वैश्विक स्तर पर तकनीकी विकास में भारत भी साथ-साथ कदमताल कर रहा है। घोषणा हो गई है कि हमारा देश एक डिजिटल राष्ट्र बन गया है। इंटरनेट ताकत में हमने कई पश्चिमी देशों को पीछे छोड़ दिया है। यही नहीं, पिछले कुछ वर्षो में हम दुनिया के अग्रणी देशों की तर्ज पर ‘आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस’ यानी कृत्रिम मेधा के विकास का भी दावा कर रहे हैं। कृत्रिम मेधा आज के यंत्र युग में शोध और नवोन्मेष का परिणाम है, इसलिए हम इसे यंत्र मेधा भी कह सकते हैं। स्पष्ट है कि इसके व्यापक इस्तेमाल के लिए देश में काम करने के ढांचे में बदलाव करना पड़ेगा। साथ ही युवा पीढ़ी के पास डिजिटल और इंटरनेट का ज्ञान होना भी जरूरी है। इसके अलावा, कृत्रिम मेधा से प्राप्त ज्ञान के विस्तार को हमें अपने नियंत्रण में रखना होगा।
हालांकि, कृत्रिम मेधा से जुड़े वैज्ञानिक इस बात को लेकर भी चिंतित हैं कि इसकी असीम शक्ति कहीं इंसानी दिमाग से आगे न निकल जाए और नकारात्मक मूल्यों का सृजन करके कहीं पूरी दुनिया की प्रगति को किसी और रास्ते पर न भटका दे। मगर, इस आशंका के मद्देनजर कृत्रिम मेधा को सिरे से नकारा नहीं जा सकता। भारत आबादी के लिहाज से दुनिया का सबसे बड़ा देश है और यहां कार्य योग्य युवा पीढ़ी में श्रम शक्ति का बाहुल्य है। इसलिए रोबोटिक कृत्रिम मेधा का मानव श्रम शक्ति पर असर पड़ सकता है।
मगर विकास के जिस आयाम तक कृत्रिम मेधा जा सकती है, वह साधारण जमा खर्च के हिसाब से परे हो जाता है। इसलिए कृत्रिम मेधा और रोबोटिक शक्तियां एक ऐसी नई सच्चाई हैं, जिन्हें नकारा नहीं जा सकता। भारत में भी कृत्रिम मेधा के उपयोग को डिजिटल और इंटरनेट शक्तियों के विकास के सहारे आगे बढ़ाने पर जोर दिया जा रहा है।
देश के सकल घरेलू उत्पाद में हो सकती है 500 से 600 अरब डालर की बढ़ोतरी
भारत के नीति आयोग ने हाल में कृत्रिम मेधा और इंटरनेट शक्ति की संभावनाओं को लेकर एक नई रपट जारी की है। इसमें स्पष्ट कहा गया है कि अगले एक दशक में उत्पादन, निवेश और कृषि विकास के क्षेत्र में अगर हम कृत्रिम मेधा का उचित इस्तेमाल करें, तो देश के सकल घरेलू उत्पाद में 500 से 600 अरब डालर की बढ़ोतरी हो सकती है। नीति आयोग का मत है कि आने वाले दशक में अगर औद्योगिक क्षेत्र के भीतर कृत्रिम मेधा का व्यापक उपयोग होता है, तो वैश्विक अर्थव्यवस्था में 1,726 लाख करोड़ डालर तक का महत्त्वपूर्ण योगदान हो सकता है। अगर कृत्रिम मेधा को प्रौद्योगिकी, विज्ञान, इंजीनियरिंग और गणित के कार्यबल का सहयोगी बना दिया जाए, तो भारत में एक मजबूत और महत्त्वपूर्ण विकासात्मक बदलाव आ सकता है। हम वैश्विक कृत्रिम मेधा मूल्य का दस से पंद्रह फीसद तक हासिल करने में सक्षम होंगे।
कृत्रिम मेधा के इस्तेमाल से कौशल के स्तर पर तो नए रोजगार पैदा होने की संभावनाएं बढ़ेंगी, लेकिन नीति आयोग की रपट में भी स्वीकार किया गया है कि मौजूदा रोजगार के ढांचे में निचले स्तर के अकुशल कर्मी असंबद्ध हो सकते हैं। वहीं, वित्तीय सेवाओं और विनिर्माण क्षेत्र में कृत्रिम मेधा का इस्तेमाल खासा उपयोगी साबित हो सकता है। इन क्षेत्रों में सकल घरेलू उत्पाद बीस से पच्चीस फीसद तक बढ़ सकता है। भारत, रूस से कच्चा तेल खरीदकर उसे प्रसंस्कृत रूप में यूरोपीय और तीसरी दुनिया के देशों को बेच रहा है। इसका लाभ हमारी पेट्रोलियम कंपनियों को मिल रहा है। इस प्रकार अगर हम अपनी विनिर्माण प्रक्रिया को कृत्रिम मेधा से जोड़ दें, तो देश की विकास दर को गति देना मुश्किल नहीं होगा। हालांकि, इसके लिए व्यापक स्तर पर प्रयासों की जरूरत है।
छात्र आज भी कला संकायों और विज्ञान संकायों की डिग्रियों के पीछे ही भागते हैं
इस समय अगर औसत निकालें तो भारत की विकास दर 5.7 फीसद के करीब है। भले ही हम इसे दुनिया की सबसे तेज विकास दर कहते हों, लेकिन अगले दस वर्षों में जीडीपी को बढ़ाने के लिए हमें विकास दर को और ऊंचाई देनी होगी। अगर कृत्रिम मेधा का उचित इस्तेमाल हो जाए तो आठ फीसद विकास दर को हासिल करना आसान हो जाएगा। यही गति बनी रहे तो वर्ष 2047 में आजादी के शतकीय महोत्सव तक भारत के विकसित देश बनने के लक्ष्य को हासिल करने में भी कोई मुश्किल नहीं होगी। यह भी हो सकता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था अमेरिका और चीन को पीछे छोड़ दे।
क्या सच में बेटी की सुरक्षा का मतलब जल्दी शादी है, या शिक्षा और आजादी बनाती है मजबूत?
नीति आयोग ने भले ही कृत्रिम मेधा की संभावनाओं की बहुत उज्ज्वल तस्वीर पेश की है, लेकिन इसके रास्ते में कई अवरोध भी मौजूद हैं। सबसे बड़ा अवरोध तो देश के युवाओं को इस ज्ञान क्षेत्र की उचित शिक्षा-दीक्षा के अभाव का है। इसके लिए नई सुगम पुस्तकें तैयार करनी पड़ेंगी। नए पाठ्यक्रम बनाने पड़ेंगे और शिक्षकों को भी इस ज्ञान से पारंगत करना होगा, ताकि वे भावी पीढ़ी को इसके लिए आसानी से तैयार कर सकें। लेकिन अभी देश के शिक्षा जगत की जो सर्वेक्षण रपट हमारे पास है, वह यही कहती है कि प्राय: औसत युवा छात्र आज भी कला संकायों और विज्ञान संकायों की डिग्रियों के पीछे ही भागते हैं। आज भी वे नौकरीपेशा और स्थायी मध्यवर्गीय रोजगार पाने की मानसिकता से ग्रस्त हैं तथा कृत्रिम मेधा से प्राप्त हो सकने वाले असीम ज्ञान में पारंगत होने के लिए उत्सुक नजर नहीं आते हैं। उन्हें तो आसान शिक्षा एवं डिग्री चाहिए और ऐसा कार्य चाहिए, जो रूटीन का दफ्तरी काम हो और जो मेधा को चुनौती न दे।
तकनीक को खारिज करना या खत्म करना समस्या का हल नहीं
जहां तक कृत्रिम मेधा के इस्तेमाल का संबंध है, तो इसके लिए नकारात्मक विचार रखने वाले लोग ही ज्यादातर आगे आते हैं। जो रोजमर्रा की खबरों से लेकर चुनाव अभियानों को भी ‘डीपफेक’ बना देते हैं। तकनीक के इस दौर में कुछ लोग कृत्रिम मेधा के इस्तेमाल को दूसरों के लिए नकारात्मक दृष्टि से प्रस्तुत करते हैं। भले ही वे इस तकनीक के किसी पहलू को अपने हितों के लिए उचित मानते हों और उसके उपयोग से लाभ भी अर्जित कर रहे हों, लेकिन प्रचार इस तरह से करेंगे कि भविष्य में कृत्रिम मेधा एक बहुत बड़ा खतरा बन जाएगा। ऐसे में यह न हो कि आम आदमी यही सोचता रहे कि नई तकनीक की ताकत कुछ लोगों की बंधक बन गई है।
हालांकि, कृत्रिम मेधा से जुड़े खतरे की संभावनाओं को लेकर सरकार भी सतर्क है, लेकिन उसका कहना है कि इस तरह की आशंकाओं से डरकर इसके विकास को प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता। मगर इसके दुरुपयोग को रोकने के उपाय जरूरी हैं। इसके लिए देश को सजग रहना पड़ेगा और जहां भी जरूरी हो, वहां सख्ती बरतनी होगी। वैसे भी तकनीक को खारिज करना या खत्म करना समस्या का हल नहीं है, जरूरत इस बात की है कि आधुनिक तकनीक को विकास से जोड़ा जाए और इसके दुरुपयोग को रोकने के लिए ठोस कदम उठाए जाएं। इसमें दोराय नहीं कि कृत्रिम मेधा आज विकास प्रक्रिया का एक हिस्सा बन गई है और इसके सदुपयोग और महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता। मगर, इसके इस्तेमाल में एहतियात बरतना भी जरूरी है।