इस लोकसभा चुनाव का एक खतरनाक पहलू है, जिस पर बहुत कम चर्चा हुई है। यह पहलू है कि राजनेता मतदाताओं का वोट मांगने के बदले उनके हाथ में भीख का कटोरा थमा रहे हैं। एक तरफ से अगर कोई कहता है कि इस भीख के कटोरे में वे पांच किलो मुफ्त अनाज डालेंगे, तो दूसरी तरफ से फौरन कोई कह डालता है कि पांच किलो तो कुछ भी नहीं है, उनकी सरकार बनेगी तो दस किलो मुफ्त अनाज डाला जाएगा उस कटोरे में।

कांग्रेस के सबसे आला नेता राहुल गांधी ने पिछले दिनों अपना एक वीडियो डाला है सोशल मीडिया पर, जिसमें वे कहते हैं कि उनकी सरकार जैसे ही बनती है उस दिन से हर गरीब परिवार की महिला के बैंक खाते में हर महीने साढ़े आठ हजार रुपए मिलने वाले हैं ‘खटाखट खटाखट खटाखट खटाखट’। आखिरी खटाखट के बाद चेकों की बारिश दिखाई जाती है, ताकि नासमझ भी समझ जाएं कि गरीबों को कितना पैसा देने वाले हैं कांग्रेस के ‘शहजादे’। अन्य वीडियो बने हैं राहुल गांधी के, जिनमें वे वादा करते हैं कि करोड़ों ‘लखपती’ देश में पैदा करने वाले हैं। ऐसे पेश आते हैं राहुल जैसे ये सारा पैसा उनका निजी धन हो।

भारतीय जनता पार्टी के सबसे महत्त्वपूर्ण प्रचारक नरेंद्र मोदी पीछे नहीं हैं। उन्होंने भी ‘लखपती दीदियों’ की पूरी सेना तैयार करने का वादा किया है कई बार। जब मुसलमानों पर उल्टे-सीधे इल्जाम नहीं लगा रहे होते हैं तो प्रधानमंत्री वादे करते हैं कि तीसरी बार जीतने के बाद जनता के लिए वे क्या कुछ करने वाले हैं। उनका जो टीवी और रेडियो पर प्रचार है, वह भी इस बात की याद दिलाता है बार-बार कि मोदी ने क्या-क्या किया है जनता के लिए।

गैस के चूल्हे दिए हैं… पीने का पानी उपलब्ध करवाया है, शौचालयों के लिए पैसे दिए हैं और मुफ्त राशन हर महीने मिल रहा चौरासी करोड़ लोगों को।
चुनाव प्रचार जब शुरू हुआ था तो प्रधानमंत्री वादा किया करते थे ‘विकसित भारत’ बनाने के, लेकिन अब जब चुनाव के आखिरी दिन आ रहे हैं तो मोदी भी कांग्रेस की नकल करते हुए उसी भीख के कटोरे वाली राजनीति पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं।

तो, जब कभी जनता के सामने दो अलग सपने रखे गए थे, अब वही एक सपना रखा जा रहा है- हमें जिताओ तो हम आपको मुफ्त बिजली, पानी, अनाज, आवास सब कुछ देंगे। ऐसा करके हमारे राजनेता साबित कर रहे हैं कि उनको अपने वोट की परवाह है, देश की नहीं। इतिहास में एक भी ऐसा देश नहीं है, जो विकसित हुआ है अपने लोगों को भीख मांगने की आदत डाल कर।

विकसित देश वे होते हैं जिनमें लोगों को अपने पैरों पर खड़े होने का स्वाभिमान होता है। देश विकसित तब होते हैं जब शासक जनता को रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराते हैं। भारत अगर आज भी गरीबी की बेड़ियों से अपने लोगों को छुड़ा नहीं पाया है तो इसलिए कि समाजवादी आर्थिक नीतियों के नाम पर हमारे शासकों ने जनता में आदत डाली थी कि उनके लिए सब कुछ सरकार ही करेगी। मुफ्त बिजली-पानी देने का काम करने के अलावा उनको रोजगार भी सरकार ही देगी।

सरकारी दफ्तरों में अक्सर दिखती है हर आला अफसर और आला मंत्री के कमरे के बाहर चपरासियों की एक फौज। बैठे रहते हैं ये लोग लकड़ी के बेंचों पर ‘साहब’ के दफ्तर के बाहर अक्सर कोई काम न करते हुए। जब बड़े साहब को काफी या चाय की जरूरत पड़ती है तो ये भाग कर लेकर आते हैं और जब बड़े साहब को अपनी गाड़ी तक जाना हो तो ये लोग मदद करते हैं उनकी फाइलें और बस्ते उठाने में। नतीजा यह कि जिस धीमी रफ्तार पर प्रशासन की गाड़ी चलती है, भारत में उस रफ्तार पर किसी भी विकसित देश में नहीं चलती है।

शासन का यह तरीका सिर्फ देखने को मिलता है गरीब, अविकसित देशों में जहां अर्थव्यवस्था की बागडोर होती है सरकारी अफसरों के हाथों में। जबसे लाइसेंस राज का खात्मा हुआ 1990 के दशक में, तबसे भारत विकास के रास्ते पर दौड़ने लगा है, लेकिन अब ऐसा लगता है कि हमारे शासक हमें वापस उस रास्ते पर ले जाना चाहते हैं, जिस रास्ते के अंत में सिर्फ गुरबत है। मैंने वे पुराने दिन बहुत करीब से देखे हैं, इसलिए कि ये वे दिन थे जब मैंने पत्रकारिता में अपना पहला कदम रखा था। इसलिए जब भी मुझे लगने लगता है कि हम वापस उसी रास्ते पर निकलने वाले हैं, मेरे कानों में खतरे की घंटी जोर-जोर से बजने लगती है।

इस चुनाव प्रचार को देख कर वह घंटी बजने लग गई है बहुत जोर से। देश के सामने दो रास्ते हैं। एक रास्ता है वह, जिसमें अर्थव्यवस्था की रफ्तार बढ़ा कर रोजगार और धन पैदा करने को बढ़ावा दिया जाता है, ताकि हम विकसित होने का सपना देख सकें। दूसरा है वह, जो हम धन पैदा करने के बदले लोगों के हाथों में भीख के कटोरे थमा कर उनको मुफ्त में सब कुछ हासिल करने की आदत डालते हैं, ताकि उनकी नजरों में ‘माई-बाप’ सरकार पर ही भरोसा हो। इस दूसरे रास्ते के अंत में न विकास है, न समृद्धि, न तरक्की की छोटी-सी किरण। अफसोस के साथ कहना पड़ता है मुझे कि इस चुनाव में दोनों तरफ से राजनेता लोगों में एक रोशन भविष्य की उम्मीद पैदा करने के बदले उनको वापस ला रहे हैं उस दौर में, जब उम्मीद सिर्फ माई-बाप सरकार की दया पर टिकी रहती थी।