मोकामा बिहार की राजधानी पटना जिले की एक तहसील है। बिहार के मुख्यमंत्री निवास से करीब 90 किलोमीटर दूर स्थित मोकामा दुलारचंद यादव की कथित हत्या के कारण चर्चा में है।

इस दुर्भाग्यपूर्ण घटनाक्रम ने मोकामा के बहाने भारतीय राजनीति की वह गन्दी आँत भी दुनिया के सामने ला दी है जिसका उपचार फिलहाल नजर नहीं आ रहा। मोकामा के घटनाक्रम से कुछ निष्कर्ष सीधे निकाले जा सकते हैं जिनमें भारतीय राजनीति का प्रतिनिधि चेहरा साफ दिखता है।

1- बैलेट नहीं बुलट का दम भी जरूरी

पिछले तीन दशक से मोकामा विधान सभा सीट पर आपराधिक छवि वाले उम्मीदवार या उनके रिश्तेदार जीतते आ रहे हैं।

अनंत सिंह के बड़े भाई दिलीप सिंह 1990 से 2000 तक मोकामा विधान सभा के विधायक रहे। साल 2000 में आपराधिक छवि वाले सूरजभान ने दिलीप सिंह को यहाँ से चुनाव हराया। 2005 में अनंत सिंह ने इस सीट से जीत हासिल की और उसके बाद से 2022 तक उनका इस सीट पर कब्जा रहा।

गैर-कानूनी हथियार रखने के एक मामले में अनंत सिंह को सजा होने के बाद उनकी सदस्यता रद्द हो गयी। साल 2022 में हुए उपचुनाव में अनंत सिंह की पत्नी नीलम देवी यहाँ से चुनाव लड़कर जीतीं और यहाँ की निवर्तमान विधायक हैं।

मौजूदा चुनाव में भी मोकामा सीट से दो आपराधिक छवि वाले नेता ही मुख्य उम्मीदवार हैं। एनडीए के टिकट पर अनंत सिंह उम्मीदवार हैं और महागठबंधन के टिकट पर सूरजभान की पत्नी वीणा देवी प्रत्याशी हैं।

साफ-सुथरे उम्मीदवार देने का दावा करने वाले प्रशांत किशोर की पार्टी जन सुराज ने मोकामा से प्रियदर्शी पीयूष नामक नौजवान को टिकट दिया है। चुनावी हलफनामे के अनुसार पीयूष की इमेज साफ नजर आती है मगर उनके प्रचार के दौरान दुलारचंद यादव की मौत ने उनकी उजली छवि के भ्रम का आवरण तार-तार कर दिया।

इससे साफ है कि मोकामा में तीन प्रमुख दलों के उम्मीदवार बैलेट और बुलट, दोनों का दम दिखाने में सक्षम हैं।

2- आपराधिक छवि वालों का सभी दलों में वेलकम

दुलारचंद यादव हत्याकांड से मोकामा की पिछले चार दशक की राजनीति चर्चा के केंद्र में आ गयी। इस चर्चा से साफ नजर आने लगा कि जिस तरह बिहार की राजनीति तीन-चार दलों के ईर्दगिर्द घूमती है उसी तरह मोकामा की राजनीति कुछ कथित बाहुबलियों के आसपास घूम रही है।

इन बाहुबलियों का राजनीतिक विचारधारा से कोई वास्ता नहीं। इनका मकसद किसी तरह से विधायक की सीट पर कब्जा बरकरार रखना है। जाहिर है कि विधायकी में ऐसा कोई जादू जरूर है जो हर बाहुबली इस पर कब्जा बनाए रखना चाहता है।

चुनाव में बैलेट और बुलेट का दम दिखा सकने वाले प्रत्याशी आपस में पार्टी बदल लेते हैं मगर वे इस सीट के भाग्यविधाता बने रहते हैं। दुलारचंद यादव खुद कभी चुनाव नहीं जीत पाए मगर वह पिछले चार दशक से इस सीट पर एक प्रमुख चुनावी फैक्टर बने हुए थे।

दुलारचंद यादव का आपराधिक रिकॉर्ड अनंत सिंह और सूरजभान जैसा ही रहा है। यानी एनडीए और महागठबंधन ने खुले आम बाहुबलियों को टिकट दिया तो जन सुराज उम्मीदवार ने बेटिकट बाहुबली को अपने साथ रखा हुआ था। दुलारचंद यादव की मृत्यु के बाद प्रशांत किशोर ने स्पष्ट किया कि यादव पार्टी के सदस्य नहीं थे, वह केवल स्थानीय प्रत्याशी के समर्थक थे।

दुलारचंद के कई वीडियो मौजूद हैं जिनमें वह तेजस्वी यादव को सीएम बनवाने की बात करते दिख रहे हैं मगर मोकामा सीट पर राजद ने शायद उनकी पसन्द का उम्मीदवार नहीं दिया इसलिए वह “अपना उम्मीदवार” लड़ा रहे थे। यानी वह दोनों हाथों में लड्डू रखना चाहते थे।

दुलारचंद यादव, अनंत सिंह और सूरजभान तीनों का इतिहास गवाह है कि इन तीनों का बिहार की सत्ता में रहे सभी गठबंधनों से याराना रहा है और सत्ताधारी दलों ने भी मौसम के अनुसार इनसे रिश्ते बनाने में संकोच नहीं किया है।

3- बाहुबलियों की बड़े नेताओं तक पहुँच

किसी जमाने में आपराधिक छवि वाले राजनीतिक दलों के पैदल सैनिक माने जाते थे। राजनीतिक दलों के आला पदाधिकारी इनके साथ दिखने से परहेज करते थे।

अनंत सिंह, सूरजभान और दुलारचंद यादव के बारे में जितनी खबरें मीडिया में आई हैं उनसे साफ है कि इन सभी का बिहार के शीर्ष नेताओं तक सीधी पहुँच रही है।

बिहार के कई कुख्यात बाहुबलियों की ख्याति रही है कि उनकी फोन पर सीधे मुख्यमंत्री से बात होती है। जाहिर है कि मुख्यमंत्री स्तर के नेता इसे विधायक या सांसद से संवाद बताएँगे मगर जनता जानती है कि महज विधायक या सांसद हो जाने से मुख्यमंत्री इतनी आसानी से उपलब्ध नहीं हो जाते।

लालू यादव और नीतीश कुमार दोनों ने आपराधिक छवि वाले नेताओं से कोई खास परहेज किया हो, यह आंकड़ों में नहीं दिखता है। अंतर केवल छवि और स्टाइल का है।

एनडीए और महागठबंधन के लिए चैलेंजर बनकर उभरने का प्रयास कर रहे प्रशांत किशोर अभी तक इस मामले में बचे हुए हैं मगर अपने पहले ही चुनाव में उन्होंने यह मान लिया है कि कुछ गलत छवि वाले लोग पार्टी का टिकट पा गये होंगे!

किशोर का दावा है कि उनके ज्यादातर उम्मीदवार साफ-सुथरी छवि वाले हैं और उनकी लिस्ट देखकर ऐसा लगता भी है मगर वह यह भूल गये कि दागी छवि वालों से पूरी तरह परहेज न करना एक गलत मैसेज देता है।

दुलारचंद यादव के मामले में किशोर ने यह कहकर पल्ला झाड़ा कि वह सदस्य नहीं थे बल्कि पार्टी उम्मीदवार के समर्थक थे। जन सुराज के एक अन्य बाहुबली उम्मीदवार के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने उन्हें “बिल्डर” बताया। आम भाषा में बिल्डर और ठेकेदार का मतलब क्या होता है यह जनता समझती है।

आपराधिक छवि वाले उम्मीदवार सत्ता के करीब रहने के लिए राजनीतिक दलों से दोस्ती बढ़ाते हैं। प्रशांत किशोर के पास इस समय कोई सत्ता नहीं है इसलिए उनसे दोस्ती बढ़ाने की चाहत रखने वाले दबंग भी कम होंगे। मगर शून्य सत्ता वाले आदर्शवादी दल की तरफ से दो-चार बाहुबली भी जनता के बीच उपस्थित हैं तो इससे उसके भविष्य को लेकर बहुत आशा नहीं जगती है।

4- कानून का दागी बनाम गरीबों का मसीहा

मोकामा विधान सभा सीट पर अनंत सिंह की लगातार जीत का सूत्र तलाश रहे तमाम पत्रकार जनता से बातचीत करके यह राज जानने का प्रयास करते रहे हैं।

जाति के बहुचर्चित एंगल को छोड़कर एक बात मीडिया और जनता के संवाद से साफ उभरती है कि अनंत सिंह के समर्थक उन्हें गरीबों का मसीहा मानते हैं। ये गरीब केवल अनंत सिंह की जाति के नहीं होते हैं बल्कि अन्य बहुत सी जातियों के होते हैं।

अनंत सिंह के समर्थकों के बयानों से साफ होता है कि विधायक जी गाढ़े वक्त में उनकी आर्थिक मदद करते रहे हैं। आर्थिक मदद के अलावा जो मदद पुलिस, तहसील और अदालत को करनी चाहिए ऐसे मामलों में भी अनंत सिंह उनके लिए उम्मीद की किरण होते हैं।

बिहार की 34.13 प्रतिशत आबादी छह हजार रुपये महीने से कम कमाती है। 63.74 प्रतिशत आबादी 10 हजार रुपये से प्रति माह से कम कमाती है। 81.8 प्रतिशत आबादी 20 हजार रुपये मासिक से कम कमाती है।

जिस राज्य की करीब 82 प्रतिशत आबादी 20 हजार रुपये से कम कमाती हो उसके लिए विवाह, त्योहार, इलाज या दूसरे बुरे वक्त में 10-20 हजार की मदद देने वाले विधायक जी मसीहा बन गये हैं तो यह हैरानी की बात नहीं है।

ताजा हलफनामे के अनुसार अनंत सिंह और उनकी पत्नी नीलम देवी की कुल सम्पत्ति करीब 100 करोड़ रुपये की है। यानी आम जनता की आर्थिक मदद करते रहने के बावजूद अनंत सिंह की दौलत में इजाफा ही होता रहा है। यानी कहीं न कहीं उन्हें वह चाभी मिल गयी है जिससे बांटने से दौलत बढ़ती है।

अनंत सिंह नहीं, कई अन्य बाहुबली नेताओं की चुनावी जीत में भी बाहुबल से ज्यादा धनबल की भूमिका देखी जाती रही है। चुनाव के वक्त पैसा बांटने वाला धनबल नहीं बल्कि मुश्किल में दस-पाँच हजार की मदद की उम्मीद बनकर बारहों महीने उनके बीच रहने वाला धनबल।

5- जनता के बीच मौजूद रहने वाला नेता

अनंत सिंह का समर्थन करने वाले वर्ग से बातचीत करने के दौरान यह बात भी बार-बार सुनने को मिलती है कि ‘विधायक’ जी हमेशा जनता के बीच उपलब्ध रहते हैं।

एक पत्रकार ने अनंत सिंह से पूछा कि इस बार उनकी पत्नी नीलम देवी चुनाव क्यों नहीं लड़ रही हैं तो उन्होंने कहा कि वह जनता के बीच नहीं रहती है। जनता घर पर आती है तो वह अन्दर ही रहता है। कुछ अन्य स्थानीय पत्रकारों ने दावा किया कि उनकी पत्नी क्षेत्र से ज्यादा दिल्ली में रहती थीं इसलिए भी अनंत सिंह ने खुद चुनाव लड़ने का फैसला किया।

कुछ साल पहले अनंत सिंह पर इलाके के नामी बदमाशों सोनू-मोनू गैंग ने हमला कर दिया था। उस हमले के केन्द्र में भी एक गरीब था जिसके घर पर सोनू-मोनू ने ताला लगा दिया था जिसे खुलवाने अनंत सिंह गये।

नाली-गली-सड़क इत्यादि के लिए भी अनंत सिंह जनता के सामने ही सीधे सम्बन्धित अधिकारी को फोन कर देते हैं और ऐसी घटनाओं के वीडियो सोशलमीडिया पर भी शेयर किए जाते हैं।

अनंत सिंह इस बार जोर देते हैं कि बाहुबल के दम पर चुनाव नहीं जीता जाता बल्कि जनबल के दम पर चुनाव में विजय मिलती है। एक स्थानीय मतदाता ने मीडिया से कहा कि अनंत सिंह काम करें या न करें वह उनकी बात जरूर सुनते हैं और उनके लिए हमेशा उपलब्ध रहते हैं।

लोक सभा हो या विधान सभा, हर चुनाव में यह खबर जरूर आती है कि फलाने जगह की जनता ने नेता का विरोध किया क्योंकि वह केवल चुनाव में नजर आते हैं।

जनता के बीच उपलब्ध रहना जब चुनावी फैक्टर बन जाए तो समझ सकते हैं कि हमारे नेता जनता से कितने दूर हो चुके हैं। ऐसे में अगर जनता एक जज की नजर के बजाय जरूरत की नजर से देखकर विधायक चुनती है तो उसे कहाँ तक दोष दिया जाए!

6- एक-दो जाति के दम पर चुनावी जीत नहीं मिलती

बिहार के चुनाव में जाति की बहुत ज्यादा चर्चा होती है। जाति या समुदाय (community) के समीकरण के आधार पर चुनावी जीत-हार की रणनीति बनाया जाती है।

मोकामा हो या पूरा बिहार, यह साफ है कि किसी एक जाति या समुदाय के समर्थन के दम पर न तो विधान सभा जीती जा सकती है और न ही राज्य की सत्ता।

मोकामा सीट पर भूमिहार समुदाय की अच्छी आबादी मानी जाती है। यह माना जा रहा था कि राजद ने अनंत सिंह के मूल जनाधार मे सेंध मारने के लिए राजद ने सूरजभान की पत्नी को टिकट दिया था। माना जाता है कि मुस्लिम और यादव समुदाय राजद का कोर वोटर है।

जन सुराज ने प्रियदर्शी पीयूष को टिकट दिया जो धानुक समुदाय से आते हैं। राजनीतिक विश्लेषकों ने दावा किया कि दुलारचंद यादव के माध्यम से पीयूष यादव वोटरों का समर्थन पाने का प्रयास कर रहे थे।

जो भी दल चाहे जो भी समीकरण बनाए, इतना साफ है कि मोकामा जीतने के लिए किसी एक या दो जाति का समर्थन हासिल करना काफी नहीं है। कोई भी जाति या समुदाय हो उसे कई अन्य समुदायों का सामूहिक समर्थन मिलने पर ही उसकी चुनावी नाव पार होगी।

7- शिक्षा से राजनीति का कोई सीधा वास्ता नहीं

मोकामा के पूर्व विधायक अनंत सिंह सार्वजनिक रूप से कह चुके हैं कि वह शिक्षित नहीं हैं। अनंत सिंह के चुनावी हलफनामे में उन्हें “साक्षर” बताया गया है। यानी उन्हें लिखना-पढ़ना आता है मगर उनके पास कोई स्कूली प्रमाणपत्र नहीं है।

बिहार चुनाव में भाग्य आजमा नौ उम्मीदवारों ने खुद को निरक्षर बताया और 117 उम्मीदवारों ने खुद को साक्षर बताया।

एडीआर की रिपोर्ट के अनुसार बिहार चुनाव में नामांकन दाखिल करने वाले 528 उम्मीदवारों ने 12वीं से आगे की पढ़ाई नहीं की है। यानी कुल उम्मीदवारों के 41 प्रतिशत ने केवल स्कूल तक की पढ़ायी की है।

बिहार के करीब 48 प्रतिशत विधायक उम्मीदवारों ने खुद को स्नातक या उससे अधिक शिक्षित बताया है। इन स्नातको में विज्ञान विषयों के स्नातक का अनुपात काफी कम होगी।

आम विधायक ही नहीं बड़े-बड़े नेताओं की शैक्षणिक योग्यता भी विवादों में रही है। बिहार के वर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इंजीनियर हैं। लालू यादव बीए-एलएलबी हैं। लालू यादव की पत्नी और पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी आठवीं पास हैं।

नीतीश और लालू के उलट अगर आज की पीढ़ी में देखें तो महागठबंधन के मुख्यमंत्री उम्मीदवार तेजस्वी यादव नौवीं पास हैं। बिहार के मौजूदा डिप्टी सीएम सम्राट चौधरी ने नियमित शिक्षा के तौर पर केवल सातवीं तक की पढ़ाई की है। सम्राट के पिता शकुनी चौधरी भी बिहार में मंत्री रहे हैं।

लोजपा (रामविलास) के प्रमुख चिराग पासवान ने केवल 12वीं तक की पढ़ाई की है। लालू यादव के बड़े बेटे तेज प्रताप यादव भी 12वीं पास है और वह बिहार सरकार मे मंत्री रह चुके हैं।

बिहार हो या देश, नेताओं की शैक्षणिक स्थिति देखकर यह साफ हो जाता है कि स्कूल-कॉलेज वाली शिक्षा एक ओवररेटेड अवधारणा है। इतना ही नहीं, यह भी साफ है कि शिक्षा का आर्थिक स्थिति से कोई सीधा लेना-देना नहीं है।

लालू यादव और रामविलास पासवान गरीब और वंचित परिवार से आते थे। ‘सामाजिक न्याय’ का राज आने से पहले ही लालू बीए-एलएलबी कर चुके थे और रामविलास एमए-एलएलबी कर चुके थे। मगर उनके बेटे साधारण स्नातक तक न हो सके। या कह लें कि उनके पिता की सफलता के बाद बच्चों के लिए स्नातक की डिग्री की जरूरत नहीं रह गयी।

8- सहानुभूति की लहर का असर

मोकामा में दुलारचंद यादव की मौत के बाद यह कहा जाने लगा कि प्रियदर्शी पीयूष को इस मृत्यु का लाभ मिलेगा। पीयूष के समर्थकों ने दावा किया कि पिछड़ा और अत्यंत पिछड़ा वर्ग अनंत सिंह को हराकर इसका जवाब देगा।

दुलारचंद की मृत्यु के बाद अनंत सिंह ने इशारों में यह कहना चाहा कि सूरजभान ने यादव वोटरों को अपने पक्ष में लामबन्द करने के लिए यह साजिश रची।

हत्या के आरोप में गिरफ्तार होने के बाद अनंत सिंह के पक्ष में सहानुभूति की लहर चलने के भी दावे किये जाने लगे। मुंगेर के सांसद ललन सिंह ने अनंत सिंह का प्रचार करते हुए इस गिरफ्तारी को इमोशनल एंगल देने में कोई कसर नहीं छोड़ी। मोकामा विधान सभा मुंगेर संसदीय क्षेत्र के तहत ही आती है।

अनंत सिंह से स्थानीय समर्थकों ने भी मीडिय से बात करते हुए दावा किया कि गिरफ्तारी के बाद भूमिहार समुदाय की सहानुभूत अनंत सिंह के साथ है। एक समर्थक ने दावा किया कि 90 प्रतिशत से ज्यादा जातीय वोट अनंत सिंह को मिलेंगे।

अनंत सिंह के अन्य समर्थकों के लिए भी उनके नेता की गिरफ्तारी कानून का मसला नहीं बल्कि भावना और प्रतिष्ठा का मसला है। ललन सिंह ने दावा किया है कि अनंत सिंह पिछले चुनाव से ज्यादा अंतर से जीत हासिल करेंगे।

जाहिर है कि इमोशनल लहर भारतीय राजनीति में आज भी गहरा असर रखती है। मोकामा में यह लहर किस दल को पार लगाएगी यह 14 नवंबर को मतदान के बाद पता चलेगा।

यहाँ तक पढ़कर शायद आपको भी मेरी तरह आनन्द फिल्म में राजेश खन्ना का कहा मशहूर संवाद याद आ गया होगा। आनन्द की तर्ज पर कहें तो जीत और हार ऊपर वाले के हाथ में है जहाँपनाह, अनंत सिंह और दुलारचंद यादव लोकतंत्र के रंगमंच पर कठपुतली मात्र हैं।