राकेश सिन्हा

सन 1950 के बाद से पहली बार भारत की कार्यपालिका ने समान नागरिक कानून बनाने की बात की है। प्रधानमंत्री ने इसे राष्ट्र के उत्थान के लिए आवश्यक माना। पचास के दशक में जब इसकी तार्किक मांग हुई थी, तब के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अनसुना ही नहीं किया, इसे ‘जनसंघी मांग’ कहकर खारिज कर दिया। यह सच है कि भारतीय जनता पार्टी का पूर्ववर्ती भारतीय जनसंघ अपनी स्थापना (1951) के समय से ही इस मांग के साथ सक्रिय था।

कांग्रेस के अध्यक्ष रहे गांधीवादी आचार्य जेबी कृपलानी भी इसके समर्थक थे

नेहरू भूल गए कि गांधीवादी आचार्य जेबी कृपलानी, जो कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके थे, इस मांग के समर्थक थे। जब संसद में हिंदू कोड बिल पर बहस चल रही थी, तब उन्होंने स्पष्ट कहा था कि भारतीय राज्य एक समुदाय के कानूनों की समीक्षा कर उनके लिए कानून बना रहा है, तो दूसरी ओर मुसलिम समुदाय के कानूनों की समीक्षा नहीं हो रही है। उन्होंने इस भेदभाव के लिए नेहरूवादी राज्य को सांप्रदायिक घोषित कर दिया।

नेहरू ने जो अल्पसंख्यक वोटों के सामने आत्मसमर्पण किया, वह पंथनिरपेक्षता की परिभाषा बन गया। यानी समान नागरिक कानून की मांग सांप्रदायिकता बन गई। अत: अलग-अलग अवसरों पर आधे दर्जन से अधिक उच्च न्यायालयों और एक से अधिक बार सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस कानून को बनाने की सलाह और इसके पक्ष में निर्णय के बावजूद भारत का नेहरूवादी राज्य असहाय बना रहा।

इस संबंध में शाहबानो केस प्रसिद्ध है। शाहबानो को तलाक के बाद उनके पति द्वारा अपेक्षित सहायता न दिए जाने के प्रश्न पर सर्वोच्च न्यायालय ने समान नागरिक कानून के पक्ष में फैसला सुनाया। तब राजीव गांधी की सरकार थी। उन्होंने कानून बनाने की बात तो दूर, सरकार में मुसलिम मंत्री आरिफ मोहम्मद खान को इस कानून का समर्थन करने के लिए पार्टी से निष्कासित कर दिया। एक प्रगतिशील कानून की भ्रूण हत्या कर दी गई।

समान नागरिक कानून किसी भी समुदाय की अस्मिता या अस्तित्व पर प्रहार नहीं, सबको समान रूप से संविधान प्रदत न्याय की परिधि में लाना है। दूसरा उद्देश्य, धर्म के नाम पर पितृसत्तात्मक समाज द्वारा गैरबराबरी को बरकरार रखने की मंशा पर बड़ा आघात जरूरी है। विवाह, तलाक, उत्तराधिकार के प्रश्न को धर्म/ संप्रदाय से जोड़ना और ऐसा कर महिलाओं के साथ उत्तराधिकार और संपत्ति में हिस्सेदारी को लेकर भेदभाव करना गलत है।

मध्ययुग के कानूनों और प्रथाओं को धर्म का मुखौटा बनाकर कोई समाज लंबे समय तक जीवंत स्वरूप में नहीं रह सकता है। विरोधाभास समाज को तोड़ता है और प्रतिक्रियावाद हावी रहता है। प्रगतिशीलता इसे रास नहीं आती है। संविधान सभा की बहस में भी यही हुआ और मोदी की घोषणा के बाद भी वैसा ही हो रहा है।

संविधान इस कानून की आवश्यकता पर बल देते हुए राज्य द्वारा सार्थक पहल की अपेक्षा करता है। पर नेहरूवादी राज्य ने इस प्रावधान को कलंकित कर संविधान को निष्प्रभावी, अप्रासंगिक बनाने की चेष्टा की। जिन प्रावधानों का अल्पसंख्यकों द्वारा विरोध हुआ, उस संविधान के हिस्से को नेहरूवादी चिंतक और राजनीतिक गैरजरूरी घोषित करते रहे। एक और विडंबना देखिए। वे जिन कारणों से यूरोप और अमेरिका के सामाजिक जीवन को प्रगतिशील बताते रहे, जिससे वहां समान नागरिक कानून का शासन है, वे उन्हीं कारणों को भारत के लिए अनुपयुक्त मानते रहे। अल्पसंख्यकवाद ने इस राजनीति को विवेकशून्य बना दिया।

दो तरह के लोग समान नागरिक कानून का विरोध करते रहे हैं। पहला, वे जो विरोधाभासों में भारतीय समाज को उलझे रहने में उदारवाद का दर्शन करते हैं। वे हिंदू समाज के भीतर व्याप्त किसी भी अप्रगतिशील परंपरा और प्रवृत्ति पर टूट पड़ते हैं, पर मुसलिम समुदाय के भीतर यथास्थितिवाद और लैंगिक न्याय के प्रश्न पर उन्हें मोतियाबिंद हो जाता है। इसी मानसिकता ने भारत के राष्ट्रवाद और पंथनिरपेक्षता दोनों को चोट पहुंचाया है।

दूसरे, वे लोग हैं जो अपने समुदाय को आधुनिकता के प्रवाह से दूर रखना चाहते हैं। वे असमानता और अन्याय दोनों को धर्म का संरक्षण देकर पालते-पोषते रहते हैं। कोई भी गणतंत्र अपने नागरिकों को मध्ययुगीन सोच के दायरे में नहीं छोड़ सकता है। परंपरा न्याय के सिद्धांत का निषेध नहीं कर सकती है। पर इस कानून के विरोधी ऐसा करने में तनिक भी असहज नहीं दिखते हैं।
संविधान सभा में इस पर रोचक बहस हुई। दूध का दूध पानी का पानी हुआ।

मुसलिम सदस्यों ने खुलकर विरोध किया, पर समान नागरिक कानून की बुनियाद को सांप्रदायिक कहने का साहस नहीं जुटा पाए। हालांकि आज की कांग्रेस इस कमी को पूरा कर रही है। मद्रास के मोहम्मद इस्माइल ने एक संशोधन प्रस्तुत किया, जिसमें कहा गया कि कोई भी समुदाय अपने वैयक्तिक कानून छोड़ने के लिए बाध्य नहीं है। उनका संशोधन ही तर्क था।

नसीरुद्दीन अहमद ने तर्कविहिनता से उपजी शर्म को तात्कालिक और दीर्घकालिक आवश्यकताओं में अंतर कर ढंकना चाहा। उन्होंने कहा, ‘मैं आश्वस्त हूं कि एक समय आएगा, जब नागरिक कानून सबों के लिए समान होगा। वह समय अभी नहीं आया है। हमें लगता है कि राज्य को समान नागरिक कानून बनाने का अधिकार समय से पूर्व दे दिया गया है।’

पर वह समय कब आएगा, इसका उत्तर देने के लिए कोई नहीं है। प्रगतिशील परिवर्तन का मुहूर्त नहीं निकाला जाता है। जब बदलाव की पहल होती है, वही उसका शुभ मुहूर्त बन जाता है। सुधार की मानसिकता के बिना कोई समाज लोकतांत्रिक हो ही नहीं सकता है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक ने 22 अगस्त, 1972 को ‘मदरलैंड’ में दिए साक्षात्कार में मुसलिम समाज से सामाजिक परिवर्तन की मानसिकता तैयार करने की अपील की थी। पर यह सब निरर्थक साबित हुआ। नसीरुद्दीन अहमद का उपयुक्त समय अगले चौहत्तर वर्षों में नहीं आ पाया। महमूद अली बेग, पोकर साहिब और हुसैन अहमद ने भी अपने-अपने तरह से समान कानून के प्रावधान को संविधान में जोड़ने का विरोध किया।

कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने मुसलिम समाज को ऊहापोह से निकलने की अपील करते हुए आगाह किया था कि ‘मैं अपने मुसलिम मित्रों को यह अनुभूति कराना चाहता हूं कि अलग-थलग रहने के दृष्टिकोण को जितनी जल्दी भूल जाएं, उतना ही अच्छा होगा।’
पर डा. आंबेडकर ने विरोधियों को असहाय और निरुत्तर कर दिया। उन्होंने याद दिलाया कि 1937 तक तो उत्तर पश्चिम सीमांत प्रदेश के मुसलिम शरीअत कानून को नहीं मानते थे। उल्टे वे सामुदायिक चेतना से निर्देशित होते थे और हिंदुओं और मुसलमानों में समान कानून लागू होता था।

उत्तर प्रदेश, मध्य प्रांत और बंबई में भी उत्तराधिकार के मामले में मुसलमान प्राय: हिंदू कानून को ही मानते थे। 1939 में पूरे देश के लिए शरीअत कानून बनाकर अनिच्छुक मुसलमानों को भी स्थानीयता से अलग कर दिया गया। मुसलिम सदस्य आंबेडकर के तर्कों को काट नहीं पाए, पर अपनी बात से टसमस भी नहीं हुए।

आज भी पक्ष-विपक्ष की स्थिति कमोबेश वही है। प्रधानमंत्री मोदी ने अल्पसंख्यकवाद के बोझ से इस समाजधर्मी कानून को मुक्त करने का प्रयास शुरू किया है। ऐसा कर मोदी डॉ. आंबेडकर के उस अफसोस को समाप्त कर रहे हैं, जिसमें उन्होंने दुखी मन से कहा था कि ‘सिर्फ वही क्षेत्र जिसे नागरिक कानून नहीं जीत पाया है, वह है विवाह और उत्तराधिकार। यह वह छोटा-सा कोना है, जिस पर हम आक्रमण करने में सफल नहीं हो पाए।’
(लेखक भाजपा के राज्यसभा सांसद हैं)