सत्तर के दशक में दार्शनिकों ने स्त्रीवादी विचारधारा में एक नई परिकल्पना जोड़ी, जिसे ‘ईको फेमिनिज्म’ यानी पारिस्थितिक स्त्रीवाद कहा जाता है। इसमें प्रकृति और महिलाओं में समानता स्थापित करते हुए उनकी परेशानियों को उजागर किया जाता है। पारिस्थितिक स्त्रीवाद की अवधारणा का श्रेय फ्रांसीसी स्त्रीवादी चिंतक फ्रांस्वा द यूबोन को जाता है, जिन्होंने 1974 में प्रकाशित लेख ‘ले फेमनिज्म ओ ला मार्ट’ में इसका उल्लेख किया था।

पृथ्वी और पृथ्वी की समानधर्मा स्त्री ने खुद को, पृथ्वी और अन्य शोषित जातियों, नस्लों को बचाने के लिए आंदोलन शुरू किया। प्राकृतिक संसाधनों- वन, मिट्टी और जल से महिलाओं का सीधा और गहरा संबंध है। प्राचीन काल से महिलाओं और आदिवासियों को ही प्रकृति का संरक्षक माना गया है। आदिवासी समाज में वन-संपदा की अर्थव्यवस्था पूरी तरह महिलाओं की मानी जाती है।

पर्यावरण संरक्षण, खासकर वन संरक्षण को लेकर महिलाएं शुरू से ही जागरूक रही हैं। हमारे देश में महिलाओं ने अपने जमीनी अनुभव से पर्यावरण की बहस में एक अलग दृष्टिकोण पेश किया है। गरीब महिलाओं के जीवन को भी पर्यावरण सुरक्षा के मुद्दे पर विभाजित नहीं किया जा सकता, क्योंकि वे मुद्दों को व्यापक और समग्र परिप्रेक्ष्य में देखती हैं। वे स्पष्ट रूप से समझती हैं कि अर्थशास्त्र और पर्यावरण एक-दूसरे पर निर्भर हैं। उन्हें पता है कि पानी और बिजली की बचत से पैसे और पर्यावरण दोनों को बचाया जा सकता है।

महिलाएं अपने घर की हर चीज के उपयोग का रास्ता खोज लेती हैं। मसलन, सब्जी के डंठल की सब्जी हो या फटे-पुराने कपड़े की कथरी। जब हम भारतीय परंपराओं और अपने आदिवासी जीवन को देखते हैं, जिसका आधार प्रकृति है, उसमें दूब घास से लेकर बाघ तक को बचाने के उपाय हैं। हमारी पुरखिनों ने सम्मान दिया तो प्रकृति ने भी उनकी रक्षा की। बहनापे के साथ महिलाएं पृथ्वी का खयाल रखती रहीं हैं। इस ग्रह के संसाधनों के उपभोग के समय खुद के विषय में स्त्री यह सोचती है कि खुद और पृथ्वी पर लोगों के निर्विवाद नियंत्रण पर अंकुश लगे।

इस बीच, अध्ययनों से पता चलता है कि महिलाओं में दूसरों की देखभाल करने के मामले में उच्च स्तर का समाजीकरण होता है। इस वजह से उनमें पर्यावरण के प्रति जागरूकता की संभावना बढ़ जाती है। आज भी अधिकांश महिलाएं घर के कामों, कचरा निपटान, घरेलू खरीदारी, कपड़े धोने आदि की जिम्मेदारी निभाती हैं। इसलिए धरती रक्षक अधिकांश उत्पाद महिला उपभोक्ता केंद्रित होते हैं।

फिर सभ्यता के विकास के कालक्रम में पर्यावरण संरक्षण को महिलाओं ने व्रत-त्योहार से जोड़ दिया, जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण आज भी महिलाओं द्वारा व्रत-त्योहार के अवसरों पर या यों ही प्रतिदिन के क्रियाकलापों और पूजा-अर्चना में अनेक वृक्षों यथा- पीपल, तुलसी, आंवला, अशोक, बेल, शमी, नीम, आम आदि वृक्षों तथा अनेक पुष्पों और विभिन्न पशुओं जैसे गाय, बैल, चूहा, घोड़ा, सांप, बंदर, उल्लू आदि को सम्मिलित करना और उनकी पूजा-अर्चना के माध्यम से संरक्षण करना देखने को मिलता है।

यही नहीं, जल-स्रोतों के प्रति भी संरक्षण की भावना महिलाओं में प्राचीन काल से चली आ रही है, जैसे- गंगा पूजन, कुआं पूजन, तालाब पूजन। इस प्रकार स्पष्ट है कि संपूर्ण पारिस्थितिकी को संतुलित बनाए रखने के प्रति महिलाएं सदा से अग्रणी रही हैं। हमारी भारतीय संस्कृति में रची-बसी महिलाओं में प्रकृति संरक्षण की भावना पीढ़ी-दर-पीढ़ी पोषित होती चली आई है।

प्राकृतिक संसाधनों की कमी और पर्यावरणीय क्षय का महिलाओं के समय, आय, स्वास्थ्य पर सीधा प्रभाव पड़ता है। भारत की सामाजिक रचना, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में पर्यावरण प्रदूषण ने महिलाओं की जीवन-शैली को बुरी तरह प्रभावित किया है। यही कारण है कि पर्यावरण और प्रकृति से सीधे संपर्क में रहने के कारण ग्रामीण महिलाएं पर्यावरण संरक्षण के प्रति अधिक सचेष्ट हैं।

आज बचे-खुचे जंगली क्षेत्रों में जहां अंधाधुंध पेड़ काटे जा रहे हैं, जलाने के लिए महिलाओं को लकड़ी एकत्र करने कई किलोमीटर दूर जाना पड़ता है। खासकर रेगिस्तानी इलाकों, पठारी तथा पहाड़ी क्षेत्रों में, पानी जुटाने का भी दायित्व महिलाओं पर है और पानी के लिए उन्हें 10-15 किलोमीटर तक पैदल चलना पड़ता है।

इस तरह पर्यावरण संरक्षण में महिलाओं ने विशेष भूमिका निभाई है। खासकर ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाओं के योगदान को कभी नहीं भुलाया जा सकता। इन महिलाओं ने अपने आसपास की पर्यावरणीय समस्याओं को सुलझाने की कोशिश की है। भारत के पर्वतीय क्षेत्रों में अपनी पहचान बना चुके ‘चिपको आंदोलन’ ने पर्यावरण संरक्षण, खासकर वन-संरक्षण की दिशा में एक नई चेतना पैदा की है। यह आंदोलन पूरी तरह महिलाओं से जुड़ा है।

आज भी पहाड़ों पर महिलाएं यही प्रक्रिया अपना कर पेड़ों को बचाने में लगी हैं। यह ‘चिपको आंदोलन’ उत्तराखंड के पर्वतीय जिलों- चमोली, कुमाऊं, गढ़वाल, पिथौरागढ़ आदि में प्रारंभ हुआ और जंगलों के विनाश के विरुद्ध सफल आंदोलन के रूप में पूरी दुनिया में सराहा जा चुका है। इस आंदोलन का संचालन करने वाली पहाड़ी ग्रामीण क्षेत्रों की रहने वाली निरक्षर और अनपढ़ महिलाएं हैं।

पर्यावरण संरक्षण के साथ भारतीय महिलाओं की प्रत्यक्ष चिंता 1731 ई. में ही दिखाई दे गई थी। महाराजा अभय सिंह ने किले के निर्माण के लिए बिश्नोई समाज द्वारा पूजित खेजड़ी के पेड़ों को काटने का शाही आदेश दिया। उसका विरोध करते हुए अमृता देवी के नेतृत्व में गांव वालों ने असहमति का एक नया रूप प्रस्तुत किया। अहिंसक ग्रामीणों ने पेड़ों को गले लगा लिया था। इस आंदोलन में अमृता देवी के साथ उनकी तीन बेटियों और 363 ग्रामीणों के सिर कलम कर दिए गए थे।

राजस्थान में उदयपुर के निकट ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाएं ऊसर और रेतीली भूमि को हरे-भरे खेतों में बदल रही हैं। हिमाचल प्रदेश की महिलाएं भी पर्यावरण-संरक्षण कार्यक्रम में किसी से पीछे नहीं हैं। कर्नाटक का अप्पिको आंदोलन महत्त्वपूर्ण पर्यावरण संरक्षण आंदोलन है। वर्ष 2021 में कर्नाटक की आदिवासी महिला तुलसी गौड़ा को 30,000 से अधिक पेड़ लगाने के कारण पद्म श्री सम्मान से सम्मानित किया गया।

केरल के पश्चिमी घाट के दक्षिणी छोर में ‘साइलेंट वैली’ महत्त्वपूर्ण है, जो जैव विविधता ‘हाटस्पाट’ में से एक है। ‘साइलेंट वैली आंदोलन’ केरल सरकार के एक फैसले के खिलाफ था। वहां पनबिजली परियोजना के लिए एक बांध का निर्माण प्रस्तावित था। मलयालम कवयित्री और पर्यावरणविद सुगाथा कुमारी इसमें प्रमुख नेता थीं। परिणामस्वरूप परियोजना को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के व्यक्तिगत हस्तक्षेप के बाद केरल सरकार ने रद्द कर दिया था। 1984 में साइलेंट वैली को राष्ट्रीय उद्यान घोषित कर दिया गया।

इस प्रकार संस्कृति, धर्म, साहित्य में महिलाओं और प्रकृति के बीच संबंधों की खोज करता पारिस्थितिक स्त्रीवाद भारत की जीवन शैली में है। जरूरत पड़ने पर महिलाओं ने संघर्ष किया, खुद से अधिक इस धरती के साथ बहनापा निभाया है। आज भी विकास के नाम पर कटते पेड़ों को बचाने के लिए महिलाएं तैयार हैं।