लाल किले पर आतंकी हादसे के अगले दिन संयोग से मैं अपने एक कश्मीरी दोस्त से मिली। उन्होंने कहा, ‘याद है मैंने तुमको क्या कहा था जब हम श्रीनगर में मिले थे दो साल पहले? उस वक्त पर्यटकों की बहार थी। ऐसा लगता था कि जिहादियों का बिल्कुल सफाया हो गया है और मैंने तुमको कहा था कि शांति सिर्फ ऊपर-ऊपर से है। याद है कि यह भी कहा था मैंने कि लोगों में अंदर से गुस्सा है जो कभी भी शांति को अशांति में बदल डालेगा। मेरा यह दोस्त एक कामयाब कारोबारी है जिसका ज्यादातर कारोबार दिल्ली से चलता है इसलिए कि असली पैसे मिलते हैं शालें, कालीन और अन्य कश्मीरी चीजें निर्यात करने से। इसकी न जिहादियों से कोई हमदर्दी है और न ही वह कश्मीर की सियासत से कोई वास्ता रखता है, लेकिन कश्मीर के उस दौरे पर मैंने उसकी बात राजनेताओं और पत्रकारों से भी सुनी थी।

घाटी पर जो शांति की चादर बिछी थी वह इतनी नाजुक थी कि कभी भी फट सकती थी, लेकिन मालूम नहीं क्यों केंद्र सरकार की खुफिया एजंसियों को यह बात पता नहीं थी। हर दूसरे दिन कोई आला राजनेता या अफसर बयान देता आया है कि घाटी से आतंकवाद को बिल्कुल समाप्त कर दिया गया है। यह बात केंद्रीय गृहमंत्री से हमने बहुत बार सुनी है और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार से भी। पहला झटका उनको लगा जब पहलगाम में आतंकवादी हमला हुआ था। उसको हमने पाकिस्तान के सिर थोप कर आपरेशन सिंदूर द्वारा उस देश के अंदर ‘घुस कर’ आतंकवादियों के मुख्यालय नष्ट किए, लेकिन इस बात पर किसी ने नहीं ध्यान दिया कि घाटी के लोगों में भी जिहादी विचारधारा ने ऐसी मजबूत जड़ें बनाई हैं कि उनको उखाड़ना आसान नहीं है।

जिन कश्मीरी डाक्टरों पर लालकिले वाली घटना को अंजाम देने का इल्जाम है, वे अपनी नजरों में अल्लाह के लिए लड़ रहे हैं अन्याय के खिलाफ।
ऐसा कह कर मैं बिल्कुल जिहादी आतंकवाद को सही नहीं कह रही हूं। मेरी नजरों में आतंकवादी कायर होते हैं, योद्धा नहीं, लेकिन इतना जरूर कह रही हूं कि इस जिहादी सोच को खत्म करना आसान नहीं होगा। देश भर में मुझे मिलते हैं मुसलमान, जो आकर्षित हुए हैं जिहादी सोच से, जबसे हिंदुत्व के नाम पर गौरक्षकों ने ऐसी जंग छेड़ी है कि कई बार उनका शिकार बने हैं बेगुनाह कारोबारी, किसान और आम लोग। जब पढ़े-लिखे डाक्टर ही बनने लगते हैं आतंकवादी, तो वास्तव में चिंता होनी चाहिए देश के नेताओं को और हमको भी।

लालकिले वाली घटना के बाद खबर पत्रकारों को दी गई है कि हमारी सुरक्षा एजंसियों ने सतर्कता न दिखाई होती, तो तेरह लोग नहीं कई और मर सकते थे। सारी साजिश रची थी अल फलाह विश्वविद्यालय से जुड़े चार डाक्टरों ने, जिनसे साबित हो गया है कि एक ने लालकिले के सामने अपनी गाड़ी को बम बना कर बेगुनाह लोगों की जानें लीं और बीस से अधिक लोगों को गंभीर चोटें पहुंचाई। साबित हो गया है कि इस डाक्टर का नाम था उमर मोहम्मद राठर। जितनी भी जानकारी आप तक पहुंची है, वह सुरक्षा एजंसियों ने पत्रकारों तक चुपके से पहुंचाई है। तो पहला सवाल यह है कि औपचारिक तौर पर क्यों नहीं देश को यह जानकारी दी जाती है जैसे विकसित पश्चिमी देशों में होता है।

‘सूत्रों’ द्वारा जब पत्रकार जानकारी लेते हैं, तो खोजी पत्रकारिता नहीं करते हैं। करते तो शायद अल फलाह विश्वविद्यालय के डाक्टरों में तकरीबन चालीस फीसद कश्मीर घाटी से क्यों आते हैं, यह बताते। जानकारी शायद मिलती कि इस विश्वविद्यालय को जिहादियों के मुख्यालय में कैसे तब्दील किया गया और क्यों नहीं पहले किसी ने इस बात पर ध्यान दिया था। जब डाक्टरों की गुप्त मुलाकातें होती थीं कमरा नंबर-13 में, जिसमें जिहादी साजिशें रच रहे थे, तो कैसे हो सकता है कि अल फलाह विश्वविद्यालय के मालिक तक यह खबर किसी ने नहीं पहुंचाई?

सबसे बड़ा सवाल यह है कि इतनी बड़ी साजिश दो-तीन राज्यों में जैश-ए-मोहम्मद के प्यादों ने कैसे रची। इसके बारे में हमारी खुफिया एजंसियों को खबर क्यों इतनी देर से मिली? इस सवाल का जवाब मैं विनम्रता से खुद देना चाहती हूं। मुंबई में रहती हूं और जब भी नवंबर का महीना आता है, तो मुझे याद आता है 26/11 वाला हमला। हर बार ध्यान में आता है कि जो हुआ था, वह दोबारा अगर पाकिस्तान के आतंकी संगठन करना चाहते हैं, तो उतनी ही आसानी से कर सकेंगे, जितनी आसानी से 2008 में उन्होंने किया था।

कारण यह है कि जो प्रशिक्षण देना चाहिए था मुंबई के आम पुलिसवालों को, उसके आसार तक नहीं देखने को मिले हैं। जिस प्रशिक्षण को ‘काउंटर-टेररिज्म’ कहते हैं अंग्रेजी में, वह बहुत खास है और अपने देश में, अभी तक इसको सिर्फ उन सुरक्षा कर्मियों को दिया जाता है जो वीआइपी सुरक्षा के लिए रखे जाते हैं। आम थानों में जो पुलिसवाले तैनात हैं उनको आतंकवादियों से लड़ने के लिए कोई प्रशिक्षण नहीं दिया जाता है।

दिल्ली में बम फटने के अगले दिन शहर के बाजारों में लाउडस्पीकर लगा कर लोगों को सावधान करने का काम किया गया था, लेकिन दूर तक आतंकवाद से लड़ने में प्रशिक्षित सुरक्षाकर्मी नहीं दिखे मुझे। कहना यह चाहती हूं मैं कि अक्सर होता यह है कि किसी आतंकवादी घटना घटने के बाद हम सब भूल जाते हैं कि आतंकवाद एक ऐसा कायर युद्ध है जिसके खिलाफ लड़ने के लिए युद्धस्तर की तैयारी होनी चाहिए प्रशिक्षित सुरक्षाकर्मियों द्वारा। उम्मीद करती हूं कि हमारे शासक अपनी पीठ थपथपाने के बदले सुरक्षा में असली परिवर्तन लाने के प्रयास करना शुरू करेंगे अब।