हेमंत कुमार पांडेय

इस तेजी भागती दुनिया में कई संसार हमारे आसपास होते हैं। लेकिन हमारी नजरें इन पर नहीं ठहरतीं। अगर कभी ठहरती हैं, तो हमें चौंका जाती हैं। दिल्ली और मुंबई सहित देश के बड़े शहरों में फुटपाथ पर जीवन गुजारने वाले बच्चे यानी ‘स्ट्रीट चिल्ड्रेन’ की ऐसी ही कई दुनिया हैं। इसका अस्तित्व हमारे सामने होकर भी ओझल रहता है।

कभी-कभी हमारी गाड़ियों के यातायात संकेतक या चौराहे पर रुकने के बाद ये दुनिया हमें नजर आती है। हमारी कार में खिड़की के शीशे के बाहर उनके हाथ या तो हमारे सामने फैले होते हैं या फिर उनके हाथों में कुछ चीजें होती हैं, जिसे वे बेचना चाहते हैं। उनकी आंखों में बेबसी और उम्मीद का एक मिला-जुला संगम दिखता है।

इन बच्चों की दुनिया में केवल वे ही नहीं हैं। उनके माता-पिता के साथ अन्य रिश्तेदारों की पूरी दुनिया उनके साथ बसती है। इनमें से कई का बचपन से बुढ़ापे का लंबा दौर फुटपाथों पर ही बीत गया। इनमें कुछ ऐसी महिलाएं हैं, जो शादी से पहले भी फुटपाथ पर अपने माता-पिता के साथ रहती थीं और अब कहीं फुटपाथ पर ही उनका ससुराल भी है। इनमें से कई ने अपने बच्चों को सड़क किनारे जन्म दिया है।

क्या किसी महिला के मायके और ससुराल का पता एक फुटपाथ का होना एक सामान्य बात है? यह कितना मानवीय है? जब किसी ऐसे बच्चे से यह पूछा जाता है कि घर कहां है, तो वह इसके जवाब में कहता है- ‘फुटपाथ।’ क्या किसी बच्चे के घर का पता फुटपाथ बताना एक सामान्य-सी बात दिखती है? जब हम इन बच्चों से पूछते हैं कि बड़े होकर उन्हें क्या बनना है, तो वे तपाक से कहते हैं- ‘भिखमंगा।’ क्या हमें उनका यह जवाब सुनकर असहज नहीं होना चाहिए?

इन बच्चों में कई ऐसे बच्चे हैं, जिन्होंने अब तक स्कूल के भीतर कभी अपने कदम नहीं रखे। कई ऐसे हैं, जिनका नाम स्कूल से किसी कारण हटा दिया गया। दोबारा कोशिश किए जाने पर भी उनका दाखिला नहीं हो पाया। इन बच्चों के लिए किसी स्कूल की दीवारों पर लिखा कथन- ‘शिक्षा जीवन का प्रकाश होता है’ भी बेमानी दिखता होगा। अगर ऐसा है, तो फिर जीवन में शिक्षा की महत्ता के बारे में इनको क्या ही पता होगा! इनसे बात करके हमें मालूम होता है कि सभी बच्चों के सपने नहीं होते। जीवन में बुनियादी चीजों का अभाव उनसे उनका सपना भी छीन लेता है।

दिल्ली के फुटपाथों पर रहने वाले इन बच्चों की पढ़ाई की जिम्मेदारी झुग्गी बस्तियों के कुछ मासूम बच्चों ने उठाई है। ये बच्चे दिल्ली के एक इलाके में बस ठहराव के पास फुटपाथ के बच्चों के पीछे भागते हुए, उन्हें पकड़ कर लाते हुए दिख जाते हैं। वे उन्हें व्यवस्थित तरीके से एक जगह बैठाते हैं। इसके बाद इनकी ‘स्ट्रीट क्लास’ यानी फुटपाथ पर कक्षा शुरू होती है।

इस कक्षा में बच्चों को खेल, पेंटिंग, संगीत आदि के जरिए पढ़ाने के साथ-साथ उसके लिए ललक भी पैदा की जाती है। जब पढ़ाने वाले बच्चों से पूछा गया कि ‘बच्चे गर्मी की छुट्टी में नानी के घर या कहीं घूमने जाते हैं, लेकिन आप बच्चे लोगों ने फुटपाथ के बच्चों को पढ़ाने का फैसला क्यों किया?’ इसके जवाब में एक बच्ची ने कहा, ‘जब हमने पढ़ाई शुरू की तो हमें पता चला कि पढ़ना क्यों जरूरी है। ऐसे में हमने फुटपाथों पर जीवन गुजारने वाले बच्चों को पढ़ाने का फैसला किया, जिनमें अधिकांश पढ़ाई से दूर हैं।’

बस ठहराव के पास कुछ लोग होते हैं, जो इन बच्चों के सपने को पूरा करने के लिए थोड़ा-सा ही सही, लेकिन अपना योगदान देते हैं। वहां दौड़ती-भागती दुनिया के बीच हमें हाशिये के बच्चों की एक नई दुनिया दिखाई देती है, जो एक उम्मीद पैदा करती है।

यह उम्मीद कितनी बड़ी है, हम इसे इस बात से समझ सकते हैं कि अभी भी देश में वैसे बच्चों की संख्या करोड़ों में हैं, जो स्कूल से बाहर हैं। साल 2011 की जनगणना के मुताबिक देश में अठारह साल तक के बच्चों की कुल संख्या करीब पैंतालीस करोड़ है, लेकिन आज की तारीख में स्कूल जाने वाले बच्चों की संख्या करीब साढ़े छब्बीस करोड़।

यानी वैसे बच्चों की संख्या करोड़ों में है, जिनका कापी-कलम से कोई रिश्ता नहीं है। जिन हाथों में कलम होना चाहिए, उनमें औजार हैं। वहीं, साल 2011 की जनगणना के मुताबिक भारत में करीब अठारह लाख बेघर लोग हैं। इनमें से आधे से अधिक यानी 9.42 लाख शहरी क्षेत्र में रहते हैं।

हम विश्व की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने का दावा कर रहे हैं। लेकिन क्या हम इन बच्चों को शिक्षित और कुशल बनाए बिना यह मुकाम हासिल कर सकते हैं? क्या हम इन बच्चों को समाज की मुख्यधारा में लाए बगैर एक आधुनिक और विकसित भारत का निर्माण कर सकते हैं? ये सवाल सरकार के साथ-साथ हमारे सामने सुरसा की तरह मुंह खोले हुए है, जिनसे हम किसी तरह बचकर नहीं निकल सकते।