महात्मा गांधी को बापू यानी राष्ट्रपिता का दर्जा देश ने दिया था। कांग्रेस महात्मा गांधी की अगुआई में औपनिवेशिक शासन के खिलाफ अहिंसक आंदोलन कर रही थी। आजादी मिलने के बाद देश में कई तरह की राजनीतिक धाराओं के बीच गांधी सबके लिए स्वीकार्य से रहे। वे इतने निष्पक्ष थे कि आज हर पक्ष सबसे आसानी से उनकी आलोचना कर सकता है। आजाद भारत ने संवैधानिक पदों पर गांधी जैसी छवि की कामना की जो सबका दिखे। पूरा देश उसे अपना अभिभावक महसूस करे। लेकिन लंबे समय से देश के अभिभावक तुल्य इस पद को किसी खास जाति या समुदाय का प्रतिनिधि करार दिया जा रहा है। चुनावी रैली में दावा किया जाता है कि देश का प्रथम नागरिक हमने फलां समुदाय का बनाया। जनसंचार के साधनों सहित अन्य राजनीतिक मंचों पर संवैधानिक पदों का इस्तेमाल, उन्हें खास तबके में बांध देना संविधान की मर्यादा का मर्दन है। संविधान की बुनियाद में ही निष्पक्षता है तो संवैधानिक पदों को सबके अभिभावक की तरह निष्पक्ष दिखना चाहिए। संवैधानिक पदों के लिए हमने बनाया जैसे दावे पर बेबाक बोल।
‘यतो कृष्णस्ततो धर्म: यतो धर्मस्ततो जय:’
महाभारत के युद्ध के पहले विश्वास जताया गया कि जिधर कृष्ण रहेंगे उधर धर्म रहेगा, उधर जय होगी। यह भ्रम कायम रहता अगर कृष्ण ने अपना पक्ष नहीं चुन लिया होता। उन्होंने दोनों पक्षों को विकल्प दिया कि या तो उनकी चतुरंगिणी सेना को चुनें या उन्हें चुनें। इस विकल्प पर ही कहा गया कि जिधर कृष्ण, उधर धर्म। जनार्दन ने जब अपना पक्ष चुन लिया तो वे जनता के बीच आलोच्य हो गए।
आरोप लगे कि कर्ण से लेकर दुर्योधन तक का वध पांडवों द्वारा संभव नहीं हो सकता था अगर कृष्ण ने अधर्म करने के संकेत न दिए होते। धर्म स्थापित करने के लिए अधर्म को न्यायोचित नहीं ठहराया होता। कृष्ण के पक्ष चुनते ही धर्म का भ्रम हट गया। यही वजह है कि महाभारत आधुनिक समय की राजनीति में भी कूटनीतिज्ञों का स्वर्ग व सत्ता पाने का मोक्षद्वार है।
देश के संविधान के दिए कुछ पद धर्म की तरह होते हैं
महाभारत से शुरुआत कर भारत के संविधान पर आते हैं। संविधान के जरिए कई तरह के राजनीतिक विमर्श मिले हैं तो कई तरह के अनकहे, अलिखित सिद्धांत भी हैं। इन्हें हम अभी तक मानते भी रहे हैं। देश के संविधान के दिए कुछ पद धर्म की तरह होते हैं, युद्ध के पहले वाले कृष्ण की तरह होते हैं जिनका भ्रम बने रहना चाहिए। यह भ्रम तब तक ही बना रह सकता है जब तक कोई पक्ष पद को अपना न चुन ले या फिर पद किसी पक्ष को अपने निर्माता की तरह न देखने लगे।
मुकेश भारद्वाज का कॉलम बेबाक बोल: दिल पर पड़त निशान
भाजपा की सांसद कंगना रनौत एक साक्षात्कार के वायरल वीडियो में कहती हैं, भाजपा ने पहला दलित राष्ट्रपति बनाया। एंकर उन्हें सुधारते हैं…के आर नारायणन। रनौत कहती हैं हां, हां…। कंगना रनौत जो दावा टीवी के साक्षात्कार में कर रही हैं वही दावा सत्ता पक्ष के ज्यादातर नेता राजनीतिक रैलियों से लेकर हर मंच पर कर रहे हैं। हर तरफ यही दावा कि हमने इस जाति को बनाया, आदिवासी को बनाया, मुसलमान को बनाया।
प्रणब मुखर्जी जब राष्ट्रपति चुने गए थे तो शायद ही हमने कहीं किसी रैली, किसी साक्षात्कार में सुना होगा किसी को दावा करते कि हमने ब्राह्मण को राष्ट्रपति बनाया। शायद ही ब्राह्मणों से इस आधार पर वोट मांगा गया कि आपकी जाति के नेता को राष्ट्रपति बनाया। प्रणब मुखर्जी कांग्रेस की वैचारिकी के प्रतीक थे। वे 2012 में राष्ट्रपति चुने गए और 2014 में सत्ता बदलने के बाद 2017 तक राष्ट्रपति ही रहे, कांग्रेस के पूर्व नेता नहीं। उनके इसी निष्पक्ष रूप को देख कर ही राजग ने 2019 में उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया।
आपने राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, राज्यपाल चुनने के लिए चाहे जो भी समीकरण साधे, चाहे जो भी रणनीति बनाई हो, लेकिन इन संवैधानिक पदों पर नियुक्तियां हो जाने के बाद तो उनकी मर्यादा का ध्यान रखिए। ध्यान रखिए कि अब पदधारी संविधान के संरक्षक हैं। जनता के बीच भ्रम तो बना रहने दीजिए कि वे किसी खास खेमे के नहीं, पूरे देश के हैं।
मुकेश भारद्वाज का कॉलम बेबाक बोल: नौकरशाह
उपराष्ट्रपति, लोकसभा अध्यक्ष, विधानसभा अध्यक्ष, राज्यपाल, उपराज्यपाल, देश की जनता ने सभी पदों का क्षरण होते देखा है। इनमें से कई पद दोहरी भूमिका में होते हैं। उपराष्ट्रपति राज्यसभा के सभापति भी होते हैं। उन्हें सदन को सत्ता पक्ष द्वारा चुने गए पदधारी नहीं बल्कि एक अभिभावक की तरह सदन चलाना होता है। राज्यपाल विश्वविद्यालय के कुलाधिपति भी होते हैं। यानी एक जगह मर्यादा लुढकती है तो वह अन्य संस्थाओं को भी अपनी चपेट में लेती है।
राजनीति का सिद्धांत है कि यहां निजी हमले नहीं होने चाहिए। भारतीय राजनीति में यह सिद्धांत तो भारतीयों के हाथ में सत्ता हासिल होते ही धूमिल हो गया। प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू अपने जीवनकाल में निजी हमलों की चपेट में आ गए थे। कहते हैं कि राजनीति निजी नहीं होती। इसमें सामूहिकता, सार्वजनिकता होती है। लेकिन भारत की राजनीति निजता पर ही केंद्रित है। अब भारत की राजनीति में नायक भी निजी छवि पर आधारित है और खलनायक भी। इन दिनों पक्ष-विपक्ष में जो निजी हमलों का दौर चल रहा है उसने सबसे ज्यादा नुकसान सार्वजनिकता यानी जनता को पहुंचाया है।
भारत में इन पदों का निर्वाचन अप्रत्यक्ष निर्वाचन से होता है। पिछले दशकों में प्रत्यक्ष निर्वाचन यानी चुनाव पूरी तरह जातिगत समीकरण को समर्पित हो चुके हैं। जातिगत समीकरण से चुने गए लोगों को ही उस पद के लिए चुनाव करना है जिन्हें पूरे देश की जनता को समान भाव से देखना है। लेकिन जो जातिगत राजनीति उन्हें इस पद पर चुनती है वो फिर उन्हें उस कथित जाति के परे देखना ही नहीं चाहती। उनके अस्तित्व से एक खास जाति या खास कथित कमजोर समुदाय ही जुड़ा रह जाता है। जबकि उनका तमगा देश के प्रथम नागरिक का होता है।
मुकेश भारद्वाज का कॉलम बेबाक बोल: पीने दे पटना में बैठ कर…
वो पदधारी जहां खड़ा होता है, लोकतंत्र की कतार वहीं से शुरू होती है। पक्ष हो या विपक्ष उनके पदनाम के पहले माननीय लगाते हैं। संवैधानिक पद पर जाने के बाद व्यक्ति की जाति और धर्म सब कुछ संविधान के कर्त्तव्यों के साथ नत्थी हो जाता है। वह देश के संविधान की अगुआई करता है न कि किसी खास जाति या समुदाय की।
मुश्किल यह है कि अगर पक्ष किसी राजनीतिक रैली में संवैधानिक पदों की दुहाई देगा कि इस पर फलां जाति, समुदाय को लाए तो फिर विपक्ष संवैधानिक पद पर पक्षपात का आरोप लगाएगा। इस कड़ी के बाद जब पद का मर्यादा मर्दन शुरू होगा तो उसे रोकने वाला कोई नहीं होगा। पिछले दिनों चुनाव आयोग पर जैसी बहस हुई और इस संस्था की साख पर सवाल उठे उससे ही सबक लिया जाए। अभी बिहार में चुनाव की तारीखों का एलान नहीं हुआ है और वहां विपक्ष का पूरा अभियान ही वोट चोरी पर है। यह शायद भूतो न भविष्यति वाला मामला होगा जब विपक्ष के निशाने पर सत्ता पक्ष से ज्यादा चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्था है।
हमने देश का 79वां स्वाधीनता दिवस मनाया। यानी आजादी के बाद तीसरी-चौथी पीढ़ी राजनीति की इस मौजूदा स्थिति को देख रही है। वैज्ञानिक विकासवाद कहता है कि आगे की संतति पिछली संतति से बेहतर होनी चाहिए। हमने हर क्षेत्र में सुधार किया भी है। शिक्षा, स्वास्थ्य, विज्ञान से लेकर अंतरिक्ष विज्ञान में आगे बढ़े हैं। लेकिन जहां तक संवैधानिक विधान का मसला है हम बुरी तरह पीछे की ओर लौट रहे हैं। पक्ष-विपक्ष कोई एक-दूसरे को सुनने को तैयार नहीं है।
मुकेश भारद्वाज का कॉलम बेबाक बोल: जी हुजूर (थरूर)
कांग्रेस देश की सबसे पुरानी पार्टी है और अपने विचारों की अभिभावक भी खुद ही है। लेकिन भारतीय जनता पार्टी के पास तो एक अभिभावक संगठन है। आप तो अभिभावक की गरिमा समझते हैं। आपके अभिभावक संगठन के मुखिया कुछ बोलते हैं तो पूरा देश उन्हें गंभीरता से सुनता है। सबको अभी तक भ्रम है कि उनके बोलने में संतति के लिए संहिता निर्धारण है। सत्ता पक्ष का पितृ-पक्ष कह चुका है कि विपक्ष को प्रतिपक्ष की तरह लीजिए। आपका धर्म, राजधर्म को स्थापित करना है न कि विपक्ष को विस्थापित करना।
आज के दौर में अभिभावकों की सुन कौन रहा है? आपको निजी मुद्दे लाकर राजनीतिक फायदा बटोरने की आदत हो गई है। पहले आप किसी का चयन करेंगे और फिर राजनीतिक रैली में उनकी जाति का जाप करते रहेंगे? लोकसभा चुनाव के पहले अपने अभिभावक की भूमिका को खारिज कर आप पछताए थे। लोकसभा का भूला विधानसभा में अपने अभिभावक के पास लौट आया था।
इसलिए गुजारिश है कि देश और उसकी संवैधानिक संस्थाओं के पास उनका अभिभावक रहने दीजिए जो सबके लिए समान दिखे। उसकी पहचान सिर्फ संविधान से हो न कि किसी जाति, आदिवासी या हिंदू-मुसलमान से। इस अभिभावक की छवि महाभारत में युद्ध के पहले वाले कृष्ण की तरह हो-जहां ये हैं वहां संविधान है। छवि सुधार में देर न करें। अभिभावक कब मार्गदर्शक मंडल की ओर प्रस्थान कर जाएं क्या पता?