दिल्ली के आनंद विहार स्टेशन से दोपहर में रवाना होकर अगली सुबह बिहार के मोतिहारी पहुंचने वाली अमृत भारत एक्सप्रेस खचाखच भरी हुई है। हर साल जैसे-जैसे छठ पूजा नजदीक आती है, पूर्व दिशा की ओर जाने वाली ट्रेनें घर लौट रहे प्रवासियों से खचाखच भर जाती हैं। यह ट्रेन के लिए कोई नई बात नहीं है।

इस ट्रेन के स्लीपर कोच में संकरे गलियारे से बर्थ तक पहुंचने में लगभग 15 मिनट का समय लगता है। कोच में बोरे, सूटकेस, प्लास्टिक की बाल्टियां, प्रेशर कुकर से भरे कार्डबोर्ड बॉक्स और बर्तन चारों ओर बिखरे पड़े हैं। सामान बर्थ तक ले जाने का एकमात्र तरीका यह है कि उसे सिर पर संतुलित करके या बगल में दबा कर ले जाया जाए।

जिस डिब्बे में द इंंडियन एक्सप्रेस के रिपोर्टर का रिजर्वेशन है, उसमें 15 एडल्ट और सात बच्चे आठ सीटें शेयर करते हैं। यहां फर्श और बर्थ बैग और नई खरीदी गई चीजों से भरे पड़े हैं। इनमें घर ले जाने के लिए मिक्सी, डिनर सेट, कंबल जैसे गिफ्ट हैं। कुछ यात्रियों के पास रात भर खड़े रहने के अलावा कोई विकल्प नहीं है लेकिन फिर भी, इनके पास शिकायत का एक शब्द भी नहीं है। एक आदमी बच्चों के लिए अपनी बर्थ छोड़ते हुए खुशी से कहता है, “यह कोई समस्या नहीं है, हम कहीं न कहीं एडजस्ट हो जाएंगे, आखिरकार यह छठ है।”

बिहार की ट्रेनों में टिकट मिलना आसान नहीं

जैसे ही ट्रेन चलती है, चर्चा शुरू हो जाती है कि घर जाने के लिए टिकट मिलना कितना असंभव है। ऐसा सिर्फ छठ के दौरान ही नहीं होता बल्कि बल्कि पूरे साल ऐसे ही हालात हैं। यह बातचीत जल्द ही ट्रेनों की गंदी हालत को लेकर शिकायत में बदल जाती है। हालांकि, इसका दोष रेलवे पर नहीं, बल्कि यात्रियों पर ही आता है।

एक यात्री व्यंग्य कसते हुए कहता है कि ट्रेन में बिहारियों को भर दो, वो उसे गंदा कर देंगे। सबसे गंदी रेलगाड़ियां बिहार जाने वाली हैं और चिराग पासवान बार-बार कहते हैं, “बिहार फर्स्ट, बिहारी फर्स्ट। पहले बिहारियों को कुछ सिविक सेंस सिखाइए। इस यात्री का दोस्त उसकी बातों पर सहमति जताता है।

इन चुटकुलों में एक धार है। इन चुटकुलों में अहंकार नहीं, बल्कि शर्म की भावना है। इस हंंसी के पीछे पलायन का साझा दर्द छिपा है। यही वह शब्द है जो आधुनिक बिहार को परिभाषित करता है और अब इसकी राजनीति को आकार देता है।

पलायन बड़ी समस्या

कोच और पेंट्री कार के बीच शौचालय के पास जमीन पर रमेश साह (ओबीसी बनिया जाति) और रविकांत पंडित (कुम्हार प्रजापति ईबीसी) बैठे हैं। दोनों पचास साल के हैं और मोतिहारी के चिरैया से हैं। वे हरियाणा में काम करते हैं और त्योहार के लिए अपने घर जा रहे हैं। रमेश शाह पूछते हैं, “सरकार ने हमारे लिए क्या किया है?” वो कहते हैं, “अगर ऐसा होता, तो मैं इस तरह दो डिब्बों के बीच नहीं बैठा होता। सरकारें आती-जाती रहेंगी, और ऐसे ही चलती रहेंगी।”

रविकांत पंडित सहमति में सिर हिलाते हुए कहते हैं, “बिहार में सब कुछ ठीक है। बस पलायन ही बड़ी समस्या है। किसी भी पार्टी ने इसे हल नहीं किया, कोई पार्टी नहीं करेगी। आपको योगी आदित्यनाथ जैसा नेता चाहिए जो जो कहता है वो करता है।”

इसी ट्रेन के एक अन्य कोच में सवार 25 साल के विजय ठाकुर (गुरुग्राम में नाई का काम करते है) टॉयलेट के पास फर्श पर बैठे हैं। उनके लिए पलायन सियासी विफलता नहीं बल्कि सामाजिक विफलता है। वो कहते हैं, “मेरे भाई 2000 के दशक में पलायन कर गए, फिर मैं भी उनके साथ आ गया। समस्या नेताओं की नहीं, हमारी है। हम जाति से ऊपर नहीं उठ पाते, इसलिए किसी नेता को कुछ बदलने की ज़रूरत महसूस नहीं होती।”

कोच एस2 और एस3 के बीच दो युवक अपना बैग पकड़े खड़े हैं। दिल्ली में संगमरमर पॉलिश करने वाले मोहम्मद जहांगीर और साहेब आलम पश्चिमी चंपारण के अवसानी से हैं। ये दोनों ही साल 2014 से बिहार से बाहर काम कर रहे हैं। जहांगीर कहते हैं, “घर पर कोई नौकरी नहीं है। मेरे छह भाई हैं, सभी अलग-अलग शहरों में रहते हैं।”

बिहारी होने के कारण उन्हें अपमान का सामना करना पड़ता है

शारीरिक कष्ट से भी ज्यादा भारी बात यह है कि दूसरे राज्य में बिहारी होने के कारण उन्हें अपमान का सामना करना पड़ता है। मोतिहारी के पिपराकोठी निवासी 30 वर्षीय ऑटो चालक मुकेश साह गलियारे में बैठते हैं और जब भी कोई शौचालय जाता है तो उन्हें उठने के लिए मजबूर होना पड़ता है। वो कहते हैं, “मैं दिल्ली में कैलाश कॉलोनी के पास एक छोटे से कमरे में चार और लोगों के साथ रहता हूं। अपने गांव में, मैं अपनी भैंसें उतनी जगह पर नहीं बांधता। लेकिन मकान मालिक लाखों कमाता है, सिर्फ इसलिए कि वह सही जगह पैदा हुआ है।”

एक और यात्री के उनके पास से गुजरते ही वह रुक जाते हैं। मुकेश कहते है, “इस ट्रेन में किसी से भी पूछ लो कि दिल्ली में हमारे साथ कैसा व्यवहार होता है। ‘बिहारी’ शब्द का इस्तेमाल गाली की तरह किया जाता है। लेकिन हम अपने परिवारों के लिए इसे सहन करते हैं।”

जब कोई मजाक में कहता है कि जल्द ही वो बुलेट ट्रेन से वो जल्दी घर पहुंच जाएंगे, तो मुकेश हंसते हैं, “बुलेट ट्रेन? हम तो अभी भी गलियारे में ही बैठे रहेंगे! मोदी या नीतीश किसी ने भी प्रवासियों के लिए कुछ नहीं किया। इसलिए लोग अब बदलाव चाहते हैं। योगी जी को बिहार से चुनाव लड़ना चाहिए।”

बराबर वाले कोच में सवार 26 वर्षीय अनिल कुमार यादव की भी ऐसी ही शिकायतें हैं। वो हरियाणा की एक कंपनी में काम करते हैं। अनिल कहते हैं, “मेरे सुपरवाइजर मुझे ‘ऐ बिहारी’ कहते हैं! मैंने उनसे कहा, “मैं तुम्हें ‘ऐ हरियाणवी’ नहीं कहता। क्या मेरी कोई इज्जत नहीं है? वे हमें इसलिए नौकरी पर रखते हैं क्योंकि हम कड़ी मेहनत करते हैं, फिर भी हमारे साथ कमतर व्यवहार करते हैं।”

‘सिर्फ बिहार ही डूबते सूरज की पूजा करता है’

बातचीत कुछ ही देर में चुनावों की ओर मुड़ जाती है। छठ पूजा की रस्मों से राजनीति को जोड़ते हुए अनिल यादव कहते हैं, “सिर्फ बिहार में ही लोग डूबते सूरज की पूजा करते हैं, इसीलिए नीतीश जीतते रहते हैं।” अनिल यादव खुद को लालू यादव समर्थक बताते हैं और राजद नेता को निचली जातियों को सम्मान देने का श्रेय देते हैं, लेकिन न आगे कहते हैं, “उन्होंने कभी छपरा का विकास नहीं किया। मोदी कम से कम सारा निवेश गुजरात ले जाते हैं।”

वह बिहार के गौरवशाली अतीत – नालंदा, आर्यभट्ट – की चर्चा करते हैं और आश्चर्य व्यक्त करते हैं कि कोई भी इस पर काम क्यों नहीं करता। वो कहते हैं, “गुड़गांव दुबई जैसा है! साइबर हब मोतियों की तरह चमकता है। अगर वे वहांं ऐसा कर सकते हैं, तो बिहार क्यों नहीं? बिहार गरीब नहीं है, उसकी सरकारें गरीब हैं।”

हालांकि सभी अनिल यादव की बातों से सहमत नहीं है। दिल्ली में ऑटो चलाने वाले रमेश महतो और विजय शाह नीतीश कुमार के रिकॉर्ड पर उनसे बहस करते हैं। वो कहते हैं कि नीतीश कुमार ने अच्छा काम किया- सड़कें बनाईं, बिजली और शांंति लाए। विजय शाह कहते हैं कि फिर भी वो इस बार एनडीए के लिए वोट नहीं करेंगे क्योंकि नीतीश कुमार ने शराब बंद कर दी। वो कहते हैं, शराब बिहार में हर जगह उपलब्ध है, बस अब महंगी हो गयी है। वे कहते हैं कि जन सुराज कह रहा है कि बैन हटा देंगे, और जो भी शराब पीते हैं वे उन्हें वोट देंगे – बिहार में 75% पुरुष शराब पीते हैं।

संगमरमर पॉलिश करने वाले जहांगीर जन सुराज से इसलिए प्रभावित हैं, वो कहते हैं कि प्रशांत किशोर समझदारी से बात करते हैं। बहुत तेज़, कोई भी पत्रकार उनके सामने टिक नहीं सकता। वह ओवैसी की तरह जवाब देने में तेज हैं। फिर भी, वह कहते हैं कि वह पीके को नहीं, बल्कि तेजस्वी यादव को वोट देंगे।

पीके को लेकर पानीपत से लौट रहे बेतिया के चित्रकार ब्यास साह और लव कुमार कहते हैं कि उनके गांव में लोग अक्सर प्रशांत किशोर के बारे में चर्चा करते हैं। ब्यास कहते हैं कि हम यूट्यूब पर उनके भाषण देखते हैं। लोगों को उनके उठाए मुद्दे पसंद आते हैं। ये दोनों शराबबंदी खत्म करने और रोजगार पैदा करने के उनके वादे पर बहस करते हैं। लव कहते हैं कि वे भाजपा को वोट देंगे। वो कहते हैं, “शायद इससे मदद मिलेगी।”

बिहार चुनाव में और भी कई मुद्दे

ट्रेन के अगले कोच में सवार सीतामढ़ी के रवि झा कहते हैं कि उनके परिवार ने हर बार बीजेपी को वोट किया है लेकिन वो इस बार राजद को वोट देंगे। वह इसकी वजह तेजस्वी के वादों को नहीं बल्कि बीजेपी प्रत्याशी को पसंंद न करना बताते है। रवि कहते हैं कि बीजेपी प्रत्याशी की जाति तेली है और राजद प्रत्याशी राजपूत है।

इसी कोच में रामनगर के राम अवतार पासवान और बगहा के इमानुल हुसैन एक सीट पर सफर कर रहे। पासवान एक दलित है और बीजेपी को सपोर्ट करते हैं। वो कहते हैं कि बीजेपी दबंग पार्टी है। यह सुनकर इमानुल हुसैल हसने लगते हैं। वह राजद को समर्थन कर रहे हैं। इमानुल कहते कहा, “दबंग? क्या करेंगे, वोट न देने वालों को पीटेंगे? सत्ता से वोट नहीं मिलते, पैसे से मिलते हैं। महिलाओं को दिए गए 10,000 रुपये चुनाव का फैसला करेंगे।”

इसपर पासवान मुस्कुराते हुए कहते है, “क्यों? क्या हिंदू-मुस्लिम राजनीति भाजपा को जीतने में मदद नहीं करेगी? जल्द ही, चुनाव ध्रुवीकृत हो जाएंगे और सभी हिंदू भाजपा के पक्ष में वोट देंगे।”

इसी समय ट्रेन जोर से झटका खाती है और रुक जाती है। तभी पासवान इमानुल से मजाक में कहते हैं, “पंचर तो नहीं हो गई? जा के चेक करना। तुमको तो आता है।” इसके कुछ देर बाद दोनों अपने लंच के डिब्बे खोलते हैं और जाति और धर्म की बाधाओं को पार करते हुए एक साथ खाना शुरू करते हैं, और रात भर ट्रेन चलती रहती है।

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