बिहार में भले ही सियासी गठबंधनों में सबकुछ अच्छा नहीं चल रहा है परंतु मुख्यमंत्री नीतीश कुमार चैन की बंशी बजा रहे हैं। चूंकि, भाजपा ने जनता दल (यू) के पिछले प्रदर्शन से घबराकर चिराग पासवान, जीतन राम मांझी और उपेंद्र कुशवाहा को मैनेज और बैलेंस कर लिया हो। लेकिन 101 -101 सीटों के बंटवारे से दोनों खेमों में हलचल बनी हुई है, क्या नीतीश क्या बिहार भाजपा और क्या आरजेडी में। बस इसलिए नीतीश कुमार खामोश हैं और अपनी चाल का इंतजार कर रहे हैं। उनकी पार्टी 25 से 30 फिर से नीतीश का जयघोष कर रही है।

पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव के बाद नौ बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ले चुके नीतीश कुमार बिहार की सियासत के शहंशाह हैं। उन्हें अच्छे से पता है कि उनका मुख्यमंत्री बनना तय है या वह जिसे चाहेंगे वही मुख्यमंत्री बनेगा। वह निश्चिंत हैं क्योंकि उनके लिए चुनावी तैयारी भाजपा और आरजेडी कर रही हैं। और माहौल बना रहे हैं प्रशांत किशोर।

चुनाव आयोग ने बिहार में विधानसभा चुनाव के लिए तारीखों का ऐलान कर दिया है। बिहार विधानसभा के चुनाव इस बार दो चरणों में होंगे, 6 और 11 नवंबर को मतदान होगा जबकि नतीजे 14 नवंबर को आएंगे लेकिन दोनों गठबंधनों में सीटों के बंटवारे को लेकर जितनी देरी हुई है उसका खामियाजा जमीन पर प्रत्याशी को झेलना होगा। चुनाव स्थानीय सक्रियता, जातीय समीकरण के बाद राज्य और राष्ट्र के मुद्दे पर लड़े जाते हैं।

पढ़ें- ‘मैं बिहार विधानसभा चुनाव नहीं लडूंगा’, प्रशांत किशोर ने किया ऐलान

नीतीश कुमार के सामने कांग्रेस को तेजस्वी पर विश्वास नहीं

ऐसे में जिसके सारे समीकरण बनें वह जीतेगा यानी 243 सीटों पर किसके समीकरण बनेंगे वह 14 नवंबर को पता चल जाएगा। लेकिन, बिहार के मतदाताओं के सामने नीतीश कुमार ही हैं, उनके सामने तेजस्वी पर कांग्रेस को ही विश्वास नहीं है। प्रशांत किशोर को अपनी पहली परीक्षा में संतोषजनक परिणाम लाना है और भाजपा 101-101 सीटों के फार्मूले के साथ कंधे से कंधा मिलाने की कोशिश करते दिख रही है। लेकिन, नीतीश कुमार की लाइन क्रॉस करने से हिचक रही है। बहरहाल ये तो सियासी समीकरण की बातें हैं। जनता मीडिया और विरोधियों के बीच भेजे जाने वाले संदेश की रणनीति है। असल मामला क्या है?

2005 में बिहार की सत्ता में आने वाले नीतीश कुमार ने अपनी सरकार के काम और छवि के दम पर 2010 में एक बार फिर से सरकार बना ली थी। लेकिन, 2014 में लोकसभा चुनाव में अपनी पार्टी के खराब प्रदर्शन की वजह से उन्होंने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था और जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बनाने का मार्ग प्रशस्त किया। अब ये त्याग भाजपा की मोदी सरकार के खिलाफ 2015 का विधानसभा चुनाव जीतने का सफल अभियान साबित हुआ या कांग्रेस, आरजेडी साथ महागठबंधन यह तो अतीत के हिसाब-किताब में दर्ज है। तब प्रचंड हिन्दुत्व लहर वाली नरेन्द्र मोदी नीत एनडीए, दिल्ली विधानसभा का चुनाव भी हार चुकी थी।

2020 में बीजेपी को दो उप मुख्यमंत्री से संतोष करना पड़ा

2015 में बनी महागठबंधन की सरकार के हिसाब किताब में भारी विरोधाभास चल रहा था। नीतीश कुमार की उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव से निभी नहीं और बीच रास्ते उन्होंने आरजेडी कांग्रेस से नाता तोड़ लिया और कांग्रेस कोटे के मंत्री अशोक चौधरी के साथ भाजपा के साथ सरकार बना ली। 2020 में फिर से एनडीए की सरकार बनती है लेकिन इस बार जनता दल यू की जीती सीटें घटकर 47 रह जाती है। फिर भी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ही बनें और भाजपा को दो उप मुख्यमंत्री से संतोष करना पड़ा।

’25 से 30 नीतीश कुमार ही रहेंगे’

2020 में नीतीश कुमार और जनता दल की स्थिति कमजोर हुई है लेकिन यह कहना आसान नहीं है कि नीतीश कुमार बिहार की राजनीति में खत्म हो गए हैं। 2025 के चुनाव नतीजे आने में एक महीने बाकी हैं। लेकिन आरजेडी कांग्रेस के साथ सीटें तय नहीं कर पाई और भाजपा जदयू के साथ तो फिर शेष समझने को क्या बचता है? अगर 2020 के नतीजे को आधार मानकर लें तो दस सीटें कम ज्यादा होने पर भी नीतीश कुमार ही खेवनहार बनेंगे। और वो किसकी नाव खेवेंगे ये तो वक्त बताएगा। हालांकि, इतना तय है पच्चीस से तीस नीतीश कुमार ही रहेंगे।

पढ़ें- बिहार चुनाव: कांग्रेस ने 18 उम्मीदवारों के नामों को दी मंजूरी

अब आइए, इस बार का आंकलन कर लीजिए। 2020 विधानसभा चुनाव में चिराग पासवान की पार्टी लोक जनशक्ति अकेले चुनाव मैदान में उतरी थी। इस बार वह एनडीए के साथ हैं। दो, प्रशांत किशोर की पार्टी कई सीटों पर अच्छा लड़ेगी लेकिन जब तक सभी सीटों पर सभी उम्मीदवार घोषित नहीं हो जाते हैं और स्थानीय-जातीय समीकरण पता नहीं चलता ये कह पाना मुश्किल है कि जनसुराज सीट जीतेगी या वोट काटेगी।

2020 और 2025 के बीच बेसिक ग्राउंड रियलिटी में बदलाव

ऐसे में 2020 और 2025 के बीच बेसिक ग्राउंड रियलिटी में ऐसा क्या बदलाव आया है कि नीतीश को चुनाव से बाहर समझा जाए? तो इसका जवाब है कुछ नहीं सिवाय इसके कि प्रशांत किशोर एक तीसरा विकल्प बनने का दमदार प्रचार किए हैं। जातीय जनगणना, वोट चोरी, नीतीश के स्वास्थ्य पर निशाना, जैसे मुद्दों से संपूर्णता में मतदाताओं का मिजाज बदलने में राहुल गांधी और तेजस्वी ने जमकर पसीना बहाया है। एक पक्ष यह भी है कि बिहार के युवा वर्ग में तेजस्वी और प्रशांत किशोर पसंद किए जा रहे हैं। तो दूसरा पक्ष यह भी है कि भाजपा के कोर हिन्दुत्व मॉडल में युवा वोटर भी हैं। ऐसे में बात घूम-फिर कर जाति पर ही आ जाती है।

चुनाव विश्लेषण करने वालों से इतर चुनाव लड़ने वालों से पूछिए तो वह यही बताएंगे कि उनकी सीट पर उनकी जाति का इतना वोट है। दो चुनावी सभा लग जाएगा तो बाकी तीन जातियों का वोट हमको ट्रांसफर हो जाएगा और सीट निकल जायेगी। कितने ब्राह्मण कितने क्षत्रिय कितने, कितने यादव, ईबीसी और कितने मुस्लिम वोटर हैं। हर उम्मीदवार अपने पक्ष में इस समीकरण को बनाता है इसलिए बिहार में एक बार फिर क्लोज फाइट होने के आसार हैं। क्लोज फाइट में विजेता वही बनता है जिसका हाथ रेफरी उठा दे। नीतीश इस चुनाव में रेफरी हैं या तो वह मुख्यमंत्री रहेंगे या फिर वह जिसका हाथ ऊपर उठा दें। हर हाल में पच्चीस से तीस फिर से नीतीश ही रहेंगे। ईश्वर उन्हें लंबी उम्र दे।

पढ़ें- ‘नथिंग इज वेल इन NDA’, बीजेपी नेताओं से मुलाकात के बाद ऐसा क्यों बोले उपेंद्र कुशवाहा?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। कई राष्ट्रीय टीवी चैनलों में काम कर चुके हैं।)