जयप्रकाश त्रिपाठी
पर्यावरण को लेकर जीवन से जुड़े दो गंभीर सवाल हर किसी के दिमाग में मंडरा रहे होंगे कि वैश्विक ताप यानी ग्लोबल वार्मिंग से पृथ्वी तप रही है, फिर भी इतनी ठंड क्यों? भारत में गुलमर्ग और औली समेत देश के अन्य पर्वतीय प्रदेशों में इस मौसम में पहले की तरह बर्फबारी क्यों नहीं हो रही? पर्यावरणविद ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन से वर्ष 2100 तक वैश्विक तापमान 2.9 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ने की भविष्यवाणी कर रहे हैं।
ऐसे में, यह भी गौरतलब है कि दुनिया पहले ही 1.4 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि के कारण महाविनाश की झलक पा चुकी है। स्थानीय स्तर पर अगर कोई ऐसा सोच रहा हो कि उसके रिहाइशी परिक्षेत्र में, जलवायु परिवर्तन का गंभीर प्रभाव नहीं दिख रहा और वह महाविनाश से प्रभावित नहीं होगा, तो यह उसकी गलतफहमी भर हो सकती है। जैसे-जैसे धरती गर्म होती जाएगी, प्रवासन बढ़ता जाएगा, भोजन महंगा होगा और पूरी दुनिया अस्थिर होने लगेगी। और तब, कोई भी जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से शायद ही बच पाए।
इस बार की सर्दियों में गुलमर्ग, औली आदि पर्वतीय क्षेत्रों में पहले के जाड़ों की तरह बर्फ नहीं गिरी है। सबसे कड़ाके की सर्दियों में मौसम सूखा-सूखा खिंच जाने की वजह से लोग बीमार पड़ रहे हैं और किसान आने वाले समय में पानी की कमी को लेकर अभी से काफी चिंतित हैं। इसके साथ ही, दिन का तापमान सामान्य से काफी ऊपर रह रहा है, लेकिन रातें खूब ठंडी रह रही हैं।
पिछले महीने अस्सी फीसद कम बारिश दर्ज हुई है। जनवरी का पहला सप्ताह तो एकदम सूखा गुजरा और पर्वतीय इलाकों में जरा भी बर्फ नहीं गिरी। कहीं बर्फ गिरी भी तो सामान्य से भी कम। गुलमर्ग में दिसंबर से आज तक मात्र छह इंच बर्फ दर्ज की गई है। इस मौसम में वहां प्राय: डेढ़-दो फुट तक बर्फ पड़ती रही है।
कमोबेश उत्तराखंड में भी ऐसे ही हालात हैं। औली में इस समय तापमान एक से तीन डिग्री सेल्सियस के बीच रहना चाहिए था, लेकिन वह आठ डिग्री सेल्सियस तक दर्ज हो रहा है। मौसम विशेषज्ञ इस परिवर्तन को ग्लोबल वार्मिंग का दुष्प्रभाव मान रहे हैं। उन्हें अंदेशा है कि इस परिवर्तन का प्रभाव जल संसाधनों और खेती-बाड़ी पर पड़ सकता है।
बीते कुछ सालों में ऐसा भी देखा गया है कि ग्लोबल वार्मिंग से सर्दियों का मौसम छोटा होता गया है, जिसका स्पष्ट दुष्प्रभाव पनबिजली उत्पादन, पर्यटन और कृषि क्षेत्रों पर परिलक्षित हो रहा है। समय से पड़ने वाली बर्फ से ग्लेशियरों को जीवनदान मिलता है, जो पर्वतीय प्रदेशों में कृषि क्षेत्र की अर्थव्यवस्थाओं के प्रबल पूरक होते हैं।
यह बिगड़ते पर्यावरण की ही नजाकत है कि ऐसे राज्यों में किसान पानी की कमी के कारण धान की खेती से हाथ समेटने लगे हैं। इस नजाकत का कहर निकट भविष्य में जीवनदायिनी नदियों पर और भी स्पष्टत रूप से परिलक्षित होने लगेगा। तापमान का अस्वाभाविक विचलन प्रभाव लोगों की सेहत पर भी देखा जा रहा है। मसलन, सांस लेना पहले की तरह सहज नहीं लगता है।
इस मौसमी बदलाव का गंभीर असर विद्युत व्यवस्थाओं पर भी पड़ रहा है, जिसका सबसे बड़ा खमियाजा अस्पतालों में भर्ती मरीजों को उठाना पड़ रहा है। हमारे पर्वतीय प्रदेश भी अपनी आर्थिकी में मुख्यत: पर्यटन क्षेत्र पर आश्रित रहे हैं। बर्फबारी की गिरावट ने इस बार सैलानियों की आवक थाम दी है। पिछले मौसमों की तरह इस बार पहाड़ी पर्यटन स्थल गुलजार नहीं हो सके हैं।
इसका लाखों लोगों के रोजी-रोजगार पर गंभीर असर पड़ना लाजिमी है। यही वजह रही कि जनवरी के दूसरे सप्ताह में कश्मीर में मुसलमानों ने खास नमाज अता करते समय सूखे से मोहलत की दुआ की। इस बार का मौसमी बदलाव सिर्फ ग्लोबल वार्मिंग नहीं, कम से कम हमारे देश में तो गंभीर प्रदूषण की मार पड़ने के रूप में भी सामने आ रहा है। मौसम विशेषज्ञ भी ऐसा ही बता रहे हैं। फैक्ट्रियों और गाड़ियों के धुएं से पीड़ित लाहौर की प्रदूषित हवा जब पूर्व की ओर बहती है, सीमा पार भारत की ओर आ जाती है, जिसका तीस फीसद तक योगदान दिल्ली के प्रदूषण में पाया गया है।
पर्यावरण विशेषज्ञ चाहते हैं कि भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश वायु प्रदूषण से साझा मुकाबला करें, राजनीति जिसके आड़े आ रही है। प्रदूषण, वैश्विक पंचायतों और चुनाव के दिनों में तो पार्टियों के घोषणापत्रों में होता है, लेकिन मतदान के दिन गुजरते ही उसका हश्र ‘रात गई, बात गई’ हो जाता है।
जबकि, विश्व बैंक की रिपोर्ट लगातार ताकीद कर रही है कि प्रदूषण नियंत्रण के मसले पर प्रभावित देशों को सहमति बनाकर साझा प्रयास करने होंगे, लेकिन ऐसी कोई कोशिश अब तक तो परवान चढ़ती नहीं दिख रही। आगे वक्त ही बताएगा कि भविष्य के पर्यावरण से उपजने वाले महाविनाश को लेकर फिलहाल असली मंशा क्या है।
फिलहाल, सिर्फ दो पड़ोसी देशों- भारत और पाकिस्तान के ताजा पर्यावरणीय हालात का जायजा लें तो विश्व बैंक की रपटों से पता चलता है कि 93 फीसद पाकिस्तानी और 96 फीसद भारतीय अत्यंत प्रदूषित हवा के शिकंजे में हैं। ऐसे प्रभावित लोगों की तादाद डेढ़ अरब से ज्यादा है। इन्हीं हालात ने ‘एयर प्यूरीफायर्स’ और मास्क उत्पादन को औद्योगिक अपरिहार्यता में तब्दील कर दिया है।
अस्पतालों में सांस के रोगियों की संख्या औसतन दोगुनी हो चली है। गंभीर प्रदूषण की मार झेल रहे भारत और पाकिस्तान तो इस गंभीर संकट से निपटने के लिए नीतिगत तौर पर यूरोपीय संघ से भी सबक लेने को तैयार नहीं हैं। और यह कितनी बड़ी विडंबना है कि ग्लोबल वार्मिंग से पृथ्वी लगातार गर्म होती जाने के बावजूद, इतनी ठंड की वजह भी दोनों देशों के नियंताओं का ध्यान अपनी ओर आकर्षित नहीं कर पा रही हैं।
जलवायु परिवर्तन से उपजी मौसमी परिघटनाओं का वैश्विक आंकड़ा अपने विमर्शों के केंद्र में रखने वाला वैज्ञानिक संगठनों के समूह ‘वर्ल्ड वेदर एट्रिब्यूशन’ पिछले साल, एक दर्जन से अधिक आपदाओं के विश्लेषण के बाद खुलासा कर चुका है कि जीवाश्म ईंधन का भयावह उत्सर्जन किस तरह जंगली आग (कनाडा-सीरिया की), बाढ़ (लीबिया की) और सूखे को विनाशकारी हदों की ओर ले जा रहा है।
इन प्राकृतिक आपदाओं में हजारों लोग जान गंवा रहे हैं। विशेषज्ञ बता रहे हैं कि ये सौर गतिविधि या ज्वालामुखीजन्य परिवर्तन भी हो सकते हैं। यद्यपि ताजा वैश्विक जलवायु परिवर्तन को मानवीय गतिविधियों का नतीजा करार दिया गया है। वैज्ञानिकों का कहना है कि बीती दो शताब्दियों में कृषि, परिवहन, उद्योग, उत्खनन, जीवाश्म ईंधन आदि मानव जनित गतिविधियों से गैस उत्सर्जन में बेतरह इजाफा हुआ है।
वातावरण में कार्बन डाइआक्साइड और मीथेन जमा होकर सूरज की गर्मी को बाधित कर रहे हैं, जिससे पृथ्वी का तापमान और भयानक प्राकृतिक परिघटनाएं लगातार बढ़ती जा रही हैं। विश्व मौसम संगठन और यूरोपीय ‘कापरनिकस क्लाइमेट चेंज सर्विस’ के विश्लेषणों में ताजा खुलासा हुआ है कि बीता वर्ष 2023, अब तक का सबसे तप्त साल रहा है।
इन्हीं सब हालात यानी ध्रुवीय भंवर शिथिल पड़ते जाने का नतीजा है कि इस मौसम में भारत के पर्वतीय क्षेत्रों में अपेक्षाकृत कम बर्फबारी हुई है। जाड़े की सघन बारिश इस बार लगभग नदारद दिख रही है। उच्च तापमान से धरती का मिजाज नासाज होने के बावजूद, यूरोप और उत्तरी अमेरिका में कड़ाके की ठंड कहर बरपा रही है।