Migrant workers from Bengal: देश के कई राज्यों में अवैध प्रवासियों के खिलाफ एक्शन जारी है, बात चाहे राजधानी दिल्ली की हो, ओडिशा की हो या फिर महाराष्ट्र की, हर जगह पुलिस की तरफ से ऐसे लोगों के खिलाफ एक्शन भी लिया जा रहा है और उन्हें डिटेन भी किया जा रहा है। लेकिन सबसे ज्यादा विवाद पश्चिम बंगाल को लेकर देखने को मिल रहा है जहां पर कई लोगों का दावा है कि भाषा के नाम पर न सिर्फ उन्हें डिटेन किया गया बल्कि उन्हें काम करने से भी रोका गया।
मुंबई में ‘बंगालियों’ के साथ क्या हुआ?
कुछ दिन पहले ही मुंबई से भी पुलिस ने कई लोगों को डिटेन किया था। लेकिन अब पता चला है कि जिन लोगों को डिटेन किया गया, उनमें से कुछ के पास सही दस्तावेज मौजूद थे और वो बांग्लादेश नहीं भारत के ही रहने वाले हैं। अब ऐसे ही कुछ लोग सामने से आकर अपना दर्द बयां कर रहे हैं, बता रहे हैं कि डिटेंशन सेंटर में कैसे हालात में उन्हें रखा गया। मुस्तफा कमल भी बंगाल के ही एक गांव के रहने वाले हैं, मुंबई में काम कर रहे थे, लेकिन कुछ दिन पहले ही उन्हें डिटेन किया गया।
अपना दर्द बयां करते हुए कमल कहते हैं कि मैं तो वापस मुंबई जाने का इंतजार कर रहा हूं। मुंबई तो कभी सोता ही नहीं था, मैं वहां दोपहर 3 बजे से रात 1 बजे तक काम करता था। वहां पैसा है, वहां जिंदगी है। यहां तो गांव में सबकुछ शाम 6 बज तक बंद हो जाता है, सब कुछ अंधेरा है। कमल बताते हैं कि जब से उन्हें मुंबई से डिटेन किया गया है, वे अपनी बहन के घर में रह रहे हैं, कई दिनों से वे बंगाल के बर्धमान में हैं। अब कमल का दर्द ज्यादा बड़ा इसलिए है क्योंकि उन्होंने अपना आधे से ज्यादा जीवन मुंबई में बिताया है। 1999 से वे वहां पर काम कर रहे थे, पहले एक डॉक्यार्ड वर्कर की तरह, फिर एक झाल मुरी बेचने वाले की तरह।
सारे दस्तावेज, फिर भी बोला बांग्लादेशी
कमल के मुताबिक जिस दिन उन्हें मुंबई पुलिस ने डिटेन किया था, वे उस रात को कभी नहीं भूल पाएंगे। उन्हें पुलिस ने बांग्लादेशी बता दिया था, बीएसएफ को सौंपा गया और फिर गाय-भैस की तरह बॉर्डर पर छोड़ दिया गया। बांग्लादेश बॉर्डर पर स्थिति काफी खराब थी, वहां अंधेरा था और कमल उस स्थिति में रहने को मजबूर। अब 17 जून को उन्हें वापस उनके घर छोड़ा गया जब अधिकारियों को यह बात समझ आ गई कि उनके दिखाए दस्तावेज ठीक थे। लेकिन खुद कमल अब उस दर्द से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं, वे तो टूट चुके हैं।
अब कमल तो उन हजारों माइग्रेंट वर्करों में शामिल हैं जो वैसे तो बंगाल के रहने वाले हैं, लेकिन उन्हें बांग्लादेशी बताकर डिटेन किया जा रहा है। जनसत्ता के सहयोगी इंडियन एक्सप्रेस ने इस साल मार्च में एक तफ्तीश की थी जिसमें पाया गया कि 2000 से ज्यादा अवैध बांग्लादेशी प्रवासियों को वापस भेजा गया। वैसे इस तरह की कार्रवाई हरियाणा, असम और गुजरात में भी देखने को मिल चुकी है। लेकिन जब से अवैध बांग्लादेशियों के खिलाफ एक्शन की बात हुई है, सबसे ज्यादा टारगेट पर बंगाली बोलने वाले लोग आए हैं।
बंगाल में छिड़ा भाषा विवाद
ओडिशा के Jharsuguda में एक डिटेंशन सेंटर है, वहां 444 बंगाली बोलने वाले लोगों को रखा गया था, उन्हें अवैध बांग्लादेशी बताया गया। लेकिन कुछ दिन पहले ही सभी रिलीज हुए हैं। अब पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी इस मुद्दे को भुनाने का काम कर रही हैं। चुनावी मौसम में वे इसे बीजेपी शासित राज्यों की बंगाली लोगों के खिलाफ साजिश बता रही हैं। उनकी तरफ से ‘भाषा आंदोलन’ चलाया जा रहा है। लेकिन बीजेपी इसे ममता बनर्जी की तुष्टीकरण की राजनीति बता रही है।
वैसे पश्चिम बंगाल सरकार के मुताबिक तो कम से कम 22 लाख ऐसे माइग्रेंट वर्कर्स हैं जो दूसरे राज्यों में जाकर काम कर रहे हैं। अब इसी ट्रेंड को लेकर Paschim Banga Parijayi Ayikka Mancha के सेकरेट्री आसिफ फारूक कहते हैं कि यह ना दिखने वाली बड़ी वर्कफोर्स है। पहले हमने मांग की थी कि ऐसे माइग्रेंट वर्कर्स को अलग कार्ड दिए जाएं। 26 अप्रैल से हमारे पास शिकायत आने लगी थीं कि लोगों को गलत तरीके से डिटेन किया जा रहा है। हमने प्रशासन और पुलिस के साथ कोऑर्डिनेट किया और लोगों के घर जाकर वेरिफिकेशन हुआ।
टीएमसी ने बीजेपी पर साधा निशाना
TMC सांसद सैमिरुल इस्लाम ने इस बात पर नाराजगी जाहिर की है कि कई बंगालियों को भी डिडेट कर परेशान किया जा रहा है, कुछ को तो बांग्लादेश भी भेजा गया है। उन्होंने जोर देकर बोला है कि ऐसे किसी भी एक्शन को स्वीकार नहीं किया जा सकता है। अवैध प्रावासियों के खिलाफ एक्शन होना चाहिए, लेकिन बंगाल के लोगों को ऐसे परेशान करना गलत है। टीएमसी सांसद ने जानकारी दी है कि राज्य सरकार तक तो डिटेन किए गए लोगों के बारे में कोई इनपुट नहीं पहुंचता है, पुलिस अपनी तरफ से शेयर नहीं कर रही है। परिवार के लोगों की तरफ से जानकारी मिलती है और फिर बंगाल पुलिस और प्रशासन मिलकर वेरिफाई करता है।
अब बंगाल सरकार तो कोशिश कर रही है कि बंगालियों को दूसरे राज्यों में परेशान ना किया जाए, लेकिन जो पीड़ित सामने आ रहे हैं, उनका दर्द हैरान करने वाला है। कमल मुस्तफा ही 9 जून की रात को याद कर सहम जाते हैं। वे कहते हैं कि मैं तो अपने झाल मुरी के स्टॉल से वापस आया था, खाना खा रहा था, लेकिन सुबह 3 बजे पुलिस ने रेड मार दी। मैंने उन्हें सारे डॉक्यूमेंट्स दिखाए, लेकिन उन्होंने एक नहीं सुनी और मुझे उठाकर ले गए। मुझे मेरा डिनर भी खत्म करने नहीं दिया गया।
मुंबई से डिटेन कैसे किया गया?
कमल के मुताबिक बाद में उन्हें और कुछ दूसरे लोगों को डिटेन किया गया, फिर उनकी तस्वीर और फिंगरप्रिंट लिया गया और पुणे रवाना कर दिया गया। वहां से उन्हें बीएसएफ को हैंडओवर किया गया। अब उसके बाद उन्हें त्रिपुरा के अगरताला ले जाया गया, वहां करीब 100 लोग थे। फिर वहां से अलग-अलग बसों के जरिए बीएसएफ कैंप तक पहुंचाया गया, वहां पहुंचने पर चार लोगों के ग्रुप बने और सभी को बॉर्डर पार करने को कहा गया। सभी को 300 बांग्लादेशी टका दिए गए और फिर भागने के लिए बोला गया। अब कमल की माने तो वे लगातार कहते रहे कि वे भारत के ही रहने वाले हैं, लेकिन एक नहीं सुनी गई।
कमल आगे बताते हैं कि सूर्योदय होते ही बांग्लादेश राइफल्स के जवानों ने उन्हें देख लिया था, बांग्लादेश के ही कुछ गांव वालों ने उन्हें खाना और पावी दिया। फिर दो दिन बाद उन्हें बीएसएफ को वापस दे दिया गया और फिर वहां से वे बंगाल पुलिस के पहुंचे और फिर आखिर में अपने घर।
अब कमल घर तो आ चुके हैं, लेकिन उनकी चोटें उनके परिवार को भी परेशान करती हैं। उनकी मां नम आंखों के साथ कहती हैं कि मेरे दो बेटे और पोता मुंबई में ही हैं। जब मुझे कमल की स्थिति के बारे में पता चला, मुझे लगा मैंने उसे खो दिया है। यह तो अल्लाह की रहमत रही कि वो वापस आ गया। उसे इतनी बुरी तरह पीटने की क्या जरूरत थी, वो मर भी सकता था। मैं तो बीच रात में उठी थीं, बस सोच रही थी कि मुंबई में मेरे बच्चे कैसे होंगे। मुझे बस चिंता ही लगी रहती है।
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Ravik Bhattacharya और Atri Mitra की रिपोर्ट