हम सभी इतने व्यस्त हो गए हैं कि प्रकृति प्रदत्त दुर्लभ जीव-जंतुओं और जैव विविधता की महत्ता को ही भूल गए हैं। या फिर जानबूझ कर भुला देते हैं? मगर जब कभी कोई अजूबा जीव-जंतु जीवित दिखता है, तो हम पुराने किस्से-कहानियों को खंगालने लगते हैं। विशेषज्ञों की तरफ अचरज भरी निगाहों से देखते हैं। प्राय: ऐसे जीव दिख जाते हैं, जिन्हें हम विलुप्त मान बैठे होते हैं, लेकिन वास्तव में हैं नहीं। जितना इनका मिलना विस्मयकारी है उतना ही विचारणीय भी कि वास्तव में ये दुर्लभ हैं या मानव निर्मित कथित कृत्रिम विकास से डर कर जीवन बचाने के लिए बहुत दूर जा छिपे हैं। हम प्रकृति के उपकार को क्यों नहीं समझते?

हाल ही में हिमाचल प्रदेश में उड़ने वाला एक जीव मिला। देश और दुनिया के वैज्ञानिक एवं जीव प्राणी विशेषज्ञ चकित रह गए। जिसे दुर्लभ प्रजाति और लगभग सात दशकों से विलुप्त मान कर 1994 से ही खोज ही बंद कर दी थी, वह अचानक जीता-जागता दिख जाए, तो सबका अचरज में डूबना स्वाभाविक था। लाहौल-स्पीति में उड़ने वाली गिलहरी, जिसे ‘यूपेटारस सिनेरेउस’ कहते हैं, वह मानवीय गतिविधियों से मीलों दूर सुनसान इलाके में लगाए गए कैमरों में कैद हुई। यह अकस्मात ही था, क्योंकि वास्तव में सर्वेक्षण हिम तेंदुए का हो रहा था। वन विभाग ने इस क्षेत्र में वर्ष 2023 से बर्फानी तेंदुओं के सर्वेक्षण के लिए दुर्गम इलाकों में कैमरे लगा रखे थे, जिनमें दस अक्तूबर से चार दिसंबर 2024 के बीच हुई रिकार्डिंग को खंगालने के दौरान ऊनी गिलहरी की तस्वीरें कैद हुईं।

दरअसल, वहां ‘नेचर कंजरवेशन फाउंडेशन’ मैसूर द्वारा पिछले 15 वर्षों से शीत रेगिस्तान में दुर्लभ वन्य जीवों की खोज की जा रही थी। वास्तव में हिम तेंदुओं की जानकारी जुटाई जा रही थी, लेकिन अन्य और विलुप्त समझे जाने वाले कुछ वन्यजीवों के अस्तित्व में होने का सच भी सामने आ गया। शीत रेगिस्तानों की जटिल और विकट भौगोलिक परिस्थितियां होती हैं। इससे वन्य प्राणियों की उपस्थिति का वास्तविक समय, स्थान और पता करना आसान नहीं होता। शायद इसी वजह से इन्हें खोज न पाने की स्थिति में बहुत ही आसानी से दुर्लभ या विलुप्तप्राय: की श्रेणी में डाल दिया जाता है। जबकि वास्तविकता इसके अलग भी हो सकती है।

हिमाचल की दुर्गम वादियों में एसपीएआइ यानी ‘स्नो लेपर्ड पापुलेशन असेसमेंट इन इंडिया योजना’ के तहत मियार घाटी के अति दुर्गम क्षेत्रों में 62 कैमरे लगाना वन विभाग और सरकारी तंत्र के लिए आसान नहीं था, लेकिन वहां के युवाओं के जोश ने इस बेहद कठिन और चुनौतीपूर्ण काम को कर दिखाया। इस तरह वहां लगे कैमरों से हिम तेंदुओं के सर्वेक्षण के लिए तैनात दल को लाल लोमड़ी, हिमालयी भेड़िए और पहाड़ी नेवले भी दिखे। ये सभी प्राणी बर्फीले चट्टानी इलाकों और वहां के खुले मैदानों में थे। इतना तो कहा जा सकता है कि प्रकृति ने अभी अपना संतुलन काफी हद तक बनाए रखा है। जिसे हम विलुप्त समझ बैठे थे, वे मौजूद हैं।

लाहौल-स्पीति जिले में ही लगभग छह वर्ष पहले ‘वैक्सविंग’ नामक ऐसा दुर्लभ पक्षी मिला था जो वहां पहले कभी नहीं देखा गया। निश्चित रूप से हमने प्रकृति के विरुद्ध कितनी भी विपरीत परिस्थितियां क्यों नहीं निर्मित कर दीं, लेकिन उसने अपने अनमोल रत्नों को कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में बचा कर रखा है। इनका मिलना बताता है कि मनुष्यों के प्रकृति विरुद्ध कृत्यों से डर कर ऐसे प्राणी कहीं दूर अपनी सुरक्षा ढ़ूंढ़ते हुए धरती के उस आंचल में चले जाते हैं, जहां उन्हें पता होता है कि अभी इंसानों की या तो पहुंच नहीं हुई है या पहुंचना दुरूह है। हमारे लिए सुखद यह है कि अभी भी ऐसे क्षेत्र सुरक्षित बचे हुए हैं, जहां विलुप्त मान बैठे जीव-जंतु मिल रहे हैं।

विलुप्त श्रेणी में डाले गए दुर्लभ प्रजातियों के प्राणियों के मिलने से इतना तो साफ हो गया है कि पहाड़ों पर बर्फीले, रेगिस्तानी चट्टानों और ढलानों वाले पारिस्थितिकी तंत्र में इनकी मौजूदगी अब भी है और वैज्ञानिक तथा वनस्पति-प्राणी शास्त्र के विशेषज्ञों को अपनी राय बदलनी होगी। साफ पता चलता है कि मियार घाटी न केवल जैविक विविधता वरन हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र की दृष्टि से अब भी कितना समृद्ध है। पर्यावरण विरोधी माहौल में ऐसे जीव-जंतुओं की मौजूदगी किसी बड़ी उपलब्धि से कम नहीं। इनका मिलना एक इशारा है कि अब भी ज्यादा कुछ बिगड़ा नहीं है। लगता नहीं कि हम सबको जैव विविधता के बारे में और भी गहराई से जानने-समझने की जरूरत है। वास्तव में यही वह तंत्र है, जिससे पृथ्वी पर जीवन है।

जैव विविधता आनुवंशिकी, प्रजाति, पारिस्थितिकी तंत्र और कामकाज की विविधता जैसे चार हिस्सों में बांटी गई है। इन पर मंडरा रहे खतरों से सभी के स्वास्थ्य और कल्याण पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। वन्यजीवों को बचाने वाली महत्त्वपूर्ण रपट भी इन पर आसन्न खतरों को भांपते हुए निपटने के तात्कालिक कदम उठाने के लिए सचेत कर बताती हैं कि अब भी लापरवाह रहे, तो कुछ ही दशकों में दुनिया भर में कई प्रजातियां लुप्त होंगी।

अमेरिका का ही संदर्भ लें, जिस पर आई चौंकाने वाली एक सच्चाई बेहद डरावनी है। वर्ष 1970 के बाद से उत्तरी अमेरिका से लाखों पक्षी गायब हो गए। वहीं 40 वर्षों में अमेरिका में भृंगों यानी कीटों के सबसे बड़े समूह की संख्या में 83 फीसद की कमी आई है। यह भी हैरान करने वाला है कि अमेरिका का 41 फीसद पारिस्थितिकी तंत्र पहले से जोखिम में हैं। समझा जा सकता है कि शेष दुनिया की क्या स्थिति होगी, जिसका कोई व्यापक आंकड़ा या शोध नहीं है। वर्ष 2020 में विश्व आर्थिक मंच ने पाया था कि जैव विविधता में लगातार हो रहा नुकसान वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए शीर्ष खतरों में से एक है। अब हमें तत्काल इसके संरक्षण के प्रयासों को बढ़ाना होगा।

बिगड़ते पर्यावरण और प्राकृतिक आपदाओं के रौद्र रूप से पर्यावरणीय और पारिस्थितिकी तंत्र की क्षति के संकेत मिलते हैं, तो विलुप्त मान बैठे जीव-जंतुओं के मिलने से सुखद संदेश भी। इन्हें समझने की जरूरत है वरना जो हाल हमने अपने गांव-शहर में जल, जंगल और जमीन के साथ किया, वही यहां भी शुरू हो जाएगा तो प्रकृति की बची-खुची और एक तरह से चोरी-छिपे बचाई हुई अमानत भी वाकई विलुप्त हो जाएगी।

यह अकस्मात हाथ आई खोज वैज्ञानिकों की बड़ी उपलब्धि है। ऐसे विलुप्त मान बैठे वन्य प्राणियों के मिलने से भारत की अंतरराष्ट्रीय साख बढ़ेगी। इतना ही नहीं जब दुनिया के कई देश जैव विविधता के लिए ‘ग्रीन वाल’ तक नहीं बना पा रहे हैं, तब हमें अपनी जरा सी कोशिशों से बहुमूल्य सफलता मिल रही है। मगर यह भी न हो कि जल्दबाजी में ऐसे शांत व दुर्गम स्थानों पर ड्रोन या संरक्षण के नाम पर मशीनों की कर्कश आवाजें गूंजने लगें। मानवीय करतूतों का वह अंबार न लग जाए जिससे बचा-खुचा प्राकृतिक वातावरण भी प्रदूषित हो जाए। जरूरत है, इन्हें मूल प्राकृतिक स्वरूप में समृद्ध और विस्तृत कर दुनिया को संदेश देने की।