आज अंतरराष्ट्रीय प्रवासन, मानव विकास और आर्थिक प्रगति में योगदान का एक महत्त्वपूर्ण कारक बन चुका है। अंतरराष्ट्रीय प्रवासन संगठन (आइओएम) की रपट के मुताबिक विकासशील देशों में सकल घरेलू उत्पाद में उनके प्रवासी नागरिकों द्वारा भेजी जाने वाली राशि का योगदान, विदेशी प्रत्यक्ष निवेश से कहीं अधिक हो चुका है। दूसरी तरफ संघर्षों, हिंसा, प्राकृतिक और अन्य तरह की आपदाओं के कारण विस्थापितों की संख्या में रेकार्ड वृद्धि हो रही है।
हाल के वर्षों में विदेशी प्रवासियों की अपने देशों को भेजी गई धनराशि में 650 फीसद वृद्धि दर्ज हुई है। वैसे तो दुनिया आप्रवासन, विस्थापन और लाखों शरणार्थी शिविरों के साथ हिंसाग्रस्त और संकटपूर्ण अनुभवों से गुजर रही है। हिंसा और जलवायु आपदा के सताए हुए ऐसे लगभग बारह करोड़ लोगों को, दोहरे दंड के रूप में, पहले से ही मुद्रास्फीति जैसे आर्थिक संकटों से जूझ रहे मेजबान समुदायों की शरणार्थी विरोधी दुर्भावनाओं से भी जूझना पड़ रहा है।
22 फीसद शरणार्थी शिविरों में रह रहे
इस समय दुनिया भर में लगभग अठाईस करोड़ दस लाख यानी वैश्विक आबादी के लगभग 3.6 फीसद लोग अंतरराष्ट्रीय प्रवासी हैं, जिनमें से करीब बारह करोड़ लोग तो विस्थापित हैं। आइओएम की इस जानकारी के मुताबिक हिंसक संघर्षों से जान बचाने की कोशिश में हर तीन में से एक प्रवासी की जान चली जाती है। बीते दो वर्षों में 8,541 प्रवासी अपनी जान गंवा चुके हैं। मृत प्रवासियों में से दो-तिहाई से अधिक की शिनाख्त भी नहीं हो पाई है। बीते एक दशक में 63 हजार प्रवासियों की मौत हो चुकी है। इनमें लगभग छह हजार महिलाएं रही हैं। लगभग 27 हजार लोगों के तो अवशेष तक बरामद नहीं हो सके हैं। सबसे ज्यादा मौतें भूमध्यसागर के रास्ते हुई हैं।
संयुक्त राष्ट्र का मानना है कि 75 फीसद शरणार्थी गरीब हैं, जिनमें से केवल 50 फीसद को कोई रोजी-रोजगार मिलना संभव हो पा रहा है। उनको अक्सर खतरनाक स्थितियों से बाहर निकलने के लिए लगभग सब कुछ पीछे छोड़ना पड़ रहा है। आगे उनके लिए अपना जीवन फिर से बनाना और अपने मेजबान समुदाय से कोई सहयोग बमुश्किल मिल पा रहा है। लगभग 22 फीसद शरणार्थी शिविरों में रह रहे हैं, जबकि अन्य 78 फीसद शहरी या उपनगरीय क्षेत्रों में दिन गुजार रहे हैं। उनका जीवन असुरक्षित रहता है।
भाषाई और सांस्कृतिक चुनौतियां करती रहती हैं पीछा
विस्थापितों, शरणार्थियों और आप्रवासियों के लिए सुरक्षा, भोजन, पानी-बिजली और मानसिक स्वास्थ्य उनके अस्तित्वगत मुद्दे हैं। आंतरिक हिंसा और युद्धग्रस्त क्षेत्रों में, हवाई हमलों के सायरन उन्हें डराते रहते हैं। भावनात्मक स्तर पर उनकी कोई परवाह नहीं करता है। कठिनाइयां उन्हें रात-रात भर जगाए रहती हैं। ऐसे जटिल हालात में उन्हें बार-बार परिवार के साथ भागते रहना पड़ता है। भाषाई और सांस्कृतिक चुनौतियां भी पीछा करती रहती हैं। पराए मुल्क में वे सामान्य संदेश भी नहीं समझ पाते हैं।
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उनके बच्चे सतत शिक्षा और खेल-कूद से वंचित रहते हैं। उनके पारिवारिक रिश्ते तक बिखर जाते हैं। इन मुश्किलों में शरणार्थी जीवन जीने की इच्छाशक्ति तक खो बैठते हैं। विकलांग विस्थापितों की तो जिंदगी तबाह हो जाती है। सरकारों की आपातकालीन सेवाओं से भी उन्हें वंचित रहना पड़ता है। लाखों शरणार्थियों की वतन वापसी का सपना प्राय: टूट जाता है। महिलाओं को बड़ी ही जलालत भरी जिंदगी गुजारनी पड़ती है। उन्हें अक्सर दलालों की धोखाधड़ी का सामना करना पड़ता है। प्रवासन में बच्चों-बुजुर्गों की देखभाल उनके लिए एक अलग ही चुनौती होती है।
एक लाख से ज्यादा लोग जंगली रास्तों से भारत से गए थे नेपाल
कुछ दशक पहले पड़ोसी देशों के हजारों नेपालीभाषी भूटानी लोगों को अपनी मातृभूमि से भागने पर मजबूर होना पड़ा था। एक लाख से ज्यादा लोग जंगली रास्तों से भारत से नेपाल गए। उन्हें लगा था कि नेपाल, भाषा एक होने के नाते उन्हें स्वीकार कर लेगा, लेकिन आज दशकों बाद भी, नागरिकता के प्रश्न पर उन लोगों की जिंदगी अधर में लटकी हुई है। वे अपने देश नहीं लौट पा रहे हैं। ये लोग आसपास के खेतों में काम करके या शिविरों के अंदर खाना बेच कर थोड़ा पैसा कमा लेते हैं, लेकिन शिविरों को चलाने के लिए बहुत सारा पैसा उन भूटानी लोगों से आता है, जो अब दूसरे देशों में जा बसे हैं। संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2007 से 2016 के बीच, सवा लाख भूटानी शरणार्थियों को नेपाल के पूर्वी हिस्से में स्थित शिविरों से निकाल कर आठ देशों में बसाने में मदद की थी।
दीर्घकालीन विकास के लिए खेतीबाड़ी के साथ बढ़ाने चाहिए बुनियादी उद्योग
उधर, बढ़ती हिंसा के बीच विस्थापित लगभग नौ लाख सीरियाई गंभीर स्थितियों का सामना कर रहे हैं। वहां संयुक्त राष्ट्र आजीविका अनुदान, राहत वितरण, यौन हिंसा की रोकथाम और बारूदी जखीरों से सुरक्षा संबंधी गतिविधियां चला रहा है। इसी तरह सूडान में 1.2 करोड़ से अधिक लोग विस्थापन का शिकार हो चुके हैं। इनमें 32 लाख लोगों ने पड़ोसी देशों में शरण ले रखी है। शरणार्थी और विस्थापित परिवारों के बच्चों की शिक्षा तक सीमित पहुंच भी अब सिमटती जा रही है। तुलनात्मक रूप से शरणार्थी बच्चों के स्कूल से बाहर होने की आशंका पांच गुना अधिक है। संघर्ष, आघात और शरण की तलाश का भावनात्मक बोझ ऐसे बच्चों को औपचारिक कक्षाओं में प्रवेश लेने लायक भी नहीं रहने दे रहा है। बड़ी संख्या में वे बाल मजदूरी करने लगे हैं। अपने परिवारों के जबरन पलायन के बीच उनका भावनात्मक और मानसिक विकास थम-सा गया है। बीते दो वर्षों में अस्सी देशों में कम से कम तीन लाख बच्चे अकेले और अलग-थलग पड़ चुके हैं। उनका जोखिम दोगुने से भी अधिक हो चुका है। लड़कियों की तस्करी हो रही है।
नए आप्रवासियों का स्वागत करता रहा है कनाडा
कनाडा वैसे तो नए आप्रवासियों का स्वागत करता रहा है, लेकिन विस्थापितों और प्रवासियों के कारण पिछले कुछ वर्षों में उसकी आबादी 3.2 फीसद बढ़ चुकी है। वहां के बाशिंदों में 23 फीसद लोग एशिया और मध्यपूर्व के विदेशी हैं, जिनमें से ज्यादातर अस्थायी नागरिक और करीब नौ लाख अंतरराष्ट्रीय छात्र हैं। अब वहां अफ्रीकी प्रवासियों की संख्या बढ़ रही है। हर दो कनाडाई में से एक का कहना है कि आप्रवासन देश को नुकसान पहुंचा रहा है। विस्थापितों, आप्रवासियों, शरणार्थियों की बढ़ती संख्या को लेकर संयुक्त राज्य अमेरिका भी भारी दबाव से गुजर रहा है। वहां के आंकड़े बताते हैं कि बीते वर्षों में लगभग 87 हजार भारतीयों को दक्षिण-पश्चिम सीमा पर, लगभग 89 हजार को उत्तरी सीमा पर रोकना पड़ा। अमेरिका के लिए वे अब सबसे बड़े बाहरी समूह बनते जा रहे हैं। इस बीच यूरोप में भी आप्रवासियों की संख्या घटाने की कोशिशें शुरू हो चुकी हैं। ब्रिटेन भी अपने यहां आने वाले लोगों की संख्या कम करने की कोशिश कर रहा है।
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आंतरिक संघर्ष और जलवायु परिवर्तन सामूहिक प्रवास के दो सबसे बड़े कारण बन चुके हैं। शरणार्थियों को अपने मेजबान समुदायों के सदस्यों की तुलना में ज्यादा खतरे का सामना करना पड़ रहा है। भोजन और बुनियादी जरूरतों के लिए सीमित विकल्पों के साथ, उन्हें सबसे बुनियादी जरूरतों तक पहुंचने में भी भारी बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है। लगभग चार करोड़ शरणार्थियों को बुनियादी जरूरतें प्रदान करना और उनके अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करना बहुत बड़ी चुनौती बन चुकी है। हजारों शरणार्थियों को ऐसे देशों में रखा गया है, जो संघर्ष, हिंसा और असुरक्षा से ग्रस्त हैं। उनके सामने यह मानवाधिकार उल्लंघन का भी बड़ा संकट है।