पश्चिम बंगाल इस समय पंचायत चुनाव की तैयारी कर रहा है। वो चुनाव जो आठ जुलाई को होने जा रहे हैं और 11 जुलाई को जिसके नतीजे आएंगे। अभी चुनाव में कुछ समय बाकी है, सिर्फ नामांकन प्रक्रिया शुरू की गई है। लेकिन जैसा इस राज्य का इतिहास है, इसने एक बार फिर चुनावी मौसम में अपना हिंसक मोड ऑन कर लिया है। हर तरफ तनाव की स्थिति है।
बंगाली लोगों के लिए आम हो गई हिंसा!
सिर्फ एक हफ्ते का आंकड़ा बताता है कि 6 लोगों की हत्या की जा चुकी है, कई जख्मी हैं और पुलिस का लाठीचार्ज तो रोज हो रहा है। हालात ऐसे बन गए हैं कि कोलकाता हाई कोर्ट को आदेश देना पड़ा कि सभी मतदान केंद्रों पर केंद्रीय बलों की तैनाती की जाए। इस सब के बावजूद भी बवाल थमने का नाम नहीं ले रहा है। इस हिंसा में हथियार हैं, बम विस्फोट हैं, पथराव है, आगजनी है और एक दूसरे पर आरोप लगाने वाली राजनीति चल रही है। लेकिन बंगाल का जैसा इतिहास है, जैसे यहां के हालात हैं, लोग इसे आम मानने लगे हैं।
बंगाल की राजनीति को लेकर कहा जाता है कि यहां जो सरकार में होता है, वो अपनी सत्ता बचाने के लिए कई मौकों पर हिंसा का सहारा लेता है। वहीं जो विपक्ष में बैठा होता है, वो सत्ता पर काबिज होने के लिए हिंसा करता है। यानी कि ये हिंसा रुकती नहीं, बस पार्टियां बदल जाती हैं, मौके बदल जाते हैं, लेकिन ये रक्त चरित्र जारी रहता है। इस रक्त चरित्र के सबूत वो आंकड़े हैं जो एनसीआरबी ने कई मौकों पर जारी किए हैं, सदन में भी नेताओं द्वारा अलग-अलग आंकड़े दिए गए हैं।
आंकड़ा नंबर 1– 2021 में बंगाल में सांप्रदायिक हिंसा के 30 मामले सामने आए
आंकड़ा नंबर 2– 2022 में बंगाल में सांप्रदायिक हिंसा के 35 मामले सामने आए
आंकड़ा नंबर 3– 2018 में बंगाल में 12 राजनीतिक हत्याए हुईं
आंकड़ा नंबर 4– 1999 से 2016 के बीच रोज 20 राजनीतिक मौतें हुईं
आंकड़ा नंबर 5– 2009 में सर्वधिक 50 राजनीतिक हत्या की गईं
आजादी से पहले हिंसा, बंटवारे के बाद हिंसा
सरल शब्दों में ये भी कहा जा सकता है कि बंगाल में सरकार कांग्रेस की रही, तब हिंसा थी, लेफ्ट की सरकार आई, तब खूब हिंसा हुई और अब जब टीएमसी का राज है, तो फिर खूनी संघर्ष सड़कों पर चल रहा है। वैसे बंगाल में हिंसा का इतिहास तो आजादी से भी कई साल पुराना है। फिर चाहे 1770 में आकाल और उसके बाद हुईं हत्याओं का सिलसिला रहा हो या फिर 1880 में अकाल के बाद देखी गई हिंसा। सबसे ज्यादा चर्चित तो बंटवारे वाले दंगे रहे जिसमें कहा जाता है कि लाखों लोगों की जान चली गई थी।
कांग्रेस का राज, लेफ्ट का संघर्ष और खूनी राजनीति
बंगाल में राजनीतिक लड़ाई की बात करें तो 1957 के वक्त वहां कांग्रेस बनाम सीपीआई का मुकाबला था। कांग्रेस सरकार में थी, सीपीआई, तब केरल में अपनी पहली सरकार बना चुकी थी, ऐसे में बंगाल में पैठ जमाने की तैयारी थी। अब बंगाल की सियासत की फितरत ही ऐसी रही कि कांग्रेस को उखाड़ फेंकने के लिए लेफ्ट ने उस दौर में अनाज और भूमि वितरण को लेकर राज्य में बड़ा आंदोलन किया। ऐसा आंदोलन की लाखों लोग इकट्ठा हो गए। कांग्रेस डर गई, लेफ्ट की बढ़ती ताकत ने सत्ता हाथ से जाने की संभावना बढ़ा दी थी।
ऐसे में उस विशाल प्रदर्शन को रोकने के लिए पुलिस ने अंधाधुंध फायरिंग कर दी, नतीजा ये रहा कि 80 लोगों की मौत हो गई। इसके बाद 1960 का दौर आया, जब नक्सलवाद की शुरुआत हुई, धरती बंगाल की थी, लेकिन आने वाले सालों में इसका प्रभाव पूरे देश पर पड़ने वाला था। 1967 में पहली बार सीपीएम गठबंधन की सरकार बनी थी। लेकिन इस सरकार से किसानों का एक वर्ग नाराज था। उसने हथियार उठा लिए थे, जमींदारों को सबक सिखाने की बात हो रही थी।
नक्सलवाद का जनक बंगाल, देश पर पड़ा असर
असल में कहने को लेफ्ट की सरकार थी, लेकिन आरोप ये लगे कि सरकार में आने के बाद विचारधारा से समझौता हो गया। इसी वजह से किसानों का वो गुट हिंसक हो गया। वो चीन के कम्युनिस्ट नेता माओ त्से तुंग से प्रभावित था। हिंसा के बल पर अपने अधिकार चाहता था। इसी वजह से इन्हें माओवादी कहा जाने लगा था। वहीं क्योंकि पहली चिंगारी इस आंदोलन की नक्सलवाड़ी से उठी, ऐसे में बाद में नक्सलवाद का नाम भी इसी पर पड़ गया। यानी कि पश्चिम बंगाल की भूमिका ही इस नक्सलवाद में भी रही।
जानकार बताते हैं कि ये वो दौर था जब रोज बंगाल में हत्याएं होती थीं, मौत का आंकड़ा बढ़ता रहता था। अब ये कहना कि उस हिंसा के लिए पूरी तरह सीपीएम जिम्मेदार रही, ये सही नहीं। असल में आजादी के तुरंत बाद कम्युनिस्ट सर्वहारा क्रांति चाहते थे, चीन से पूरी तरह प्रभावित थे, ऐसे में हथियारबंद संघर्ष की बात होती थी। लेकिन फिर सीपीआई ने खुद को हिंसा से दूर कर लिया। उसने कहा जब लोगों के पास कोई दूसरा विकल्प नहीं बचेगा, तब वो हिंसा का रास्ता अपना सकते हैं। लेकिन सीपीआई का राजनीति में सक्रिय होना कई को रास नहीं आया और इसी वजह से ये पार्टी कई गुट में बंट गई। ये कई गुट ही हिंसा फैलाने वाले रहे।
इसके बाद 1972 में बंगाल में फिर चुनाव हुए, कांग्रेस की वापसी हुई, लेकिन हिंसा चरम पर पहुंच गई। उस दौर में सिद्धार्थ शंकर रे मुख्यमंत्री थे. आरोप लगता है कि उस चुनाव में बड़े स्तर पर धांधली हुई थी। विपक्ष को खत्म करने का प्रयास हुआ था, कई हत्याएं हुई थीं। इसके बाद देश में आपातकाल लग गया और तब हिंसा बंगाल में और ज्यादा बढ़ गई।
ममता बनर्जी पर जानलेवा हमला, खूनी राजनीति का प्रमाण
फिर आया साल 1977 जब लेफ्ट की पूर्ण बहुमत वाली पहली सरकार बनी और जो 34 सालों तक सत्ता पर काबिज भी रही। उन 34 सालों में बंगाल ने राजनीतिक हिंसा के कई दौर देखे। शुरुआत में मुकाबला कांग्रेस से रहा, लेकिन बाद में कांग्रेस से ही निकली ममता बनर्जी की टीएमसी ने टक्कर देने का काम किया। बड़ी बात ये है कि जिन ममता बनर्जी पर हिंसा करवाने का आरोप लग रहा है, साल 1990 में वे खुद बंगाल की इसी खूनी हिंसा का शिकार हुई थीं। उस समय ममता कांग्रेस की ही युवा नेता थीं। खाद्य तेल में मिलावट के चलते मौतें और बसों के बढ़े दाम का पूरे राज्य में विरोध किया जा रहा था।
इसी कड़ी में हाजरा में ममता एक रैली के लिए जा रही थीं। लेकिन वहां कम्युनिस्ट पार्टी के कथित गुंडे लालू आज़म ने ममता पर रॉड से हमला कर दिया। उनका सिर फोड़ दिया गया, ममता लहूलुहान हो गईं और उन्हें गंभीर चोटें आईं। इसके बाद राजनीतिक हिंसा का दौर कभी नहीं थमा। एक साल बाद 1991 में फिर लेफ्ट की वापसी हुई, प्रचंड बहुमत मिला,लेकिन कांग्रेस ने धोखाधड़ी का आरोप लगा दिया। इसी वजह से प्रदर्शन किया गया, फिर पुलिस की फायरिंग हुई और 13 कांग्रेस कार्यकर्ताओं की मौत हो गई।
नंदीग्राम का आंदोलन और सियासी मौतें
कई साल बाद 14 मार्च 2007 को बंगाल फिर उबाल मारा और ऐसी हिंसा का दौर शुरू हुआ जिसने लेफ्ट के 34 साल के शसान को उखाड़ फेंका। ये नंदीग्राम आंदोलन था जिसका चेहरा ममता बनर्जी बन गई थीं। असल में उस समय की लेफ्ट सरकार ने औद्योगीकरण की योजना बनाई. ये लेफ्ट विचारधारा के खिलाफ था, लेकिन फिर भी ये फैसला हुआ। इसी के तहत नंदीग्राम में इंडोनेशिया के सलीम ग्रुप को केमिकल हब बनाने के लिए 10 हजार एकड़ जमीन देने का ऐलान हो गया। किसान नाराज हो गए, वो अपनी जमीन देने को तैयार नहीं हुए।
ऐसी स्थिति पैदा हो गई कि एक तरफ सरकार और पुलिस खड़ी थी तो दूसरी तरफ वो किसान और नंदीग्राम के स्थानीय लोग। इन स्थानीय लोगों को तब ममता का साथ मिला, साथ आए शुभेंदू अधिकारी और एक ऐसा संघर्ष शुरू हुआ जो लगातार 11 महीनों तक चलता रहा। इसी कड़ी में 14 मार्च, 2007 को पुलिस फायरिंग में 14 लोग मारे गए। ये सरकार का आंकड़ा है, स्थानीय इससे उलट बड़े दावे करते हैं।
हिंसा की कोई विचारधारा नहीं, असल वजह ये है
यानी कि ममता बनर्जी खुद हिंसा का शिकार हुईं, फिर आंदोलन में सक्रिय हुईं और अब उन पर भी हिंसा करवाने के गंभीर आरोप लगते हैं। हालात ऐसे बन गए हैं कि चुनाव के दौरान नामांकन भरने पर भी हत्याएं की जा रही हैं। अभी के पंचायत चुनाव के दौरान तो हिंसा देखी ही जा रही है, इससे पहले वाले 2018 के पंचायत चुनाव के दौरान भी हालात बेकाबू नजर आए थे। उस चुनाव में 20 लोगों ने अपनी जान गंवा दी थी।
अब बंगाल की इस हिंसा के जानकार एक नहीं कई कारण मानते हैं। कई तो ये भी कहते हैं कि बंगाल में हो रही इस हिंसा की कोई विचारधारा नहीं है। शिक्षा का स्तर कम है, बेरोजगारी ज्यादा है, गरीबी से लोग परेशान हैं, ऐसे में जहां से पैसा आता है, लोग उनके लिए काम करने लग जाते हैं। ये सोचने वाली बात है कि अचानक से सड़क पर इतने लोग कैसे आ जाते हैं, आखिर क्यों वो पत्थर उठा लेते हैं? बताया जाता है कि इन प्रदर्शन में शामिल कई लोग प्लांटेड भी हो सकते हैं जिन्हें पैसे देकर बुलाया जाता हो। ऐसे में अगर गरीबी को खत्म किया जाए, नौकरियों के नए अवसर बनें, तो आने वाले सालों में बंगाल हिंसा के इस खतरनाक दंश से खुद को मुक्त कर सकता है।