जम्मू-कश्मीर की उमर अब्दुल्ला के नेतृत्व वाली सरकार ने आरक्षण नीति पर विचार करने के लिए तीन सदस्यीय कैबिनेट उप-समिति का गठन किया है। यह मुद्दा नेशनल कॉन्फ्रेंस के लिए एक विवादास्पद मुद्दा है, जिसे सुलझाना बहुत आसान नज़र नहीं आता है। इस मार्च में उपराज्यपाल मनोज सिन्हा के नेतृत्व वाले प्रशासन ने 2005 के जम्मू-कश्मीर आरक्षण नियमों में संशोधन किए थे, जिसका लगातार विरोध हो रहा है।  सरकार ने बढ़ते गुस्से को देखते हुए अब समीक्षा का फैसला किया है। 

 विवाद क्या है और इसकी शुरुआत कब हुई?

यह पूरा विवाद मार्च में शुरू हुआ जब  उपराज्यपाल मनोज सिन्हा के नेतृत्व वाले केंद्र शासित प्रदेश प्रशासन ने पहाड़ी समुदाय को अनुसूचित जनजाति (एसटी) का दर्जा दिया। जिसे लेकर आलोचना हुई कि लोकसभा और विधानसभा चुनावों में भाजपा के लिए पहाड़ी वोट सुरक्षित करने के लिए ऐसा किया गया था। हालांकि इससे अपेक्षित परिणाम नहीं मिले, लेकिन विवाद जरूर पैदा हो गया।  संशोधन के ज़रिए पहाड़ी लोगों के दायरे का विस्तार किया गया और कानून के तहत उन सभी को शामिल किया जो पहाड़ी भाषा बोल सकते थे।

गुज्जर और बकरवाल समुदाय (जिन्हें पहले से ही एसटी का दर्जा प्राप्त है) पहाड़ी समुदाय को एसटी का दर्जा दिए जाने का विरोध कर किया। पहाड़ियों को खुश करने और गुज्जरों और बकरवाल को खुश रखने के लिए प्रशासन ने एसटी कोटा 10% से बढ़ाकर 20% करने की घोषणा भी की।

सामान्य श्रेणी के उम्मीदवारों द्वारा आपत्ति जताए जाने के बाद, एनसी इस मामले में सावधानी से आगे बढ़ रही है, ताकि किसी भी समूह को अलग-थलग न किया जा सके। पार्टी ने विधानसभा चुनावों के दौरान वादा किया था कि अगर वह सत्ता में आती है तो आरक्षण नीति पर फिर से विचार करेगी।

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सरकार ने जो तीन सदस्यीय कैबिनेट उपसमिति गठित की है, उसमें जावेद राणा भी शामिल हैं, जो एसटी समुदाय से हैं। एनसी नेता और श्रीनगर से सांसद आगा रूहुल्लाह सामान्य श्रेणी के उम्मीदवारों की चिंताओं को मुखरता से उठाते रहे हैं।