संगीत मात्र ध्वनियों का संयोजन नहीं, वह भावनाओं की एक जीवित भाषा है। इसमें किसी की आहट, किसी की खामोशी और किसी की गूंज मिलकर स्मृतियों का रूप ले लेती है। जब पंडित भीमसेन जोशी राग दरबारी का आलाप छेड़ते थे, तो उसमें केवल स्वर नहीं गूंजते थे, बल्कि वर्षों की साधना, करुणा और आध्यात्मिक ऊर्जा का स्पंदन भी सुनाई देता था। उस्ताद अमजद अली खान के सरोद से निकली हर तान महज रचना नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक संवाद है।

जीवन का संचार करने की क्षमता इंसान के हृदय से ही आती है

सवाल यह है कि क्या कोई मशीन इन भावनाओं की प्रतिकृति बना सकती है? शायद सुरों को गणितीय रूप से सटीक किया जा सके, लेकिन उनमें जीवन का संचार करने की क्षमता आज भी इंसान के हृदय से ही आती है, किसी एल्गोरिद्म से नहीं। एआइ यानी कृत्रिम बुद्धिमत्ता न सिर्फ सुर और ताल की नकल कर सकता है, बल्कि वह पूरी रचना को बुनने की क्षमता भी रखता है। लेकिन यहां एक सवाल यह है कि इस तकनीक से संगीत का भविष्य कितना सुरक्षित है या फिर इससे इस संगीत उद्योग में कोई उछाल का दौर आने वाला है?

आज ऐसे कई एआइ मंच हैं जो शब्दों से संगीत बना लेते हैं। ‘मेटा’ का ‘म्यूजिकजेन’ और अन्य प्रारूप कुछ पल में धुन तैयार कर सकते हैं। एआइ का संगीत के साथ प्रयोग अब केवल प्रयोगशाला की दीवारों तक सीमित नहीं रह गया है। आइआइटी मद्रास, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और आइआइएम बंगलुरु जैसे संस्थान इस दिशा में गंभीर शोध कर रहे हैं। यहां ‘राग रिकग्निशन एल्गोरिद्म’ पर काम हो रहा है, जो किसी राग की पहचान से लेकर प्रस्तुति की गुणवत्ता के मूल्यांकन तक सक्षम है। इससे शास्त्रीय संगीत सीखने वाले विद्यार्थियों को एक डिजिटल गुरु मिल रहा है, जो तुरंत सुधार बताता है।

संगीत है मानवीय संवेदनाओं को व्यक्त करने का सशक्त माध्यम

इसी क्रम में ‘सरगम एआइ’ और ‘ताल बोट’ जैसे स्वदेशी औजार उभर रहे हैं, जो गाने और ताल साधने वालों को एकदम समय पर सही-गलत होने के बारे में राय दे रहे हैं। विज्ञापन, गेम और यूट्यूब सामग्री बनाने वाले इन्हें बड़े उत्साह से अपना रहे हैं, क्योंकि इससे संगीत बनाने की लागत घटती है और समय की बचत होती है। मगर इसी सहजता में छिपा है एक बड़ा खतरा, जहां एक संगीत कलाकार की मेहनत, उसकी मौलिकता और उसकी संवेदनाएं मशीन की नकल में खो सकती हैं। यह बात सच है कि एआइ संगीत को नया विस्तार दे रहा है, पर साथ ही नकल और कापीराइट उल्लंघन जैसे गंभीर संकट भी पैदा कर रहा है।

तकनीकी दृष्टि से ये एआइ औजार अक्सर पुराने गीतों के ढांचे और ध्वनियों की नकल करते हैं, जिससे मौलिकता का प्रश्न उठता है। आर्थिक दृष्टि से यह उन कलाकारों की रोजी-रोटी पर चोट करता है जो वर्षों की मेहनत से अपनी पहचान बनाते हैं। इसके अलावा, सांस्कृतिक दृष्टि से संगीत से वह मानवीय स्पर्श गायब होने लगता है जो उसे सिर्फ मनोरंजन नहीं, बल्कि एक भावनात्मक जुड़ाव देता है।

एआइ ने नए कलाकारों के लिए प्रयोग की राहें खोली हैं

यहां इस बात पर भी ध्यान देने की जरूरत है कि एआइ ने नए कलाकारों के लिए प्रयोग की राहें खोली हैं। कोई भी युवा अब कम संसाधनों में धुन बनाना सीख सकता है, विचारों को रचना का रूप दे सकता है। कई संवेदनशील गायक और संगीतकारों का मानना है कि जब एआइ किसी कलाकार की आवाज को अन्य भाषा या शैली में नकल करता है, तो वह भावनाओं की वह गहराई नहीं दे पाएगा जो एक मूल कलाकार देता है; एआइ का गलत इस्तेमाल कलाकारों के रोजगार, उनकी शैली और कापीराइट एवं मूल रचनात्मकता पर गहरा प्रभाव डाल सकता है। साथ ही संगीत एक ‘मानव पूंजी’ है और हमें एआइ से बने गीतों के खिलाफ खड़े होना होगा, ताकि इस पूंजी की रक्षा की जा सके।

दरअसल, एआइ ने संगीत के कारोबार का चेहरा बदल दिया है। अब यह सिर्फ इंसान नहीं, बल्कि मशीन भी तय करती है कि हमें कौन-सा गाना सुनना चाहिए, किस वक्त कौन-सी धुन हमारे कानों तक पहुंचे और किस कलाकार का गाना सबसे आगे दिखे। धीरे-धीरे हमारी पसंद भी उन्हीं एल्गोरिद्म से बनने लगी है। यह बदलाव कहीं न कहीं हमारी स्वतंत्र पसंद को सीमित करता है। चिंता की बात यह है कि एआइ जिन आंकड़ों और डेटा पर काम करता है, वे ज्यादातर पश्चिमी संगीत पर आधारित हैं।

संगीत के बिना जीवन की कल्पना अधूरी

ऐसे में भारतीय शास्त्रीय संगीत की नफासत, तालों की जटिलता और रागों की बारीकी उस ढांचे में फिट नहीं बैठती। नतीजा यह हो सकता है कि हमारी पुरानी परंपराएं और लोकधाराएं धीरे-धीरे हाशिये पर चली जाएं और पूरी दुनिया का संगीत एक ही जैसे सांचे में ढलने लगे।

असल सवाल यह है कि क्या मशीन वही भाव पैदा कर सकती है जो उस्ताद राशिद खान के एक आलाप या पंडित कुमार गंधर्व की एक बंदिश में गूंजता है? कंप्यूटर धुन तो बना सकता है, पर उस धुन में छिपा दर्द, करुणा और आत्मा कहां से लाएगा? संगीत केवल गणना नहीं है, यह अनुभव है। और अनुभव वही महसूस करवा सकता है जो इंसान ने जिया हो।

फिर भी, हमें केवल डरने की जरूरत नहीं है। अगर सही तरीके से इस्तेमाल किया जाए, तो यही एआइ संगीत शिक्षा और अभ्यास को आसान बना सकता है। हमें इस संदर्भ में नीति-नियम बनाने की भी जरूरत है। आनलाइन मंचों को बाध्य किया जाना चाहिए कि वे एआइ-निर्मित गीतों को साफ-साफ स्पष्ट करें। दूसरा, प्रशिक्षण डेटा के उपयोग पर लाइसेंस जारी करने का एक ढांचा बनना चाहिए, ताकि कलाकारों को उचित रायल्टी मिल सके।

एआइ से बने गीतों या धुनों पर तकनीकी चिह्न स्पष्ट होना चाहिए, जिससे उनकी पहचान हो सके। कलाकारों और आवाज देने वाले अभिनेताओं के श्रम और अधिकारों को कानूनी सुरक्षा मिले। साथ ही एआइ विकसित करने वाली कंपनियां पारदर्शिता और नैतिकता के मानक अपनाएं, जिससे भारतीय और वैश्विक संगीत की परंपराएं पारदर्शिता और लोक अभिरुचि के साथ प्रसारित और प्रचारित हो सके।

यह वक्त किसी अंतिम फैसले का नहीं, बल्कि आत्मचिंतन का है। हमें तय करना है कि एआइ को अपने साथ रखेंगे, पर अपनी आत्मा को उसके हाथों नहीं सौंपेंगे, क्योंकि आखिर संगीत सिर्फ सुनने की चीज नहीं है, यह महसूस करने की कला है। और वह एहसास अब भी केवल इंसानी दिलोदिमाग से ही निकलता है।