गृहमंत्री अमित शाह ने उपराष्ट्रपति चुनाव के लिए विपक्ष के उम्मीदवार न्यायमूर्ति बी सुदर्शन रेड्डी (सेवानिवृत्त) पर छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद को बढ़ावा देने का आरोप लगाया है। अमित शाह का कहना है कि रेड्डी ने छत्तीसगढ़ में माओवादियों से लड़ने के लिए विशेष पुलिस अधिकारियों (SPO) की नियुक्ति की प्रथा को समाप्त करने वाला फैसला सुनाकर नक्सलवाद को बढ़ावा दिया। आइए जानते हैं इस मामले का संदर्भ क्या था, राज्य सरकार ने क्या तर्क दिए और सर्वोच्च न्यायालय ने इस पर क्या फैसला सुनाया था?

छत्तीसगढ़ में सलवा जुडूम क्या था?

2000 के दशक के शुरुआती सालों में कई राज्यों के 200 से ज़्यादा ज़िले माओवादी विद्रोह की चपेट में थे। छत्तीसगढ़ सबसे ज़्यादा प्रभावित ज़िलों में से एक था जहां भीषण हिंसा देखी गई। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, 2005 से 2011 के बीच अकेले बस्तर में 1019 ग्रामीण, 726 सुरक्षाकर्मी और 422 माओवादी मारे गए।

नक्सलियों द्वारा उत्पन्न सुरक्षा चुनौती के जवाब में, छत्तीसगढ़ सरकार ने सलवा जुडूम (गोंडी में ‘शांति मार्च’) के नाम से एक सतर्कता आंदोलन प्रायोजित किया। इसके तहत स्थानीय ग्रामीणों को एसपीओ के सशस्त्र समूहों में संगठित किया, जिन्हें कोया कमांडो के रूप में भी जाना जाता है। इन समूहों में मुख्यतः उन विशेष क्षेत्रों के आदिवासी युवा शामिल थे जहां नक्सली सक्रिय थे।

एसपीओ की नियुक्ति छत्तीसगढ़ पुलिस अधिनियम, 2007 के तहत की गई थी। एसपीओ को आत्मरक्षा के लिए अस्त्र दिए गए थे और उन्हें मार्गदर्शक, मुखबिर और गुप्तचर के रूप में सहायता के लिए तैनात किया गया था। उन्हें 3,000 रुपये प्रति माह का मानदेय दिया जाता था और वे उन क्षेत्रों में राज्य की ओर से जनशक्ति बढ़ाने में मदद करते थे जहां नियमित बलों के लिए काम करना मुश्किल होता था।

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सुप्रीम कोर्ट के सामने क्यों आया मामला?

2007 में, समाजशास्त्री नंदिनी सुंदर, इतिहासकार रामचंद्र गुहा और पूर्व आईएएस अधिकारी ईएएस सरमा ने सलवा जुडूम प्रथा को चुनौती देते हुए सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की। याचिकाकर्ताओं ने आरोप लगाया कि यह असंवैधानिक है, मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है और मानवाधिकार हनन को बढ़ावा देता है। उन्होंने कहा कि इसने नागरिकों और लड़ाकों के बीच की रेखा को धुंधला कर दिया है, कम प्रशिक्षित युवाओं को हिंसक प्रतिशोध का शिकार बना दिया है और पूरे समुदायों को विस्थापित कर दिया है।

राज्य ने बचाव में क्या तर्क दिया?

उस समय कांग्रेस के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार और भाजपा के रमन सिंह के नेतृत्व वाली राज्य सरकार, दोनों ने इस नीति का बचाव किया। उन्होंने तर्क दिया कि उसकी भूमिका एसआरई योजना के तहत मानदेय की प्रतिपूर्ति के उद्देश्य से प्रत्येक राज्य के लिए एसपीओ की संख्या की ऊपरी सीमा को मंजूरी देने तक सीमित थी। एसपीओ की नियुक्ति, प्रशिक्षण, तैनाती, भूमिका और ज़िम्मेदारी संबंधित राज्य सरकारों द्वारा निर्धारित की जाती थी, जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय के आदेश में दर्ज है।

छत्तीसगढ़ सरकार ने विस्तृत हलफनामे दायर कर कहा कि भर्ती स्वैच्छिक आधार पर है। आवेदकों की आयु कम से कम 18 वर्ष होनी चाहिए, उनका चरित्र सत्यापन होना चाहिए, और उन्हें कम से कम पाँचवीं कक्षा तक शिक्षा प्राप्त होनी चाहिए। राज्य ने कहा कि उन लोगों को प्राथमिकता दी जाएगी जो माओवादियों के हाथों पीड़ित रहे हैं और उनका विरोध करना चाहते हैं।

हलफनामों में कहा गया है कि एसपीओ को हथियारों के इस्तेमाल के साथ-साथ कानून और मानवाधिकारों का भी प्रशिक्षण दिया गया था। उन्हें आत्मरक्षा के लिए अस्त्रों से लैस किया गया था और अपरिचित इलाकों में खुफिया जानकारी और मार्गदर्शन प्रदान करके पुलिस और सुरक्षा बलों की सहायता करना सिखाया गया था। राज्य ने दावा किया कि एसपीओ राहत शिविरों की सुरक्षा और माओवादी हमलों को नाकाम करने में प्रभावी रहे हैं। राज्य ने यह भी तर्क दिया कि एसपीओ की नियुक्ति से सीमित रोजगार अवसरों वाले क्षेत्रों में आजीविका उपलब्ध होती है।

सलवा जुडूम को लेकर क्या था अदालत का फैसला?

अदालत ने इस बात की जांच की कि क्या विशेष पुलिस अधिकारियों (एसपीओ) को हथियारबंद और तैनात करने की प्रथा संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 के तहत संवैधानिक प्रावधानों के अनुरूप है। अदालत ने कहा कि छत्तीसगढ़ पुलिस अधिनियम कार्यपालिका को बिना किसी स्पष्ट शर्त या सुरक्षा उपायों के विशेष पुलिस अधिकारियों की नियुक्ति करने का व्यापक अधिकार देता है। अदालत ने पाया कि जिन लोगों की भर्ती की गई और उन्हें हथियारबंद किया गया, उनमें से कुछ ने कक्षा 5 तक की पढ़ाई भी नहीं की थी।

अदालत ने कहा, “किसी भी विवेकशील व्यक्ति के लिए यह स्वीकार करना असंभव होगा कि आदिवासी युवा जो पांचवीं कक्षा पास कर चुके हों या नहीं, उनमें उन्हें पढ़ाए जा रहे विषयों को पढ़ने, समझने के लिए आवश्यक शैक्षणिक योग्यताएं होंगी। साथ ही वे माओवादियों के खिलाफ आंदोलनों में शामिल होने के लिए उपयुक्त कौशल हासिल कर सकेंगे।” एसपीओ को आजीविका प्रदान करने के तर्क पर न्यायालय ने कहा कि असुरक्षित युवाओं को अत्यधिक खतरे की स्थिति में रखना रोजगार नहीं माना जा सकता।

अदालत ने आदेश दिया कि उग्रवाद विरोधी अभियानों के लिए एसपीओ नियुक्त करने की प्रथा बंद की जाए। सलवा जुडूम को भंग कर दिया गया और अदालत ने निर्देश दिया कि केवल प्रशिक्षित पुलिस या अर्धसैनिक बल ही माओवादियों के खिलाफ अभियान चलाएँ।

क्या था जस्टिस सुदर्शन रेड्डी का रोल?

सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश जस्टिस रेड्डी ने 2011 में नंदिनी सुंदर बनाम छत्तीसगढ़ राज्य मामले में ऐतिहासिक फैसला सुनाने वाली पीठ का नेतृत्व किया था। इस पीठ ने छत्तीसगढ़ में माओवादी विद्रोह का मुकाबला करने के लिए आदिवासी युवाओं को विशेष पुलिस अधिकारियों (एसपीओ) के रूप में इस्तेमाल करने की प्रथा, सलवा जुडूम को समाप्त कर दिया था।

इस पर अमित शाह ने शुक्रवार को केरल में कहा कि अगर न्यायमूर्ति रेड्डी ने सलवा जुडूम पर फैसला नहीं सुनाया होता तो “नक्सल आतंकवाद 2020 तक समाप्त हो गया होता”। इस टिप्पणी की कानून से जुड़े लोगों ने आलोचना की है, जिन्होंने कहा है कि किसी न्यायिक फैसले की तुलना किसी न्यायाधीश के व्यक्तिगत विचारों से नहीं की जा सकती। पढ़ें- सुदर्शन रेड्डी ने सलवा जुडूम फैसले को लेकर अमित शाह को दिया जवाब