केसी त्यागी/ बिशन नेहवाल
आज दुनिया भर में किसानों को अभूतपूर्व चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, उनकी आजीविका खतरे में है, उनके अधिकारों को कुचला जा रहा है। आज भी देश के लाखों किसान दिल्ली की सीमाओं को घेरने घर से निकल चुके हैं। सत्ता के गलियारों में गूंजती उनकी दुर्दशा, उनकी समस्याओं के त्वरित समाधान की मांग कर रही है। किसानों के अधिकारों की लड़ाई के लिए भारत के धूप में तपते मैदानों से लेकर यूरोप की उपजाऊ घाटियों तक, किसान एकजुट हो रहे हैं, उनकी आवाजें न्याय की पुकार और बदलाव की मांग को प्रतिध्वनित कर रही हैं।
उपज की गिरती कीमत, फसलों की बढ़ती लागत, भारी-भरकम नियामक, ताकतवर कारोबारी, कर्ज का बोझ, भूमि अधिग्रहण, जलवायु परिवर्तन और सस्ता आयात उनकी समस्याओं के मूल में है। पिछले कुछ दिनों में फ्रांस, इटली, रोमानिया, पोलैंड, ग्रीस, जर्मनी, पुर्तगाल और नीदरलैंड में किसान सड़कों पर विरोध प्रदर्शन करते दिखे। फ्रांस में तो किसानों ने सड़कें ठप करने के बाद यूक्रेन दूतावास पर मशीन से गोबर की बौछार कर दी। यह केवल छिटपुट विरोधों का संग्रह नहीं है; यह एक उभरता हुआ वैश्विक आंदोलन है, विपरीत परिस्थितियों में एकता का आह्वान है।
भारत में किसान सभी फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को वैध बनाने की मांग करते हुए एक बार फिर सड़कों पर आ गए हैं। इस बीच, यूरोप में डच डेयरी किसानों ने अपना प्रतिष्ठित ‘दूध विरोध प्रदर्शन’ करते हुए, राजमार्गों और सुपर बाजारों को अवरुद्ध किया, दूध की कम कीमतों का विरोध किया और अपने श्रम के लिए उचित मुआवजे की मांग की। पिछले दिनों भारत की तर्ज पर फ्रांस में भी किसान आंदोलन चरम पर था, लाखों किसानों ने अपनी मांगों के समर्थन में देश के कई राजमार्गों समेत, हवाई अड््डों की घेराबंदी करते हुए राजधानी को घेर लिया था।
अटलांटिक के पार, ब्राजील में स्वदेशी समुदाय और छोटे किसान कृषि व्यवसाय के पूंजीपति कारपोरेट दिग्गजों के खिलाफ एकजुट हैं, उनका संघर्ष वैश्विक भूमि अधिकार संघर्ष का प्रतीक है। वनों की कटाई और कार्पोरेट अतिक्रमण के खिलाफ उनका प्रतिरोध किसानों के संघर्षों की कहानी में एक और परत जोड़ रहा है, जो पर्यावरण और सामाजिक न्याय की एक कहानी बुनता है।
दुनिया भर में किसानों को परेशान करने वाले मुद्दों में अस्थिर समानताएं हैं। उनके संघर्ष का ताना-बाना शोषण, हाशिये पर जाने और टूटे वादों के धागों से बुना गया है। जहां अस्थिर बाजार उन्हें कीमतों में उतार-चढ़ाव के प्रति संवेदनशील बना देते हैं, ऐसे में उन्हें अपनी उपज के लिए बहुत कम मूल्य मिलता है, जबकि उपभोक्ता अत्यधिक कीमतें चुकाते हैं।
शोषणकारी बाजार शक्तियों से युक्त खाद्य प्रणाली में कार्पोरेट एकीकरण किसानों को निचोड़ता है, जिससे उन्हें मामूली मुनाफा मिल पाता है। 2020 की आक्सफैम रपट के मुताबिक किसानों को भोजन के अंतिम खुदरा मूल्य का केवल 1-8 फीसद मिलता है।
प्रतिस्पर्धा के दौर में कारपोरेट समेकन सत्ता को कुछ लोगों के हाथों में केंद्रित कर देता है, जिससे छोटे किसान बाजार से बाहर हो जाते हैं। जलवायु परिवर्तन से अनिश्चितता की एक और परत जुड़ गई है, जिससे फसल की पैदावार और आजीविका पर खतरा मंडरा रहा है। हर जगह किसानों पर कर्ज का बोझ भारी है।
भारत में, किसानों की आत्महत्या एक गंभीर वास्तविकता बनी हुई है, जो बढ़ते वित्तीय दबाव के कारण होने वाली हताशा की याद दिलाती है। ऊंची लागत और अप्रत्याशित बाजार कीमतों के कारण किसानों को अक्सर भारी कर्ज का सामना करना पड़ता है। विश्व बैंक की 2022 की रपट का अनुमान है कि विश्व स्तर पर पांच करोड़ छोटे किसान ऋण चक्र में फंसे हुए हैं।
औद्योगीकरण और बुनियादी ढांचा विकास के नाम पर भूमि बेदखली भी किसानों के लिए एक बड़ी समस्या बनी हुई है। निगमों और सरकारों द्वारा भूमि अधिग्रहण कर बिना किसी पुनर्वास नीति के किसानों को विस्थापित कर, उनकी आजीविका और सांस्कृतिक विरासत को नष्ट कर रहा है। ‘लैंड मैट्रिक्स इनिशिएटिव’ के अनुसार, 2016 से 2020 के बीच वैश्विक स्तर पर दस लाख हेक्टेयर से अधिक किसानों की भूमि हड़प ली गई।
अनियमित मौसम पैटर्न, सूखा और बाढ़ फसलों को नष्ट कर देते हैं, खाद्य सुरक्षा को खतरे में डालते और किसानों को गरीबी में धकेल देते हैं। विश्व बैंक का अनुमान है कि जलवायु परिवर्तन 2030 तक अतिरिक्त 2.6 करोड़ लोगों को गरीबी में धकेल सकता है, मुख्य रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में। छोटे किसानों के पास अक्सर पानी, ऋण और सूचना जैसे आवश्यक संसाधनों तक पहुंच की कमी उनकी उत्पादकता और लचीलेपन में प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं।
सरकारों को इस वैश्विक विद्रोह को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। इतिहास गवाह है कि जब-जब किसान-मजदूरों ने शोषण से त्रस्त होकर, सत्ता के खिलाफ हुंकार भरी है, उन्होंने सत्ता पलटने का काम किया है। 1917 में रूस की क्रांति हो, माओ के नेतृत्व में चीन की क्रांति या भारत का किसान आंदोलन, तीनों स्थितियों में गरीबी, भूमि वितरण के मुद्दों और शक्तिशाली अभिजात वर्ग द्वारा शोषण से उत्पन्न महत्त्वपूर्ण ग्रामीण असंतोष शामिल था। तीनों आंदोलन कथित सत्तावादी शासन के विरोध में उभरे।
प्रत्येक आंदोलन ने परिवर्तन की वकालत करने वाली विचारधारा से प्रेरणा ली। रूस में बोल्शेविकों ने भूमि पुनर्वितरण और समानता का वादा करते हुए साम्यवाद को अपनाया। माओत्से तुंग की क्रांति माओवाद से प्रेरित थी, जो मार्क्सवाद और कृषि समाजवाद का मिश्रण था। जबकि वर्तमान भारतीय किसान आंदोलन भी सामाजिक न्याय और उचित व्यवहार के विचारों में प्रतिध्वनित होता है।
जितनी भी वैश्विक क्रांतियां हुईं है, उन सभी में सामूहिक कार्रवाई ने यथास्थिति को चुनौती देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। किसानों और श्रमिकों के आंदोलन सिर्फ विरोध प्रदर्शन, हड़ताल तक सीमित नहीं हैं। अगर समय रहते किसानों की समस्याओं को संबोधित नहीं किया गया, तो आने वाले समय में इसके भयावह परिणाम होंगे।
अब समय आ गया है कि वैश्विक बातचीत विकसित की जाए और एक ऐसा भविष्य बनाने के लिए मिलकर काम किया जाए, जहां किसान फलें-फूलें, समुदायों का पोषण हो और पृथ्वी की निरंतर देखभाल की जा सके। किसानों के अधिकारों की लड़ाई सिर्फ उनकी आजीविका की रक्षा के बारे में नहीं है; यह हमारे सामूहिक खाद्य भविष्य की सुरक्षा के बारे में है।
उनकी मांगें सिर्फ आर्थिक सुरक्षा के बारे में नहीं हैं; वे एक न्यायपूर्ण और टिकाऊ खाद्य प्रणाली के आह्वान का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो किसानों को भूमि के प्रबंधक के रूप में महत्त्व देती और दुनिया को खिलाने में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका को पहचानती है। सरकार के लिए भी आज समय है, जो शक्तिशाली निहित स्वार्थ रास्ते में खड़े हैं उन्हें नजरंदाज कर मजबूत प्रणालियों में सुधार किया जाए। यह समावेशी और न्यायसंगत समाज की परिकल्पना को साकार करने की दिशा में एक कदम होगा, जहां हर किसान सम्मान और समृद्धि के साथ जीने के लिए सशक्त होगा।