राकेश सिन्हा
तीन साल पुरानी एक रोचक, पर दुखदायी घटना है। दिल्ली के इंडियन इंस्टीट्यूट आफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन में पुस्तक विमोचन समारोह था। उसमें वरिष्ठ प्राध्यापकों, शोधकर्ताओं के अलावा अनेक ऐसे लोग थे, जो नेहरू युग में कृषि नीति निर्माण से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जुड़े थे। मैंने अपनी बात शुरू करते हुए उपस्थित लोगों से ‘दियारा’ और ‘चौर’ का अर्थ पूछा। मैं आश्चर्यचकित रह गया। सिर्फ एक-दो (वह भी कनीय शोधकर्ता) अर्थ जानते और समझते थे। मुझे कुछ अप्रिय बात बोलनी पड़ी। मैंने टिप्पणी की कि अब मुझे समझ में आ गया कि किसानों की बदहाली और कृषि के पिछड़ेपन का कारण क्या है!
मेरी कल्पना से भी परे था कि किसानों के सामाजिक- आर्थिक जीवन से जुड़े पक्ष के बारे में अज्ञानता का फलक इतना बड़ा है। एकाध बड़े साइनबोर्ड वाले संवाद से अलग निकल गए। यह पता नहीं चल पाया कि यह उनका विरोध था या आत्मग्लानि।
असम में ब्रह्मपुत्र, बिहार में गंगा, सोन, गंडक आदि नदियों के पास दियारा क्षेत्र फैला है
दियारा भारत के कई राज्यों में वह भूभाग है, जहां नदी का प्रवाह आसानी से जमीन को अपने भीतर समा लेता है। नदी अपनी धार और बदलती राह से कब और कहां किसान को भूमिहीन और बेघर कर देती है, इसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। मुश्किल से किसान एक फसल काट पाते हैं। भूमि के जल प्लावित होने के बाद किसान मजदूर बन जाते हैं। बाढ़ आम बात है। एक किसान अपने जीवन काल में कम से कम तीन बार घर का स्थान बदलने या घर बनाने के लिए बाध्य होता है। असम में ब्रह्मपुत्र, बिहार में गंगा, सोन, गंडक आदि नदियों के पास दियारा क्षेत्र फैला हुआ है।
बिहार में दरभंगा जिले में कुल क्षेत्र का 87 फीसद, खगड़िया में 72 फीसद, पटना में 53 फीसद और बेगूसराय में 42 फीसद बाढ़ की चपेट में आता है। इसमें से बड़ा भाग दियारा है। औपनिवेशिक काल में ब्रिटिश सरकार ने उन्नीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक में सर्वेक्षण कराया था। और स्वतंत्रता के बाद भी राज्य सरकारें सर्वेक्षणों का कर्मकांड करती रहीं।
अस्मिता का संकट कम बड़ा संकट नहीं है
2018 में पहली बार दियारा की यात्रा में बेगूसराय के शिवनगर और भवानंदपुर में किसानों के जीवन को देखा। तबसे अनेक बार अनेक दियारा देखे। उनके सामाजिक-आर्थिक जीवन में सिर्फ अस्तित्व संकट में नहीं होता है, उनकी अस्मिता भी दांव पर लगी होती है। कृषि और पशुपालन पर निर्भर लोग लोकतंत्र के सारथी होकर भी लोकतंत्र से बाहर हैं। वे मतदान कर 1952 से सांसद और विधायक चुनते रहे हैं, पर उन्हें शासन का सार्थक कदम कभी देखने को नहीं मिलता है। अस्मिता का संकट कम बड़ा नहीं है।
दियारावासी होने के परिचय के साथ यह मालूम पड़ता है कि न जमीन स्थायी, न ही डाक पता स्थायी है। इसलिए लोग शहरों की ओर पलायन करते हैं। पर भारतीय समाज भौगोलिक भावुकता में जीता है। वह अपने जन्मस्थान को न छोड़ना चाहता है, न उसे व्यावसायिक दृष्टि से देखता है। आर्थिक पक्ष की बाध्यता उसे पलायन के लिए बाध्य करती है। सब जानते हुए भी लोग रहते हैं। संघर्ष ने उन्हें उग्र नहीं सहाशील बना दिया है।
जब मैं पहली बार भवानंदपुर गया, जो एक दियारा क्षेत्र है, और कहा कि दियारा की तकदीर ऐसी बदलनी चाहिए कि यह शब्द शब्दकोश से बाहर हो जाए, तब लोग झूम उठे। सदियों और पीढ़ियों से प्रताड़ित तथा उपेक्षित लोग स्थायी समाधान को कल्पना मानने लगे हैं। आखिर उनके जीवन में त्रासदी के होते हुए भी उग्रता क्यों नहीं है?
लोग प्रकृति के निकट जितना रहते हैं, उनकी सहिष्णुता उतनी ही बड़ी होती है
शायद प्रकृति के निकट जो लोग जितना रहते हैं, उनकी सहिष्णुता उतनी ही बड़ी होती है। वे भाग्यवादी बन जाते हैं। यह लोकतंत्र की एक बड़ी विफलता है। जिस लोकतंत्र में सामाजिक-आर्थिक सोच जाति और संप्रदाय में बंट जाए, उसमें चेतना का सूचकांक निम्न स्तर पर रहता है। पर मेरी आंखें तब खुलीं, जब मेरी पिछली यात्रा में एक अधिकारी और भवानंदपुर गांव की महिला का संवाद सुना।
सुंदरी देवी और इंदु देवी कभी स्कूल गईं या नहीं, यह मालूम नहीं, पर प्रतियोगिता परीक्षा से नियुक्त उच्च शिक्षा पाए एक अधिकारी से पूछा, ‘क्या जब भोज (सामूहिक भोजन) का समय आता है तब आप कोहड़ा (सब्जी) का पौधा लगाते हैं?’ बाढ़ का समय आ गया और तंत्र नियंत्रण की बात करने लगा। संवाद में तंत्र की ईमानदारी, नैतिकता, योजना और प्रतिबद्धता सब पर सवाल था।
लोकतांत्रिक प्रक्रिया में लोगों को ‘स्व’ के प्रति स्वाभिमानी और स्वायत्त बनाना मूल उद्देश्य
भारतीय समाज अपनी उग्रता को पीना जानता है। कष्ट सहकर रहना और सीमित संसाधनों में संतुष्ट रहना उसका स्वभाव है। पर पूंजीवाद और नवउदारवाद उस स्वभाव का शोषण करता है। एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया में लोगों को ‘स्व’ के प्रति स्वाभिमानी और स्वायत्त बनाना ही मूल उद्देश्य होना चाहिए। यही समृद्ध ‘स्व’ तंत्र को अनैतिक, अमर्यादित और शोषक होने से रोक पाता है।
एक कृषि प्रधान देश में एक दूसरी बीमारी भी विद्यमान है, जिसका अर्थ नेहरूवादी नीति निर्धारकों को मालूम नहीं था। यह शब्द चौर है। यह वह क्षेत्र है, जहां कृषि योग्य भूमि में पानी चार से सात महीने तक जमा रहता है। राज्य-व्यवस्था में यदि इच्छाशक्ति हो, तो असंभव संभव बन जाता और न हो तो संभव भी असंभव लगता है। गुजरात का कच्छ बिना पानी का सदियों से था। नरेंद्र मोदी तब गुजरात के मुख्यमंत्री थे। नर्मदा से चार सौ किलोमीटर पानी पहुंचाना संभव हो पाया। पर हजारों हेक्टेयर जमीन में पांच से सात किलोमीटर से पानी निकालना असंभव बना हुआ है। ऐसे ही एक क्षेत्र छौड़ाही (बेगूसराय) गया। किसानों के पास खेत है, पर फसल नहीं हो पाती।
किसान प्रेमचंद से लेकर राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की लेखनी का हिस्सा बनते रहे। काव्य और कथाओं में किसानों का दर्द प्रेमचंद और दिनकर के यथार्थ से साक्षात्कार का परिणाम था। यथार्थ को सर्वेक्षण से समझा जा सकता है, महसूस नहीं किया जा सकता। वैसे ही दियारा के दर्द को महसूस करना, उन्हें अपनी संवेदना का हिस्सा बनाने के लिए उनकी धरती पर कदम रखकर उनके बीच, उनका बन कर ही संभव है। सुंदरी देवी और इंदु देवी का संवाद धरती के एक कोने पर सुरक्षित जीवन के लिए था।
नवउदारवाद जिस अनंत की ओर ले जाता है, जिस असंवेदनशील मनुष्य की रचना करता है, उसके प्रतिकूल दियारा निवासी सामुदायिकता और संवेदना के साथ प्रकृति से अभिन्न रूप से जुड़े हैं। जिस नदी के प्रकोप से पीड़ित होते हैं, उसकी भी पूजा करते हैं और जिस तंत्र से उपेक्षित होते हैं, उसका भी स्वागत करते हैं। दियारा भले ही आर्थिक विपन्नता का शिकार है, पर उसकी सांस्कृतिक समृद्धि का सूचकांक बढ़ता ही जा रहा है। नवउदारवाद से अलग मनुष्य का मन, स्वभाव, गणित कैसा होता है, उसके वे जीवंत उदाहरण हैं।
(लेखक भाजपा के राज्यसभा सांसद हैं)