मानव इतिहास में यह पहला मौका नहीं है जब एक अदृश्य विषाणु ने जैसे पूरी दुनिया के नियम-कायदों को उलट-पलट कर रख दिया हो। इससे पहले भी करोड़ों जानें लील लेने वाले एक से बढ़ कर एक खौफनाक विषाणु और जीवाणु मानव जाति पर हमला बोल चुके हैं। लेकिन कोराना विषाणु और उससे पैदा हुई महामारी कोविड-19 को हम कई मामलों में सबसे ज्यादा खतरनाक मान सकते हैं।

यह चिकित्सा विज्ञान का वह दौर है जिसमें चिकित्सा विज्ञानियों के पास प्राय: हर बीमारी का तोड़ है और इलाज के बेहद सटीक इंतजाम हैं। इसीलिए दावा किया जाता है कि आज का अत्याधुनिक चिकित्सा विज्ञान जटिल से जटिल विषाणुओं के आगे-पीछे की श्रंखलाओं को समझ सकता है और उनसे बचाव के तरीके खोज सकता है।

लेकिन कोरोना विषाणु के बदलते रूपों और नए-नए विषाणुओं की पैदावार ने इन सारे इंतजामों को जैसे धता बता दी है और यह चुनौती पैदा कर दी है कि हमारे विज्ञान में अगर कोई क्षमता है तो वह उन्हें रोक कर दिखाए।

इस चुनौती को ब्रिटेन के ताजा मामले से समझा जा सकता है। ऐसे वक्त में, जब कोविड-19 महामारी पर काबू पाने की कोशिशों के तहत दुनिया भर में इसके टीकाकरण का काम शुरू होने को है, कोरोना विषाणु नए-नए रूपों में सामने आ रहा है।

पता चला है कि इस बदले स्वरूप की जानकारी पब्लिक हेल्थ इंग्लैंड के जिनोमिक सर्विलांस से मिली, जिसने 18 दिसंबर को नए रूप की गंभीरता पर ब्रिटिश सरकार को सूचित किया और सरकार ने अपनी खोज को उसी दिन विश्व स्वास्थ्य संगठन के हवाले कर दिया।

कोरोना विषाणु की यह एक ‘स्पेनिश किस्म’ है जिसने छुट्टियों पर निकले ब्रिटिशों को संक्रमित किया और वे इस विषाणु को अपने साथ कई जगहों पर ले गए। चूंकि कोरोना विषाणु की यह नई किस्म सत्तर फीसद ज्यादा घातक और तेजी से फैलने वाली पाई गई है, इसलिए इसका पता चलते ही दुनिया के कई देशों ने ब्रिटेन से आने वाली उड़ानों पर रोक लगा दी।

हैरान करने वाली बात कोरोना विषाणु में उत्परिवर्तन के कारण होने वाले तेजी से बदलाव हैं जो इसकी रोकथाम के लिए खोजी जा रही दवाओं, टीकों और इलाज पद्धतियों को सवालिया घेरे में ला खड़ा करते हैं। चिंता सिर्फ यह नहीं है कि इस बदलाव के कारण दवाओं और टीकों के बेअसर होने की आशंका पैदा हो गई है, बल्कि कोरोना पर जीत हासिल कर चुके लोगों के खून में जो एंटीबॉडी बनी है, वह भी विषाणु के बदले स्वरूप के खिलाफ कम असरदार रह जाती है।

कुछ और जानकारियां हैं जो परेशान करने वाली हैं। जैसे कोरोना विषाणु ने जब से इंसानों को अपनी चपेट में लिया है, तब से इसमें हर महीने तकरीबन दो बदलाव हो रहे हैं। दावा है कि चीन के वुहान शहर में मिले विषाणु से यदि आज के कोरोना विषाणु का मिलान किया जाए, तो इसमें पच्चीस तरह के बदलाव आ चुके हैं।

बहुत मुमकिन है कि अगले साल के आरंभ में जब इसका टीका भारत सहित दुनिया के दूसरे मुल्कों में लगाया जाना शुरू होगा, तब तक यह कुछ और रूप धारण ले। हालांकि चिकित्सा विज्ञानी आश्वस्त करते हैं कि टीकों का निर्माण इन उत्परिवर्तनों का अंदाजा लगा कर और विषाणु के खिलाफ शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली को दुरुस्त करने के हिसाब से किया जाता है।

लेकिन बर्मिंघम विश्वविद्यालय के प्रोफेसर एलन मैकनली का कहना है कि बदलाव से जो नया विषाणु हमारे सामने आता है, उसकी सच्चाई यह है कि हम उसके बारे में जैविक रूप से कुछ नहीं जानते। इसलिए उसके असर के बारे में अंदाजा लगा पाना और यह कहना कि टीका उसका इलाज है या यह विषाणु कोरोना की शुरुआती किस्म जितना ही खतरनाक है, ठीक नहीं होगा। जाहिर है, इससे टीकाकरण की सारी मुहिमों पर नया दबाव बनेगा, क्योंकि अगर विषाणु फिर कोई रूप धारण लेता है तो इससे टीके में भी बदलाव करना जरूरी हो जाएगा।

लेकिन विषाणु का उत्परिवर्तन, पुराने विषाणुओं का फिर से सिर उठाना और नए अज्ञात विषाणुओं का अचानक हमला बोल देना- एक ऐसी पहेली है जो हाल के दो-तीन दशकों में पूरे चिकित्सा जगत के लिए रहस्यमय ढंग से सामने आई है।

सवाल उठ रहे हैं कि क्या यह महज संयोग है कि जैसे-जैसे हमारा चिकित्सा तंत्र हर मर्ज के सटीक इलाज के दावे की ओर बढ़ रहा है, वैसे-वैसे नए-नए विषाणुओं की फौज आक्रामक ढंग से हमले करने लगी है। या फिर यह प्रकृति का कोई प्रकोप है जो संसाधनों के अंधाधुंध दोहन के कारण अपने बचाव के लिए इंसानों के खिलाफ अपने पैंतरे दिखा रहा है।

या कहीं इसके पीछे उन ढके-छिपे विषाणुओं की कोई कहानी तो नहीं है जिस पर अभी तक किसी की नजर नहीं गई, लेकिन जलवायु परिवर्तन से तापमान बढ़ने के कारण उन विषाणुओं की उत्पत्ति की राह खुल गई है।

दरअसल, कुछ ऐसे खुलासे हुए हैं जो साबित कर रहे हैं कि बर्फीले हिमनदों में जाने-अनजाने विषाणुओं के पूरे खानदान मौजूद हैं। इनमें से एक मामला पश्चिमी तिब्बत पठार में मौजूद हिमनद का है, जहां अमेरिकी विज्ञानियों के दो दलों ने 1992 और 2015 में किए गए अध्ययन के बाद वहां की बर्फ में पंद्रह हजार साल पुराने विषाणुओं की मौजूदगी का दावा किया है।

इस दावे से संबंधित एक शोध रिपोर्ट इसी वर्ष के आरंभ में प्रकाशित की गई थी। रिपोर्ट में बताया गया है कि तिब्बती ग्लेशियर की बर्फ को करीब पचास मीटर गहराई तक खोदने के बाद वहां पाए गए तैंतीस में से अट्ठाईस ऐसे विषाणु समूहों की मौजूदगी मिली जिन्हें पहले कभी नहीं देखा गया था।

ये विषाणु वैश्विक तापमान बढ़ने से बर्फ पिघलने के साथ फैल सकते हैं और पूरी दुनिया में हजारों साल पहले की महामारियों को वापस ला सकते हैं। एक आशंका यह भी जताई जाती है कि ये विषाणु पृथ्वी से बाहर के हो सकते हैं और उल्का पिंडों के जरिए यहां पहुंचे होंगे।

इसी तरह की एक घटना अलास्का के बेहद ठंडे इलाके- टुंड्रा से संबंधित है। वहां दूसरे विश्व युद्ध के दौरान मारे गए सैनिकों के शव दफनाए गए थे। विज्ञानियों ने इन शवों की जांच की तो पता चला है कि उनमें 1918 के भीषण स्पेनिश फ्लू के अवशेष मौजूद थे।

इसी तरह साइबेरिया की बर्फ में दफनाए गए शवों में भी बुबोनिक प्लेग और चेचक जैसे संक्रमणों के अवशेष मिले। पृथ्वी की बर्फीली सतहों में अत्यंत प्राचीन समय के विषाणुओं के दबे होने की भी आशंकाएं काफी ज्यादा हैं।

अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसीझ्र नासा के विज्ञानियों ने कुछ समय पहले अलास्का की बर्फ को खंगाला तो वहां उन्हें वूली मैमथ के दौर का कानोर्बैक्टीरियम प्लीस्टोकेनियम नामक जीवाणु कैद मिला, जो साबित करता है कि अनजान और अदृश्य जगहों से कभी भी कोई भी अनजान विषाणु अचानक प्रकट हो सकता है और मानव सभ्यता को संकट में डाल सकता है।

विषाणुओं-जीवाणुओं से इंसान की जंग को अब दवाओं और टीकों जैसे हथियार मिल गए हैं, लेकिन लापरवाहियों की लंबी फेहरिस्त, संकट की अनदेखी, उत्परिवर्तन और अनजाने विषाणुओं के अचानक उभर आने की स्थितियों में सारे प्रबंध धरे रह जाते हैं, इस हकीकत को कोरोना के किस्से ने साबित कर दिया है।

यह भी एक घोर लापरवाही है कि पर्यावरणविद् जलवायु संकट जैसी समस्याओं को लेकर सचेत कर रहे हैं, लेकिन उस ओर ज्यादा ध्यान नहीं दिया जा रहा है। ऐसे में यदि हिमनदों की बर्फ तेजी से पिघली और ढके-छिपे विषाणुओं ने पूरी ताकत से हमला बोल दिया तो कहना मुश्किल है कि पृथ्वी पर इंसानी आबादी को सुरक्षित बचा लिया जाएगा।