मौजूदा बिहार राज्य को इतिहास पन्नों में खंगालें तो वैदिक युग में ये प्रदेश विदेह, अंग, मगध, और वज्जि (वैशाली) महाजनपदों में बंटा हुआ था। इन महाजनपदों का इतिहास देखें तो विदेह (मिथिला क्षेत्र) में राजा जनक का शासन था उनकी पुत्री सीता से भगवान राम का विवाह हुआ था। अंग का जिक्र महाभारत काल में आता है और ये दानवीर कर्ण के शासन के अधीन हुआ करता था। मगध (मौजूदा समय में पटना और गया का क्षेत्र) क्षेत्र को नंदवंश और फिर मौर्य वंश के शासन से इतिहास में शोहरत मिली। वहीं वज्जि (वैशाली) महाजनपद की बात करें तो इसे विश्व के प्रथम गणराज्य होने का गौरव हासिल है। यानी कुल मिलाकर बिहार का अतीत देश के अन्य राज्यों की तरह समृद्धशाली और गौरवपूर्ण रहा है।

अब बात करते हैं आधुनिक बिहार का तो ये अपने अस्तित्व में आने से पहले पश्चिम बंगाल का हिस्सा हुआ करता था। 22 मार्च 1912 को ब्रिटिश शासन ने बिहार और उड़ीसा (अब ओडिशा) नाम से नया प्रांत बनाया और इस तरह बिहार बंगाल से अलग होकर उड़ीसा के साथ एक स्वतंत्र प्रशासनिक इकाई बन गया। आगे चलकर अंग्रेजों ने एक अप्रैल 1936 को उड़ीसा को बिहार से अलग कर दिया गया और बिहार बतौर प्रांत पूरी तरह स्वतंत्र इकाई बन गया।

बिहार के लोग सियासत की पुरपेंच गलियों में चलना बखूबी जानते

साल 1947 में 15 अगस्त को देश का अंग्रेजों से हमेशा के पीछा छूटा और दुनिया के नक्शे पर पैदा हुए मुल्क ने विभाजन के घाव लिए विकास की राह पर चलना शुरू किया। बिहार प्रांत ने भी कंधे से कंधा मिलाकर कदम बढ़ाना शुरू किया। बिहार के लोग सियासत की पुरपेंच गलियों में चलना बखूबी जानते हैं। उन्हें ये भी पता होता है कि गली के आगे बढ़ते नुक्कड़ पर कौन सी मंजिल मिलेगी। उड़ती चिड़िया के पर गिनने में महारत रखने वाले बिहार के लोग ये भी जानते हैं कि मौजूदा वक्त में बिहार बदहाल है, मानवीय सूचकांक जितने भी मापदंड हैं, उनमें बिहार लगातार फिसलता या लड़खड़ाता नजर आता है लेकिन सवाल पैदा होता है क्यों?

बिहार का 18वां विधानसभा चुनाव

इस सवाल को मथने पर जो कड़वा सच बाहर निकलता है, वो सीधे तौर पर सूबे कि सियासत, सिसायतदानों और यहां के रहने वाले लोगों को ही कटघरे में खड़ा करता नजर आता है। साल 1952 के पहले विधानसभा चुनाव से लेकर साल 2020 तक 17 विधानसभा चुनाव देख चुका ये सूबा अब 18वां विधानसभा चुनाव देख रहा है। एनडीए और इंडिया गठबंधन की खेमेबंदी कहां तक सफल होती है ये तो 14 नवंबर को पता चलेगा और उससे पहले गुरुवार छह नवंबर और 11 नवंबर को बिहार के लोग वोटिंग करके अपने किस्मत के फैसला पर खुद मुहर लगाएंगे। लेकिन, बड़ा और अहम सवाल ये है कि लगभग 13 करोड़ की जनसंख्या वाले इस राज्य को इस चुनाव से हासिल क्या होगा? पहले के 17 विधानसभा चुनावों हुए, उनसे क्या हासिल हुआ?

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बिहार में कुल 34 लोग अलग-अलग समय में मुख्यमंत्री रहे

डॉ श्रीकृष्ण सिंह से लेकर अब नीतीश कुमार तक कुल 34 लोग अलग-अलग समय में मुख्यमंत्री रहे। जिसमें सबसे लंबे समय तक साल 1946 से 1961 तक डॉ. श्रीकृष्ण सिंह मुख्यमंत्री रहे। प्रदेश की पहली महिला मुख्यमंत्री राबड़ी देवी ने तीन कार्यकाल में साल 1997 से 2005 तक प्रदेश की कमान संभाली और मौजूदा मुख्यमंत्री सबसे अधिक पांच बार मुख्यमंत्री बनने का रिकॉर्ड कायम कर चुके हैं। लेकिन फिर सवाल यही उठता है कि हाशिये पर पड़े आम आदमी का क्या? उसे क्या मिला। शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, चिकित्सा, आवास, भोजन और पानी जैसी मूलभत जरूरतों के लिए भी प्रदेश का आदमी आज भी संघर्ष कर रहा है।

अशिक्षा, जातिगत भेदभाव, धर्म, भाषा, क्षेत्रीयता और आपराधिक बर्चस्व की लड़ाई ने बिहार के सामाजिक ताने-बाने को कुछ इस तरह से छिन्न-भिन्न किया है कि राजनीति के केंद्र में विकास, संसाधन, महिला सशक्तिकरण, कानून व्यवस्था और दूसरे सामाजिक पैमाने वो प्रभाव नहीं दिखा सके जो हमें दूसरे राज्यों में देखने को मिलते हैं। यहां के ग्रामीण और शहरी इलाकों में इतनी असमानता है कि हम एक सूबे की बात न करके उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव का जिक्र कर रहे हों।

90 के दशक में लालू यादव के दौर में ‘सामाजिक न्याय की राजनीति’ का दौर शुरू हुआ

कभी-कभी ये कहा जाता है कि 90 के दशक में लालू प्रसाद यादव के दौर में ‘सामाजिक न्याय की राजनीति’ का दौर शुरू हुआ, जिसमें पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक वर्गों को राजनीतिक सशक्तिकरण मिला। लेकिन क्या धरातल की सच्चाई को बयां करता है? आज भी बिहार में जाति और धर्म के ध्रुवीकरण के नाम पर नेताओं का चुनाव होता है। राजनीतिक दल टिकट भी जाति और धर्म का आधार बनाकर बांट रही हैं। वैसे तो ये त्रासदी पूरे देश की है लेकिन इस त्रासदी में बिहार अव्वल नंबर पर है।

बिहार की मौजूदा जनसंख्या का आंकलन लगभग 13 करोड़ के आसपास किया जाता है, जो देश की कुल आबादी का लगभग 10.5 फीसदी है। राज्य का घनत्व लगभग 1,100 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर है, जो देश में सर्वाधिक में से एक है। प्रदेश की लगभग 88 फीसदी आबादी ग्रामीण और 12 फीसदी आबादी शहरी क्षेत्रों में रहती है।

बिहार में शिक्षा व्यवस्था गहरे अंधकार में

प्राचीन भारत में नालंदा और विक्रमशिला जैसी विश्व प्रसिद्ध यूनिवर्सिटी जिस प्रदेश में रही हो, वहां मौजूदा शिक्षा व्यवस्था गहरे अंधकार में है। यहां साक्षरता दर 61.80 फीसदी है। इसमें पुरुष साक्षरता 71.20 फीसदी और महिला साक्षरता फीसदी है और ये देश में सबसे कम साक्षरता दर है। छात्रों के स्कूल छोड़ने की दर भी बेहद भयावह है। कक्षा नौवीं से लेकर दसवीं में ड्रॉपआउट दर लगभग 19.5 फीसदी है। वहीं प्राथमिक स्कूलों की बात करें तो वहां पर कक्षा एक से पांच तक के छात्रों का ड्रॉपआउट दर 3.8 फीसदी है। शिक्षा के बुनियादी ढांचे खस्ताहाल हैं। लगभग 1,913 स्कूलों में गर्ल्स टॉयलेट नहीं हैं, 2,760 स्कूलों में बिजली नहीं, और 1,045 स्कूलों में छात्रों के लिए पीने का पानी नहीं है। स्कूलों में संविदा पर शिक्षक रखे जा रहे हैं, उनकी शैक्षिक योग्यता सवालों के घेरे में होती है और वैसे शिक्षकों के बल पर स्कूलों को चलाया जा रहा है।

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बिहार की प्रति व्यक्ति आय देश के दूसरे राज्यों की तुलना में बेहद कम

बिहार की प्रति व्यक्ति आय देश के दूसरे राज्यों की तुलना में बेहद कम है। वित्त वर्ष 2023–24 के आंकड़ों बताते हैं कि प्रदेश में प्रति व्यक्ति आय लगभग 55,000 रुपये प्रति वर्ष रही, जबकि राष्ट्रीय औसत लगभग 1,72,000 रुपये प्रति वर्ष है। साल 2011-12 में बिहार की जीडीपी लगभग 2.47 लाख करोड़ रुपये थी, जो साल 2023-24 में बढ़कर लगभग 8.54 लाख करोड़ रुपया हो गया है। लेकिन ये दूसरे राज्यों की तुलना में बेहद कम है।

बिहार सरकार ने वित्त वर्ष 2025-26 के लिए 3,16,895.02 करोड़ रुपये का बजट रखा है जो पिछले वर्ष की तुलना में लगभग 38,169 करोड़ रुपये अधिक है। राज्य की राजस्व देनदारी लगभग 2.60 लाख करोड़ रुपये है और राजकोषीय घाटा जीडीपी के अनुपात में लगभग 2.98 फीसदी रखा गया है। हालांकि बजट में पूंजीगत व्यय बढ़ाया गया है, लेकिन निवेश, औद्योगीकरण, निजी क्षेत्र की भागीदारी बिहार से कोसों दूर हैं। राज्य सरकार का प्रशासनिक खर्च (सैलरी, पेंशन, ब्याज) का हिस्सा बहुत बड़ा है, जिसे नियंत्रित कर पाना बेहद मुश्किल है। मसलन कैग के मुताबिक 2023-24 में बिहार के जीडीपी में लगभग 14.47 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है, लेकिन राज्य की देनदारी भी उसी अनुपात में बढ़ी है।

क्या हैं बिहार की समस्याएं?

ये और इसके और भी दूसरी समस्याएं बिहार को उन मानकों में सबसे निचले पायदान पर रखते हैं, जिससे देश के विकास की दिशा और दशा तय होती है। इसकी गहराइयों में जाएं तो हम देखते हैं कि प्रदेश की राजनीति में अपराध की संलिप्तता इस कदर हो चुकी है कि नैतिकता और वैचारिक प्रतिबद्धता धूंधले नजर आते हैं। सत्ता समाज सेवा की जगह स्वसेवा में निहित हो चुकी है। भूदान आंदोलन के जरिए हुए भूमि-सुधार, जातीय असमानता और भौतिक संसाधनों पर कब्जे की लड़ाई ने बिहार की राजनीति को कई बार खून से लाल कर दिया। अशिक्षा का फायदा उठाकर नेताओं ने जनता को जातियों में गोलबंद किया और फिर राजनीति में जन्म हुआ जाति के गर्व से जुड़े ‘बाहुबलियों’ का, जिन्होंने जातीय ताकत, पैसों और भय का माहौल बनाकर राजनीति पर कब्जा कर लिया।

आजादी के बाद लगभग दो दशकों तक देखें तो बिहार की राजनीति में सुचिता, सभ्यता और ईमानदारी नजर आती है लेकिन उसके बाद के दशकों में और 80 के दशक के पहले भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद ने ऐसी गहरी पैठ बनाई, जिसने उसके बाद के दशकों से लेकर मौजूदा वक्त में अपराधियों की राजनीति में घुसपैठ बेहद तेज हुई। वो बाहुबली जो नेताओं के प्रश्रय पर पलते थे, वो खुद खद्दर पहने विधानसभा में नजर आने लगे।

1990 का दशक मंडल की राजनीति से रंगा रहा

पूरे देश में 1990 का दशक मंडल की राजनीति से रंगा रहा। राजनीति में पिछड़ी जातियों का उभार तेजी से हुआ लेकिन सत्ता-संतुलन बदलने के साथ आपराधिक प्रवृत्ति के नेताओं की भी भरमार हो गई। उस दौर में जातिगत समानता को लाने के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया, वहीं दिलचस्प ये भी है कि उसी दौर में जातियों ने अपना मसीहा खोज लिया और उनके इर्द-गिर्द खुद को सुरक्षित देखने लगे। बाहुबलियों का उभार हुआ। लोग अपनी जाति के बाहुबलियों को ‘रॉबिनहुड’ की तरह पूजने लगे। उन्हे ‘जननायक’ बताने की होड़ मच गई। इन सबके बीत मौसमी और मतलबपरस्त नेताओं का चलन शुरू हुआ। बिहार की जनता भी अगड़ी-पिछड़ी बंट गई और जनता जाति के नेताओं को अपना हितैषी मानते हुए विधानसभा में पहुंचाना शुरू किया।

किसी भी दल ने अपराध को राजनीति से दूर करने का प्रयास नहीं किया बल्कि सबने समय-समय पर अपराधियों को बढ़ावा दिया। बिहार परे देश का इकलौत राज्य हैं, जहां पुल बनते वक्त ही टूट जाता है या फिर पुल उद्घाटन के दो-तीन महीने बाद ही ढेर हो जाता है। इस पूरे प्रकरण को देखने से एक बात तो साफ नजर आती है कि जनता का जाति में नेताओं की तलाश, बाहुबलियों को राजनीतिक दलों का बढ़ावा देना । बिहार को गर्त में ले जाने का प्रमुख कारण है। इतने पिछड़ेपन और बदहाली के बाद तो अब चेतते हुए जनता को वोट डालते समय जाति, बाहुबल, पैसे और दसरे प्रलोभनों को दरकिनार करते हुए आने वाले भविष्य के लिए वोट डालना चाहिए। बिहार की राजनीति से अपराधियों को बुहारने का काम जनता को ही करना होगा। वोट की ताकत को चोट में बदलते हुए सुयोग्य प्रत्याशी को अपना नुमाइंदा बनाएं और बिहार को प्रगति के रास्ते पर ले जाएं।

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