समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने सोमवार को रायबरेली में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के संस्थापक कांशीराम की प्रतिमा का अनावरण किया। इस दौरान सपा प्रमुख ने कहा कि उनके पिता मुलायम सिंह यादव द्वारा शुरू किया गया समाजवादी आंदोलन वही था जो बी आर अम्बेडकर और कांशीराम ने दिखाया था।
अखिलेश यादव ने कहा कि कांशीराम ने 1991 में यादव परिवार के गृह क्षेत्र इटावा से अपना पहला लोकसभा चुनाव जीता था, इस ही के बाद एक नई राजनीति की शुरुआत हुई थी। 1993 के यूपी विधानसभा चुनावों के लिए बसपा और सपा के बीच गठबंधन करने से पहले, कांशीराम और मुलायम सिंह यादव दोनों ही राजनीतिक सफर में काफी आगे आ खड़े हुए थे।
मुलायम और कांशीराम के राजनीतिक जीवन की शुरुआत
कांग्रेस का प्रमुख समर्थन आधार कहे जाने वाली अनुसूचित जातियों (एससी) और अल्पसंख्यकों को अपने-अपने पाले में लाकर बसपा और सपा ने यूपी में सबसे पुरानी पार्टी के शासन के अंत की पटकथा लिखी थी दोनों संगठनों ने अपने वैचारिक बेस को फैलाने के पूरे प्रयास किए।
बसपा-सपा के संबंधों के इतिहास पर नजर डालें तो पता चलता है कि दोनों दलों के संस्थापकों ने अपनी पार्टियों की ताकत को महसूस करने के बाद एक-दूसरे से हाथ मिलाने का फैसला किया। अक्टूबर 1992 में मुलायम सिंह ने समाजवादी पार्टी का गठन किया था। जबकि कांशी राम ने 1984 में अपने DS-4 (दलित शोषित समाज संघर्ष समिति) के तहत सामाजिक इंजीनियरिंग के प्रयोगों के बाद बसपा की स्थापना की थी।
मुलायम सिंह यादव साठ के दशक के मध्य में राम मनोहर लोहिया की संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (एसएसपी) में शामिल हुए थे और यहीं से उन्होने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की थी।
मुलायम सिंह ने कांशीराम को इटावा से चुनाव लड़ने के लिए राजी किया
मुलायम सिंह यादव को बसपा की ताकत का अंदाजा बहुत पहले हो गया था। 1991 के लोकसभा चुनावों में चंद्रशेखर सरकार के पतन के बाद मुलायम सिंह यादव ने कांशीराम को इटावा से चुनाव लड़ने के लिए राजी किया और उनके खिलाफ उम्मीदवार नहीं खड़ा किया। इस दौरान जनता दल के तत्कालीन नेता वीपी सिंह के साथ मुलायम के संबंध खराब हो गए थे और मुलायम सिंह यादव एक नया राजनीतिक गठजोड़ चाहते थे। यहीं से कांशीरम और मुलायम के करीब आने का सिलसिला शुरू हुआ।
कांशीराम ने अपना पहला लोकसभा चुनाव 1984 में जांजगीर-चांपा (अब छत्तीसगढ़ में) से निर्दलीय के रूप में लड़ा था। मायावती उनकी करीबी सहयोगी को तब यूपी के कैराना से मैदान में उतारा गया था। हालांकि दोनों हार गए थे । कांशीराम को 8.81 प्रतिशत वोट मिले और मायावती को 9.94 प्रतिशत वोट मिले।
1993 के यूपी विधानसभा चुनावों को एक साथ लड़ने के लिए बसपा और सपा दोनों ने हाथ मिलाया। सपा ने 256 सीटों पर चुनाव लड़ा और 109 सीटों पर जीत हासिल की, जबकि बसपा ने 164 सीटों पर चुनाव लड़ा और 67 सीटों पर जीत हासिल की। दलितों और ओबीसी मतदाताओं ने अपने गठबंधन का समर्थन किया, दोनों दलों ने त्रिशंकु विधानसभा में भाजपा से बेहतर प्रदर्शन किया।
कांग्रेस सहित कुछ अन्य दलों ने सपा-बसपा गठबंधन को अपना समर्थन दिया, मुलायम सिंह ने 4 दिसंबर, 1993 को दूसरी बार मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली।
फिर आने लगी दरार
गठबंधन सरकार बनने के कुछ ही महीनों के भीतर सपा और बसपा के बीच दरार उभर आई। दोनों ही पार्टियों पर अपने समर्थन आधार को बढ़ाने का दबाव था। बसपा ने कुछ सबसे पिछड़े समुदायों तक पहुंच बनाकर अपने दलित समर्थन आधार को मजबूत करना शुरू कर दिया, जिससे मुलायम पर इसका सीधा असर पड़ने लगा। 31 मई, 1995 को बसपा के राज्यसभा सांसद और कांशीराम के करीबी कारोबारी जयंत मल्होत्रा ने कहा कि मुलायम जल्द ही सत्ता से बाहर हो जाएंगे। जुलाई 1994 में कांशीराम ने सरकार से हटने की धमकी भी दी थी लेकिन बात नहीं बनी।
हालांकि, 1 जून, 1995 को बसपा ने सरकार से नाता तोड़ लिया। राज्यपाल वोरा ने मुलायम से इस्तीफा देने को कहा, लेकिन उन्होंने पद छोड़ने से इनकार कर दिया। इस बीच, बसपा को विभाजन का सामना करना पड़ा क्योंकि पार्टी के 25 विधायक, राज बहादुर के नेतृत्व में, बसपा (आर) नामक एक अलग संगठन बनाने के लिए अलग हो गए।