अब उस शख्स से रूबरू होते हैं, जिसने रवींद्रनाथ के इस गीत को संगीतबद्ध करने के बाद उसे देश की सीमाओं के बाहर, पूरे विश्व में लोकप्रिय बनाया। इनका नाम है कैप्टन रामसिंह ठाकुर। रामसिंह बांसुरी पर धुनों का अभ्यास करते रहते थे। वायलिन पर भी। रामसिंह के पिता उनकी प्रतिभा के प्रति असंवेदनशील बने रहे। पारिवारिक परंपरा ने रामसिंह को गोरखा रेजिमेंट में भर्ती होने के लिए बाध्य किया।
यहां रह कर उन्होंने गोरखा बैंड में पाश्चात्य की परंपराओं को सीखा। उनकी यूनिट जीआर वन को मलाया में भेजा गया था, जब जापानी सेना ने पर्ल हार्बर पर आक्रमण किया। वे उन साठ हजार सैनिकों में शामिल थे, जिन्होंने जापानी सेना के समक्ष आत्मसमर्पण किया था। उन्हें जापानी फौज ने जनरल मोहन सिंह को सौंपा था। जिनके माथे पर आइएनए के गठन का सेहरा बंधा है। रामसिंह उन पहले कुछ सैनिकों में शामिल थे, जिन्होंने आईएनए में अपनी सेवाएं देने पर सहमति दी थी।
जनरल मोहन सिंह ने रामसिंह को आइएनए बैंड का संचालन करने की हरी झंडी दिखाई थी। उस वक्त एक सिंफनी आरकेस्ट्रा हुआ करता था, जिसे एक प्रसिद्ध जर्मन संगीतकार संचालित किया करते थे। रामसिंह को आरकेस्ट्रा में शामिल करने की सहमति उस जर्मन अरेंजर ने ही दी थी, ताकि पाश्चात्य संगीत के ज्ञान में सुधार हो सके। रामसिंह आइएनए बैंड के संगीत सम्मेलनों और कार्यक्रमों में भाग लेते रहते थे।
उन्होंने अनेक अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त संगीतकारों के संगीत का निष्पादन किया था। इनमें बीथोवन, स्कूवर्ड और अन्य जाने-माने संगीतकार शामिल थे। आर्केस्ट्रा के संचालकों का यह मानना था कि अगर रामसिंह को छोटी उम्र में ही संगीत का प्रशिक्षण मिल जाता तो उनका नाम विश्व के कुछ महान संगीतकारों में शुमार होता। इससे इस पूर्वाग्रह को समाप्त करने में मदद मिलेगी, जिसके चलते यह भ्रम फैलाया गया कि एक गोरखा सिपाही संगीतकार नहीं हो सकता। इससे एक खास समुदाय के प्रति द्वेष भावना का पता चलता है।
जब तक नेता जी सिंगापुर नहीं आए थे, तब तक मिलिट्री और सिविल आयोजनों में वंदेमातरम् ही गाया जाता था, लेकिन इसे कभी भी रूहानी ढंग से प्रस्तुत नहीं किया गया था, क्योंकि वंदेमातरम् के गायन और निष्पादन के बारे में किसी को भी सही तरीके से ज्ञान नहीं था। नेताजी जब सिंगापुर आए तो उन्होंने कहा था कि बंगाल विभाजन के वक्त वंदेमातरम् की प्रासंगिकता थी, लेकिन इसे राष्ट्रगान के रूप में कभी भी स्वीकार नहीं किया जा सकता।
क्योंकि इसके लिरिक्स यानी शब्द रचना कुछ ऐसी थी, जिससे एक अल्पसंख्यक समुदाय को आपत्ति हो सकती थी। नेताजी के सिंगापुर आने के कुछ दिन बाद महिलाओं की एक सभा हुई, जिसमें रानी झांसी रेजिमेंट के गठन का प्रस्ताव पारित किया गया। उस अवसर पर जन-गण-मन का गायन प्रस्तुत किया गया था। उसके तुरंत बाद यानी दूसरे ही दिन सेना, नागरिकों और महिलाओं की एक और सभा हुई, जिसमें नेताजी ने कहा कि रवींद्रनाथ द्वारा रचित गीत जग-गण-मन को ही राष्ट्रगान के रूप में अपनाना उचित रहेगा।
लेकिन दो चीजें बदलनी होंगी। गीत में संस्कृतनिष्ठ शब्दों का सरल हिंदुस्तानी भाषा में अनुवाद करना होगा और इसकी धुन अत्यंत प्रभावशाली, प्रेरणादायक और मार्शल होनी चाहिए। इसके लिए एक समिति का गठन किया गया और एक सप्ताह के भीतर इसके परिणाम लाने का निर्णय हुआ। रामसिंह और उनके ग्रुप को जन-गण-मन का संगीत तैयार करने का दायित्व सौंपा गया। रामसिंह के नेतृत्व में आइएनए बैंड ने एक सप्ताह के भीतर जन-गण-मन के संगीत की धुन तैयार कर ली और नेता जी ने उसे सहर्ष अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी।
राष्ट्रगान जन-गण-मन ने 111 साल का सफर तय कर लिया है। निश्चित रूप से रवींद्रनाथ और रामसिंह की जुगलबंदी ने भारतवर्ष को ऐसा नगीना दिया, जिसकी चमक और गूंज से प्रत्येक हिंदुस्तानी रोमांचित हो उठता है। करोड़ों भारतवासियों के दिलों में राष्ट्रभक्ति और राष्ट्रप्रेम की भावना को समृद्ध करने में हमारे राष्ट्रगान की भूमिका सर्वोपरि रही है।