27 साल पहले हुई हत्या के एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने पिता-पुत्र को बरी कर दिया है। टॉप कोर्ट ने हैरत जताई कि ना तो मामले में कोई चश्मदीद था और ना ही आरोपियों के खिलाफ पुख्ता साक्ष्य। फिर भी पहले सेशन कोर्ट और फिर हाईकोर्ट ने दोनों को उम्र कैद की सजा सुना दी। सुप्रीम कोर्ट ने बेनीफिट ऑफ डाउट के आधार पर दोनों को बरी किया। अदालत का ये भी कहना था प्रासीक्यूशन दोनों के खिलाफ आरोप साबित नहीं कर सका।
जस्टिस राम सुब्रमण्यम और जस्टिस पंकज मित्तल की बेंच ने अपने फैसले में कहा कि ना तो सेशन कोर्ट और ना ही हाईकोर्ट ने मामले के अहम पहलुओं को देखा। सुप्रीम कोर्ट में पिता पुत्र ने 2011 में अपील दायर की थी। 12 साल की सुनवाई के बाद अदालत ने अपना फैसला सुनाया।
मामले के मुताबिक उत्तराखंड (उस दौरान यूपी) में ये वारदात हुई थी। अलताफ हुसैन का मो. मुस्लिम और शमशाद से जमीन को लेकर विवाद था। एक दिन अलताफ अपनी साइकिल पर बेटे और भतीजे के साथ कहीं जा रहा था। उसी दौरान दो लोग आए और धारदार हथियारों से अलताफ पर हमला कर दिया। 1995 में ये वारदात हुई थी।
साइकिल और कंबल बरामद हुए पर कभी कोर्ट में पेश नहीं किए गए
पुलिस की थ्यौरी के मुताबिक आरोपी अपनी साइकिल और कंबल छोड़कर जंगल की तरफ भाग निकले। 4 अगस्त 1995 को पुलिस ने हत्या को लेकर केस दर्ज किया। लेकिन कोर्ट में पुलिस ने अपनी रिपोर्ट चार दिन बाद भेजी। विवेचना अधिकारी ने साइकिल और कंबल मौके से बरामद कर लिया था। लेकिन दोनों ही चीजें कभी भी कोर्ट में पेश नहीं की जा सकीं।
हमले के बाद पीड़ित को अस्पताल नहीं ले गई पुलिस पर FIR तुरंत दर्ज कर ली
आरोपियों ने ट्रायल के दौरान खुद को बेकसूर बताया। लेकिन सेशन कोर्ट ने 25 अप्रैल 1998 को दोनों को उम्र कैद की सजा सुना दी। 10 सितंबर 2010 को हाईकोर्ट ने भी सेशन कोर्ट के फैसले को बहाल रखा। उसके बाद आरोपियों ने सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगाई। सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई के दौरान माना कि अलताफ हुसैन के बेटे और भतीजे का व्यवहार काफी हैरानी भरा था। उन्होंने अलताफ को बचाने की कोशिश ही नहीं की। पुलिस का बर्ताव भी सुप्रीम कोर्ट को ठीक नहीं लगा। अलताफ को अस्पताल तो ले नहीं जाया गया। लेकिन केस तुरंत दर्ज कर दिया गया।