बिहार चुनाव का नतीजा आज शाम तक आ जाएगा। सत्ता में आना हर राजनीतिक दल का मकसद होता है मगर बिहार चुनाव में एक राजनीतिक परिवार का भविष्य भी दाँव पर है। वह राजनीतिक परिवार है, लालू यादव और राबड़ी देवी का परिवार।

ज्यादा खुलकर कहें तो नीतीश कुमार की तो कट गई, आज तेजस्वी यादव के राजनीतिक भविष्य का फैसला होना है।

लालू यादव ने तेजस्वी यादव की ताजपोशी तब की जब वह अपने पुराने प्रतिद्वंद्वी और पुराने साथी नीतीश कुमार के साथ चुनावी महागठबंधन करके जीत हासिल की। लालू यादव का नीतीश कुमार के बारे में यह जुमला प्रसिद्ध है कि “इसके पेट में दाँत है!” इसके बावजूद 2015 के बिहार चुनाव 2015 में उन्होंने नीतीश से हाथ मिलाया तो इससे साफ हो गया कि वह अकेले दम पर बिहार की सत्ता में वापस लौटने का आत्मविश्वास खो चुके थे।

2015 में नीतीश कुमार से हाथ मिलाने से पहले 2005 में दो बार और 2010 में एक बार, लालू यादव की राजद बिहार की सत्ता में वापसी करने में नाकाम रही थी। वह भी तब जब राज्य के दो सबसे बड़े वोट बैंक उनके पक्के समर्थक माने जाते हैं।

राज्य की करीब 18 फीसदी मुस्लिम आबादी और करीब 14 प्रतिशत यादव आबादी आज भी तेजस्वी यादव का वोटबैंक मानी जाती है मगर इस वोटबैंक और सत्ता के बीच जो फासला है, उसका नाम आज भी नीतीश कुमार है।

किंगमेकर लालू यादव, क्राउन प्रिंस तेजस्वी यादव

पिछले 10 साल में नीतीश कुमार ने तेजस्वी यादव और लालू यादव को दो बार सत्ता का स्वाद चखाया मगर दोनों बार मुँह लगी थाली बीच में छीन ली। 2015 में तेजस्वी यादव और तेज प्रताप यादव के शपथ लेते ही यह साफ हो गया कि बिहार की राजनीति में लालू यादव अब बस किंगमेकर भर रह गये हैं, किंग बनने का उनका रास्ता नीतीश कुमार ने बंद कर दिया है।

लालू यादव खुद नीतीश कैबिनेट में उनसे नीचे ज्वाइन नहीं कर सकते थे इसलिए उन्होंने अपने दोनों बेटों को नीतीश के दायें-बायें खड़ाकर पद शपथ दिला दी। इसी के साथ लालू यादव ने यह भी साफ कर दिया कि उनके ‘क्राउन प्रिंस’ छोटे बेटे तेजस्वी यादव हैं न कि बड़े बेटे तेज प्रताप।

नीतीश कुमार की पीठ पर सवार होकर तेजस्वी यादव दो बार बिहार के डिप्टी सीएम बन चुके हैं। इस बार तेजस्वी ने चुनाव से पहले खुद को अपनी पार्टी का सीएम उम्मीदवार घोषित किया उसके बाद काफी रस्साकशी के बाद कांग्रेस से भी खुद को मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित करवाया।

अगर इस बार तेजस्वी यादव बहुमत नहीं ला पाते हैं तो अगले पाँच साल में पटना से गुजरने वाली गंगा जी में काफी पानी बह चुका होगा और उस पानी में उनकी राजनीतिक संभावनाओं के बहने की भी पूरी आशंका बन जाएगी।

नीतीश कुमार अगर बिहार चुनाव में हार भी गये तो उनकी जगह और जरूरत केंद्र की मोदी सरकार में बनी रहेगी क्योंकि भाजपा की सरकार जिन दो बैशाखियों पर टिकी है उनमें एक हैं चंद्रबाबू नायडू और दूसरे नीतीश कुमार।

बिहार में हारने के बाद भी भाजपा को नीतीश कुमार को केंद्र में एडजस्ट करना पड़ेगा। नीतीश कुमार मोदी सरकार में मंत्री बनना चाहेंगे या किसी राज्य का राज्यपाल या कुछ और, यह उनकी च्वाइस पर निर्भर है मगर यह तय है कि बिहार में हारने पर भी उनके पास राजनीतिक विकल्प खत्म नहीं होंगे।

मगर तेजस्वी यादव के लिए यह कहना मुश्किल है। लालू यादव की सेहत को देखते हुए लगता नहीं है कि वह पाँच साल बाद तेजस्वी के लिए सक्रिय राजनीतिक मार्गदर्शन के काबिल रहेंगे।

तेजस्वी यादव की पारिवारिक कलह

जिस तरह तेज प्रताप यादव को राजद और लालू परिवार से बाहर किया गया उसका असर आज तेजस्वी भले न महसूस कर रहे हों मगर गलती से भी चुनाव हारने के बाद उन्हें तेज प्रताप का दंश हर दिन पहले से एक जौ ज्यादा चुभेगा।

तेज प्रताप ने खुलकर कहा है कि वह राजद में वापस नहीं लौटेंगे। उन्होंने अपनी पार्टी बनाकर महुआ विधान सभा से खुद पर्चा भरा है। तेज प्रताप जीतें या हारें, तेजस्वी यादव के चुनाव हारते ही उनका महत्व बढ़ जाएगा। अगर तेजस्वी जीत जाते हैं तो तेज प्रताप को साइडलाइन करना आसान होगा मगर भाजपा-जदयू की जीत की स्थिति में तेज प्रताप की वाई श्रेणी की सुरक्षा और ज्यादा अपग्रेड हो सकती है।

तेज प्रताप ही नहीं लालू यादव को किडनी देने वाली उनकी बेटी रोहिणी आचार्य भी तेजस्वी यादव के करीबी हरियाणवी सलाहकार संजय यादव से नाराज प्रतीत होती हैं। अभी तेजस्वी सत्ता के दावेदार हैं इसलिए लालू परिवार के अंदर की कलह खुलकर सामने नहीं आ रही है मगर सत्ता से बाहर रहने पर लालू परिवार का संजय प्रसंग महाभारत करवा दे तो हैरत नहीं होगी।

तेजस्वी यादव का युवा कार्ड

तेजस्वी यादव आज हार जाते हैं तो उनके खिलाफ एक और चीज जाएगी जो उन्हें लम्बे समय तक सताएगी। 2020 के बिहार चुनाव में यह माना गया कि युवा बिहारियों में तेजस्वी की एक अपील है। उनका नौजवान होना उनके फेवर में गया। नीतीश कुमार के राज में मतदाता बनने वाले वोटरों ने कभी लालू राज नहीं देखा इसलिए उनके मन में कथित जंगलराज का वैसा भय नहीं दिखता है जैसा उनसे पहले के गैर-राजद वोटरों में दिखता है।

कुछ राजनीतिक जानकार इस चुनाव के दौरान नोटिस कर चुके हैं कि तेजस्वी के फेवर वाली ‘युवा लहर’ 2020 के मुकाबले 2025 में कमजोर लग रही है। अगर 2025 में भी यह युवा लहर बेअसर रही तो 2030 तक न तेजस्वी आज जितने युवा रहेंगे और न बिहार के नौजवान युवा सीएम पाने के लिए उनके आसरे बैठे रहेंगे। चिराग पासवान ने हमेशा अपनी ब्रांडिंग ‘युवा बिहारी’ के रूप में की है और प्रशांत किशोर इसी चुनाव से शिक्षित नौजवानों के बीच आकर्षण का केंद्र बन चुके हैं। कांग्रेस के पास अपने युवा कन्हैया कुमार हैं। 2030 तक कितने और युवा राजनीतिक सितारे बिहार के आसमान पर दिखने लगेंगे यह केवल भगवान जानता है।

तेजस्वी यादव का सत्य से साक्षात्कार होगा

आज चुनाव परिणाम प्रतिकूल रहे तो तेजस्वी यादव को एक और सत्य से साक्षात्कार करना होगा। वह सत्य है, एम-वाई वोटबैंक के दम पर सत्ता में वापसी सम्भव नहीं।

पिछले लोक सभा चुनाव और मौजूदा विधान सभा चुनाव में राजद ने प्रयास किया कि उसकी छवि मुस्लिम-यादव वोटबैंक वाली पार्टी से आगे बढ़कर ए टू जेड वाली पार्टी की बने। इन्हीं प्रयासों के तहत कुशवाहा समुदाय की टिकट भागीदारी बढ़ायी गयी और मुकेश सहनी और आईपी गुप्ता से गठबंधन किया गया।

अगर आज राजद-कांग्रेस गठबंधन चुनाव हार जाता है तो इससे सन्देश जाएगा कि गैर-यादव, गैर-मुसलमान समुदायों के बीच राजद की व्यापक स्वीकार्यता नहीं है।

कुछ समुदायों के वर्चस्व वाली सीट पर राजद भले ही गैर-यादव, गैर-मुसलमान उम्मीदवार को जिताने में कामयाब हो जाए मगर जहाँ उनकी जाति का उम्मीदवार नहीं होगा उन सीटों पर राजद की अग्निपरीक्षा होगी।

गैर-यादव, गैर-मुसलमान समुदायों को राजद वोटबैंक में तभी शामिल माना जाएगा जब वो उम्मीदवार की जाति देखे बिना राजद को वोट दें। वरना यादव बहुल सीटों पर भाजपा के यादव उम्मीदवार भी चुनाव जीत जाते हैं।

यहाँ यह कहना भी जरूरी है कि चुनाव हारने के बाद तेजस्वी यादव के सामने ऊपर बताए गये सारे किन्तु-परन्तु खड़े मिलेंगे लेकिन इससे उनकी राजनीतिक यात्रा समाप्त नहीं हो जाएगी। कौन जाने, ये मुश्किलें उनके अन्दर के नेता को मांजकर और ज्यादा चमका दें।