इतना लंबा चुनाव है इस बार कि मतदाता थके से लग रहे हैं अभी से। मुंबई में मतदान को अभी दस दिन बाकी हैं, लेकिन यहां न प्रचार की धूमधाम दिख रही है और न मतदाताओं में कोई उत्साह। ऊपर से इतनी गर्मी पड़ रही है कि लोग अपने घरों से बाहर निकलते हैं सिर्फ तब जब कहीं जाना जरूरी हो जाए। मैंने जब एक-दो लोगों से बात की चुनाव की हवा के बारे में तो उन्होंने साफ कहा कि इसके बारे में वे सोच ही नहीं रहे हैं। ‘कोई उत्साह नहीं है जी, लोग ऊब गए हैं’।
यह बातचीत हुई थी प्रधानमंत्री के उस भाषण के बाद, जिसमें उन्होंने पहली बार अंबानी-अडाणी के नाम लिया किसी आमसभा में। ऐसा क्यों किया, समझना मुश्किल है। ऐसा करने से नुकसान उनका ही हुआ निजी तौर पर। भाषण में उन्होंने कहा कि कांग्रेस के ‘शहजादे’ पिछले पांच सालों में दो नामों की माला जपते रहे हैं- अंबानी-अडाणी, अंबानी-अडाणी, लेकिन चुनाव शुरू होने के बाद इन उद्योगपतियों के नाम लेना बंद कर दिया है। प्रधानमंत्री ने पूछा कि ऐसा क्यों हुआ है और अपने सवाल का जवाब भी दे दिया। गड़गड़ाती आवाज में कहा- कांग्रेस के शहजादे को बताना चाहिए कि कितना ‘माल उठाया है’। क्या टेंपो भर-भर के आया है कालाधन बोरियों में डाल कर?
मैंने जब प्रधानमंत्री की यह बात सुनी तो हैरान रह गई। मोदी इतने मंजे हुए राजनेता हैं कि इस तरह की गलती बहुत कम करते हैं। गलती का नतीजा आया उनके भाषण के तुरंत बाद। कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने ‘एक्स’ पर कहा, ‘दोस्त दोस्त ना रहे’ और इसके बाद राहुल और प्रियंका गांधी ने खूब मजा लेते हुए प्रधानमंत्री के भाषण को भुनाया।
राहुल ने कहा कि अगर प्रधानमंत्री जानते हैं कि कालाधन उनको भेजा गया है टेंपो में भरके तो ईडी और सीबीआइ को क्यों नहीं भेजा गया है अंबानी और अडाणी पर छापा डालने? प्रियंका ने यहां तक कहा कि पहले आप बताएं, कितना माल आपको मिला है इनसे, फिर हम बताएंगे। कांग्रेस की मीडिया टीम ने गिन कर बताया कि चुनाव प्रचार शुरू होने के बाद राहुल गांधी ने एक सौ तीन बार अडाणी का नाम लिया है। मोदी पहली दफा ‘बैकफुट’ पर नजर आए।
उनको बचाया तो सैम पित्रोदा ने। अभी कांग्रेस के आला नेता ठीक करने में लगे हुए थे उस नुकसान को, जो सैम पित्रोदा ने पहुंचाया था विरासत कर लगवाने की बात करके, कि एक चोट ऐसी लगाई पित्रोदा साहब ने कि उनको आखिरकार इस्तीफा देना पड़ा कांग्रेस पार्टी के विदेशी सचिव के पद से। पित्रोदा क्यों अमेरिका में बैठकर घड़ी-घड़ी पत्रकारों से कांग्रेस की नीतियों पर बातें करते हैं, मुश्किल है समझना। इस बार बहुत वाहियात बात निकली उनके मुंह से। कोशिश कर रहे थे साबित करने की कि भारत विविधिताओं का देश है, लेकिन मिसाल ढूंढ़ी भारतीयों की चमड़ी के रंग को लेकर। पित्रोदा की नजर में उत्तर में रहने वाले भारतीय गोरों की तरह दिखते हैं, पश्चिम के लोग अरब की तरह दिखते हैं, पूरब के लोग चीनी दिखते हैं और दक्षिण के लोग अफ्रीकी दिखते हैं।
यकीन करना मुश्किल है कि यह व्यक्ति कभी राजीव गांधी का इतना खास सलाहकार हुआ करता था कि इसको भारत की तमाम व्यवस्था को सुधारने का काम दिया गया था। ‘मिशन’ थे इनके पास हरियाली लाने के, ऊर्जा पैदा करने और ग्रामीण इलाकों में टेलीफोन की तारें बिछाने के। यह बात अलग है कि इस टेलीफोन वाले मिशन के पूरा होने तक सेलफोन आ गए देश में, सो पित्रोदा का यह मुख्य मिशन नाकाम हुआ। बाकी मिशन भी उड़ान नहीं भर पाए, लेकिन मालूम नहीं क्यों राहुल गांधी पित्रोदा पर इतना विश्वास करते रहे हैं कि उनके हर विदेशी दौरे में उनके बगल में बैठे दिखते हैं पित्रोदा। इन विदेशी दौरों में अक्सर राहुल भैया कुछ न कुछ ऐसा कह डालते हैं, जिसको लेकर लाभ होता है सबसे ज्यादा मोदी को।
मतदान का तीसरा दौर समाप्त होने के बाद क्या कहा जा सकता है प्रचार के बारे में? मुद्दों के बारे में? चुनाव के रुख के बारे में? सबसे महत्त्वपूर्ण सीख जो मिली है अभी तक, वह यह कि चुनाव आयोग को कोई तरीका ढूंढ़ना होगा मतदान के दिन इतना लंबा न खींचने का। बेशक टेस्ट मैच को टी-20 की शक्ल देना मुश्किल है, लेकिन इतना लंबा टेस्ट मैच भी नहीं होना चाहिए कि चुनाव का सारा मजा ही उड़ जाए। ऐसा नहीं है कि सिर्फ मतदाता थके से लग रहे हैं, राजनेता भी थके से लग रहे हैं, इतना कि हर हफ्ते कोई नया मुद्दा सबसे बड़ा बन जाता है। अगले हफ्ते तक उसको भुला कर कोई नया मुद्दा खोजते फिरते हैं प्रधानमंत्री। ‘बैकफुट’ पर अगर दिख रहे हैं तो शायद इसलिए कि उनके मुद्दे बदलते रहते हैं, लेकिन राहुल भैया और प्रियंका बहन अपने मुद्दों पर अडिग हैं।
प्रियंका गांधी ने साबित कर दिया है कि अपने भाई से कहीं ज्यादा अच्छी प्रचारक हैं। सो, मोदी के हर नए मुद्दे का उनके पास जवाब हाजिर रहता है। मोदी राहुल को शहजादे कहते हैं तो जवाब में प्रियंका मोदी को शहंशाह बुला कर कहती हैं कि मेरे भाई कन्याकुमारी से कश्मीर तक पैदल चले हैं लोगों की समस्याओं को समझने और उधर हैं शहंशाह जो महलों के बाहर नहीं निकलते हैं। मोदी ने खूब कोशिश की है अपने आपको गरीब घर के बेटे के रूप में पेश करने की। इस बार यह पत्ता चल नहीं रहा है। न ही राम मंदिर का मुद्दा चल रहा है। पूरी तरह संभव है कि मोदी फिर से बनेंगे प्रधानमंत्री, लेकिन इस सप्ताह उन्होंने एक ऐसी गलती की है, जो भविष्य में भारी पड़ सकती है।