हर चैनल में बिहार है और बिहार में चुनाव की बहार है। ढेर सारे विशेषज्ञों के बावजूद बिहार का चुनाव एक जटिल पहेली है: कौन बनेगा मुख्यमंत्री? कौन जीतेगा चुनाव? कौन बनाएगा सरकार? महागठबंधन आगे है कि राजग आगे? प्रशांत किशोर की ‘जन सुराज’ पार्टी किसका वोट काटेगी..? ज्यादातर चैनलों पर वही-वही सवाल और लगभग वही-वही जवाब कि बीस साल लालू का ‘जंगल राज’ रहा। जनता जानती है। इसलिए उसे फिर से ‘जंगल राज’ नहीं चाहिए! जवाब में यह आता कि नीतीश के बीस साल में तो और भी बुरा ‘जंगल राज’ रहा है… लोग ऊब गए हैं… नया चाहते हैं… युवा नेता चाहते हैं..! फिर, नीतीश की तो तबीयत ही खराब है… उनको दूसरे चलाते हैं… राजग चुनाव भले उनके नेतृत्व में लड़ रही है, लेकिन चुनाव के बाद वे मुख्यमंत्री होंगे कि नहीं, यह साफ नहीं है! राजग के मुख्यमंत्री के चेहरे का सवाल कई दिन लटका रहता है। फिर एक दिन जवाब आता है कि नीतीश ही मुख्यमंत्री का चेहरा हैं!

सभी चैनलों के अपने-अपने दैनिक ‘फीचर’ हैं और सभी ‘अति राजनीतिक’ हैं। कहीं ‘कहानी कुर्सी की’ है तो कहीं ‘सिंहासन बत्तीसी’ है। कहीं ‘दंगल’ है तो ‘महादंगल’ है। कहीं ‘हल्लाबोल’ है कहीं ‘ब्लैक एंड वाइट’ है। आप हर रोज शाम से ‘प्राइम टाइम’ तक दिन की बड़ी खबर या दिन भर केंद्र में रहे विषय पर बहसें देख-सुन सकते हैं। फिर भी हर बहस ‘बासी’ नजर आती है। वे कई बार पिटे हुए विषयों को ही पीटती रहती हैं। बहस के मुद्दे और विशेषज्ञ भी वही-वही रहते हैं और उनके तर्क तथा तथ्य भी वही रहते हैं जो सौ बार कहे-सुने जा चुके होते हैं।

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कभी-कभी तो लगता है कि जनमत सर्वेक्षण वाले भी वही हैं और उनके नए आंकड़े भी वही-वही हैं! अब तक के आए लगभग सभी जनमत सर्वेक्षणों में राजग को ही बहुमत मिलता दिख रहा है। कोई सर्वे उसे एक सौ तीस सीटें देता है, तो कोई उसे एक सौ पचास-साठ तक देता है। ऐसे हर सर्वे पर होती बहस कम सीट पाने वाले का गुस्सा अपनी ओर आकर्षित करती है। उनसे ‘असहमत’ कई प्रवक्ता सर्वे पर यह आरोप तक लगाते हैं कि सर्वे करने वाला बिका हुआ है… उसका अपना एजंडा है… और वह तो एक संघी नेता के परिवार से आता है..!

कई चैनलों पर छठ पूजा के विशेष सीधा प्रसारण वाले कार्यक्रम छाए रहे। कई चैनलों के संवाददाता और कैमरामैन पूरे तीन दिन सीधा प्रसारण के तहत पूजा दिखाते रहे और छठ की महिमा भी बताते रहे। कहीं यमुना के विशेष घाट से सीधा प्रसारण, कहीं यमुना की सफाई की ‘चुनौती चर्चा’, कहीं बदबू भरे पानी में गुलाब की पंखुरियों का छिड़काव और कहीं छठी मैया के गीत गातीं… माथे पर सिंदूरी टीका लगातीं… बड़ी-बड़ी टोकरियों में फल, पूजा का सामान आदि लिए आती-जाती हुईं स्त्रियां! कई चैनलों के संवाददाता या एंकर छठ के रंग में रंग गए। एक चैनल की संवाददाता/ एंकर खुद छठ पूजा की तैयारी करती हुई दिखती रही… कड़ाही पर ‘ठेकुआ’ आदि तैयार करती हुई… छठी मैया की पूजा की महिमा बताती हुई..! एक बिहारी नेता ने यह कह कर छठ पूजा तक को वोट का अवसर बना दिया कि ‘ठेकुआ’ खाकर चले न जाना… वोट डालकर जाना..!

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हर पल ऐसी ही कटु बहसें है। हर बहस एक दूसरे को हराने, खिझाने और नीचा दिखाने के लिए है। कुछ दल ऐसे प्रवक्ताओं को शायद इसीलिए भेजते हैं कि पूरे वक्त सिर्फ वही बोलें और किसी दूसरे को न बोलने दें। ऐसे ही एक बहस में एक प्रवक्ता एंकर पर ही फैल जाता है। एंकर जवाब में कुछ कहते हैं, तो वह उसको सीधे ‘गोदी मीडिया’ कहता चला जाता है।

कुछ नेताओं की भाषा भी इन दिनों एकदम ‘तू-तड़ाक’ वाली और ‘अशिष्ट’ हो चली है। उदाहरण के लिए ये वाक्य देखिए- ‘वोट के लिए वे नाच भी देंगे…’, तो दूसरी ओर से जवाब कि वे आए तो ‘छर्रा कट्टा’ आएंगे..! इसी तरह एक अन्य विपक्षी नेता ने बिहार के मुख्यमंत्री के भावी चेहरे को लेकर चुटकी ली कि वह ‘दूल्हा’ नहीं, ‘सहबाला’ है। ‘दूल्हा’ तो कोई और है। प्रकारांतर से किए जाते ऐसे कटाक्षों में तो आनंद आता है, जबकि ‘तू-तू’ करने से अपनी राजनीति का ‘देसी मजा’ भी जाता रहता है।

बहरहाल, अपने ‘अंकल सैम’ इन दिनों खबरों के सबसे बड़े हीरो हैं। एक दिन वे पुतिन से मिलते हैं… बात करते हैं तो बड़ी खबर बन जाती है। विशेषज्ञ ‘अंकल सैम’ की बदलती कूटनीति के आशयों को खोलने लगते हैं। फिर एक दिन वे शी जिनपिंग से मिलते हैं तो बड़ी खबर बनती है और चर्चा में आ जाती है। ‘अंकल सैम’ इसी तरह दुनिया को रोज हिलाते रहते हैं। उधर अपने कई चैनल दुनिया को पुतिन अंकल से डराते रहते हैं कि अब हुआ शुरू तीसरा महायुद्ध… ये दागीं रूस ने परमाणु मिसाइलें… जितनी मिसाइलें उसके पास हैं, उतनी किसी के पास नहीं!