समस्याओं के समाधान के कौशल की बात है तो शिक्षण संस्थाओं से इसकी शुरूआत की जा सकती है। राष्ट्र और मानव प्रेम की भावनाओं के साथ यदि व्यक्तित्व विकास होगा, तो निश्चित रूप से देश में सामाजिक सद्भाव और पंथिक समरसता के साथ-साथ सेवा भावना बढ़ेगी। इसी से भविष्य में देश की प्रगति और विकास को गति मिलेगी तथा भारत विश्व में अपना अपेक्षित स्थान प्राप्त कर सकेगा।
