गौरव बिस्सा
सर्वोच्च वेतन शृंखला में तीस साल नौकरी कर लेने के बाद भी इतना धन कमाना नामुमकिन है। प्रश्न यह नहीं कि समाज में भ्रष्ट आचरण है या पैसा ही सबसे महत्त्वपूर्ण है, प्रश्न है धन कमाने की प्यास।भ्रष्ट आचरण से धनार्जन की प्यास तब जागती है, जब व्यक्ति सब कुछ भूलकर सिर्फ धन और शक्ति को बढ़ाने के लिए प्रतिबद्ध हो जाता है।
उसे जीवन मूल्यों, परिवार की यश कीर्ति, पूर्वजों के गौरव, समाज की टीका-टिप्पणियों से उपजने वाली जलालत से कोई सरोकार नहीं रह जाता। उसे लगने लगता है कि चाहे जैसे भी हो, धन और शक्ति मिले। सवाल यह भी है कि कठिन प्रतियोगी परीक्षाओं को पास कर बड़े पदों पर आसीन व्यक्ति उत्तम वेतन और सुविधाएं मिलने के बावजूद भ्रष्ट आचरण क्यों करते हैं!
ऐसे में क्या इन प्रतियोगी परीक्षाओं, चयन प्रक्रिया और उसके बाद होने वाले प्रशिक्षण पर अपने आप प्रश्नचिह्न नहीं लग जाता? फिर तथाकथित रूप से सबसे उत्तम शिक्षण संस्थानों से सर्वोत्तम शिक्षा प्राप्त करने का दम रखने वालों का आचरण ही अगर पवित्र नहीं है तो क्या यह शिक्षण तंत्र की असफलता नहीं? क्या शिक्षा वर्तमान में नैतिक मूल्यों और जीवन जीने की कला को सिखा पा रही है? पैसों की अंधी दौड़ में शामिल लोगों को देखकर लगता है कि डिग्रीधारी होना एक बात है और शिक्षित होना बिल्कुल अलग विषय।
जब पैसा और पैसे से मिलने वाले सुख मनुष्य को अपनी प्रतिष्ठा से भी अधिक अच्छे लगने लगें तो समझ लेना चाहिए कि विनाश निश्चित है। भ्रष्टाचार व्यवस्था में नहीं होता। व्यवस्था एक निर्जीव इकाई है। मनुष्य व्यवस्था का जीवित अंग है और वही भ्रष्ट आचरण के लिए उत्तरदायी है। वास्तविक भ्रष्टाचार व्यवस्था का नहीं, बल्कि स्वभाव का होता है।
स्वभाव का भ्रष्टाचार का अर्थ है- भ्रष्टाचार को शिष्टाचार समझ लेना, भ्रष्ट होने को व्यावहारिक होना कहना और समाज में संदेश या धारणा बना देना कि भ्रष्ट आचरण कोई खास बात नहीं, बल्कि एक सामान्य विषय है और इसके बिना कुछ भी हो पाना असंभव है। यही समस्या की जड़ है, क्योंकि देश में अधिकतर व्यक्ति यह स्वीकार कर चुके हैं कि काम करवाने के लिए सुविधा शुल्क देना जरूरी है। दो पल के आराम, ‘मुझे क्या मतलब है’ जैसी सोच और ‘इतना तो चलता है भाई’ जैसे दार्शनिक वाक्य इस भ्रष्ट आचरण को मानो विधिक स्वीकृति देते लगते हैं!
व्यक्ति के मन में भ्रष्ट शिरोमणि बनने का भूत क्यों सवार हो जाता है? इसका पहला कारण है भ्रष्टाचार की क्षमता। इसका अर्थ है ऐसे पद पर पहुंचना जहां भ्रष्ट और शक्तिशाली होने का बहुत अधिक मौका मिले। बड़े अफसर, राजनेता या उच्च पदासीन कारपोरेट प्रबंधन में लगे लोगों के पास यह क्षमता बहुत अधिक है। इसलिए युवा भी वैसा ही बनना चाहता है।
अध्यापक, प्रोफेसर आदि पेशों में भ्रष्टाचार करने की या शक्तिमान बनने की क्षमता अपेक्षाकृत कम होती है। वर्तमान युवा मानो ऐसे पेशों की तलाश में हैं, जिनमे भ्रष्ट होकर कमाने की या अति शक्तिशाली बनकर उभरने का मौका हो। बालक में यही मूल्य भरे जा रहे हैं कि वे ऐसे पेशे का चयन करें, जिससे शक्ति और पैसा मिले। कोई अभिभावक अपनी संतान को अध्यापक बनने की प्रेरणा नहीं दे रहा।
जबकि अध्यापक सभी पेशों का जन्मदाता है। भ्रष्ट होने का दूसरा बड़ा कारण है समाज में ऐसे निकृष्ट जनों का सम्मान, जो अनैतिक आचरण की पराकाष्ठा है। आज अपनी संतानों को यही सिखाया जा रहा है कि सफलता का अर्थ पैसा, पदवी, संपत्ति और नाम सुनते ही काम हो जाने की ताकत है। मूल्यों के ह्रास की वजह यही है।
युवाओं के आदर्श कौन हैं? युवा वर्ग के आदर्श परमवीर चक्र विजेता शहीद और राष्ट्रप्रेमी व्यक्तित्व नहीं, बल्कि अपराधियों जैसे निम्न स्तरीय लोग हैं। यहीं से उसमें यह भाव आता है कि ऐसा शहीद या राष्ट्रभक्त क्यों बनना, जिसे कोई न जाने। पर्यावरण संरक्षण पर उत्कृष्ट कार्य करने वाला, अच्छा पढ़ाकर विद्यार्थियों का जीवन संवारने वाला अध्यापक पूरी जिंदगी तरस जाता है, लेकिन एक फिल्मी कलाकार, अपराधी या रिश्वतखोर खूब प्रचार पाता है। यहीं से व्यक्ति सोचता है कि शक्तिशाली और लोकप्रिय बनने के लिए उसे भी कुछ भी करना चाहिए।
प्राचीन शास्त्रों ने ‘वृत्तं यत्नेन संरक्षेत’ यानी चारित्रिक बल की यत्नपूर्वक रक्षा करने की बात कही है। वृत्त यानी चरित्र का बल सभी बलों से ज्यादा माना गया है। ऊंचे पद पर पहुंच जाने पर या उच्च शिक्षित होने के बाद व्यक्ति को अपनी मर्यादा और नैतिकता का विशेष ध्यान रखना चाहिए। ‘सिद्धानाम लक्षणम्, साधकानाम साधनम्’ का यही भाव है कि अपनी सफलता को सिद्ध कर चुके व्यक्तियों का व्यवहार अन्य लोगों के लिए आदर्श होना चाहिए। समाज यह उम्मीद करता है कि उच्च पदासीन व्यक्ति सामान्य जनों के सामने एक उदाहरण बनकर अपना नैतिक बल सिद्ध करें।