पिछले कुछ समय से देश में खनन के औचित्य और इसके पर्यावरण पारिस्थितिकी पर पड़ने वाले प्रभाव को लेकर कई सवाल उठे हैं, लेकिन यह पूरा मसला विकास बनाम प्रकृति के संरक्षण के द्वंद्व में उलझ कर रह जाता है। इसमें कोई दोराय नहीं कि विकास की दिशा को बाधित करना प्रतिगामी हो सकता है, लेकिन सवाल यह है कि अगर प्रकृति के बेलगाम दोहन की कीमत पर दुनिया प्रगति का रास्ता अपनाती है, तो उसका हासिल क्या होगा।
अरावली पर्वत-शृंखला को लेकर हाल ही में आए अदालती आदेश के आलोक में एक बार फिर यह बहस जोर पकड़ रही है कि अगर कोई प्राकृतिक संरचना एक बड़ी आबादी और इलाके के लिए जीवन-रेखा तथा सुरक्षा की एक मजबूत दीवार के रूप में मौजूद है, तो उसके संरक्षण के मुद्दे पर किसी जागरूक समाज की प्रतिक्रिया क्या होनी चाहिए। गौरतलब है कि हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने यह व्यवस्था दी कि आसपास की जमीन से कम से कम सौ मीटर ऊंचे जमीन के हिस्से को ही अरावली पहाड़ी के तौर पर माना जाएगा।
अरावली को लेकर अदालत की इस नई परिभाषा के बाद यह आशंका खड़ी हो गई है कि अगर सौ मीटर से कम ऊंचाई वाली पहाड़ियों पर खनन, निर्माण और व्यावसायिक गतिविधियों के रास्ते खुलेंगे, तो इसके बाद समूचे इलाके के पारिस्थितिकी तंत्र पर गंभीर पर्यावरणीय प्रभाव सामने आ सकते हैं। दरअसल, राजस्थान, हरियाणा, गुजरात से लेकर दिल्ली तक के सैकड़ों किलोमीटर के इलाके में फैली अरावली पर्वत शृंखला को समूचे उत्तर भारत में पर्यावरण को संतुलित रखने की दृष्टि से एक प्राकृतिक दीवार की तरह देखा जाता है।
मगर पिछले कुछ दशकों से अरावली क्षेत्र को जिस तरह पत्थर, रेत और खनिज संसाधनों की मांग पूरी करने के लिए खनन का केंद्र बना दिया गया है, क्या उसके गंभीर खमियाजों का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता? हालांकि इस मसले पर उठे सवालों और विरोध के बाद केंद्रीय पर्यावरण मंत्री ने कहा कि खनन गतिविधि अरावली के कुल क्षेत्र में से केवल ‘0.19 फीसद हिस्से’ में ही करने की इजाजत होगी। मगर खनन का दरवाजा एक बार खुल जाने के बाद यहीं तक सीमित रहेगा, इसकी क्या गारंटी है?
पिछले कुछ दशकों के दौरान जैसे-जैसे अरावली क्षेत्र में लोगों की गतिविधियां बढ़ी हैं, अपनी सुविधा और स्वार्थ में इस इलाके की प्राकृतिक संरचना को होने वाले नुकसान के सवाल की घोर अनदेखी हुई है। निर्बाध तरीके से बलुआ पत्थर, चूना पत्थर, संगमरमर और धात्विक खनिजों की निकासी ने अरावली की पहाड़ियों और जंगलों पर विपरीत असर डाला और अब आसपास के शहरों की आबोहवा तथा भूजल के स्तर की हालत देखी जा सकती है।
कुछ प्रत्यक्ष और घातक परिणामों के बावजूद आखिर अरावली के संरक्षण का सवाल सरकार की नजर में महत्त्वपूर्ण नहीं है तो इसके क्या कारण हैं? माना जाता है कि पश्चिमोत्तर भारत में भूजल का स्तर फिर से बहाल करने, रेगिस्तान बनने से रोकने और लोगों की रोजी-रोटी बचाने के लिए अरावली जरूरी है। इसलिए पर्यावरण विशेषज्ञ अरावली को उसके पर्यावरणीय, भूगर्भीय और जलवायु संबंधी महत्त्व की नजर से देखने और आंकने की जरूरत पर जोर देते रहे हैं।
सच यह है कि एक ओर दुनिया भर में पारिस्थितिकी तंत्र और उसकी सुरक्षा के लिए हर स्तर पर चिंता जताई जा रही है, तो दूसरी ओर विकास के नाम पर चलने वाली कुछ कवायदों के पर्यावरण पर असर को लेकर कई तरह की आशंकाएं भी उभर रही हैं।
