पुण्य प्रसून वाजपेयी

ब कोई नेता, कोई मंत्री, कोई अधिकारी इस गांव में झांकने तक नहीं आता। छह महीने पहले तक गांव में हर कोई आता था। छह महीने पहले चुनावी बूथ भी गांव में बना था। छह महीने पहले मिट्टी की दीवार पर लगा पंतप्रधान नरेंद्र मोदी का पोस्टर तो अभी भी चस्पां है। लेकिन पीढ़ियों से जिस मिट्टी की गोद पर सैकड़ों परिवार पले-बढ़े, उनके पास सिर्फ 15 अक्तूबर तक का वक्त है।

जो हाथ कल तक समूचे परिवार को थाम लेते थे, अब वे बेबस हैं। हर मां की आंखें नम हैं। हर पिता कांपते-लड़खड़ाते पांव से घर के खपरैल तक को समेट रहा है, क्योंकि वोटिंग के दिन तक गांव खाली कर देना है। जहां जाकर नए सिरे से जिंदगी शुरू करनी है, वहां का ठिकाना बंजर जमीन पर मुआवजे की रकम से चारदीवारी खड़ी करनी है। वहीं नया गांव होगा। वहीं घर होगा।

यह सच नागपुर से सटे भंडारा जिले के उस पाथरी गांव का है जिसका जन्म संघर्ष के दौर में आंदोलन से हुआ, और जिसकी मौत विकास की उस अविरल रेखा से होने जा रही है जो बांध परियोजना के नाम पर जमीन, जिंदगी, गांव के गांव खत्म कर रहा है या आबाद, इसकी परिभाषा कभी मुबंई-दिल्ली गढ़ नहीं पाए।

पाथरी गांव की सरंपच रीना भूरे को भरोसा है कि सरकार बांध बनाने के लिए उजाड़ रही है तो बसाएगी भी। गांव में चाय की बैठकी का एकमात्र ठीहा चलाने वाले प्रभु लांजवार वोटिंग वाले दिन गांव वालों को आखिरी चाय पिलाकर जिंदगी से ही विदा हो जाना चाहते हैं। पीढ़ियों से रहते आए 72 बरस के रामदशरथ हटवार ने अपने पिता से लेकर अपने बच्चों के नाम के साथ पाथरी शब्द जोड़ दिया। खुद को वे रामदशरथ पाथरी कहते-लिखते हैं। कौडू देशमुख ने महात्मा गांधी के साथ पग मिलाए और विनोबा भावे के साथ मध्य भारत की धूल, भूदान आंदोलन के लिए फांकी।

लेकिन अब हर रास्ता बंद है क्योंकि इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के सपने को पूरा करने के लिए गोसीखुर्द बांध परियोजना पांच जिलों की सियासत का ऐसा स्रोत बन चुका है जहां गांव के गांव उजड़ने का मतलब है करोड़ों के वारे-न्यारे। इसलिए पाथरी गांव ही नहीं, गोसीखुर्द परियोजना के दायरे में आने वाले 238 गांव आखिरी सांस ले रहे हैं। इनकी बुझती सांस के एवज में जो सपना पाला गया है, वह भंडारा, नागपुर, चंद्रपुर की ढाई लाख हेक्टेयर जमीन को सिंचाई की व्यवस्था करना है। लेकिन नेता और सरकारों के विकास के नारों के बीच गोसीखुर्द बांध और पाथरी गांव एक ऐसी मिसाल है जो लूट और मौत का खेल खेलती है।

लूट इसलिए कि 1983 में इंदिरा गांधी ने गोसीखुर्द का सपना 372 करोड़ रुपए में देखा था। इंदिरा गांधी की मौत ने सपने को लील लिया। राजीव गांधी ने सपने को पूरा करने का वक्त 1993 तक का निकाला था। लेकिन असमय राजीव गांधी की मौत के बाद सियासत इतनी पथरीली हो गई कि गोसीखुर्द भी देश को अभी तक नहीं मिला। जिस बांध को 372 करोड़ रुपए में पूरा होना था, वह चींटी की रफ्तार से बनाता हुआ हाथी की डकार लेने लगा। 1995 में पीवी नरसिंह राव यहां पहुंचे तो गोसीखुर्द 3768 करोड़ का हो गया। 2001 में अटल बिहारी वाजपेयी ने 8734 करोड़ कीमत लगाई। 2006 में मनमोहन सिंह ने 12 हजार करोड़ कीमत आंकी और सत्ता जाने से पहले 2013 में गोसीखुर्द बांध की कीमत 15 हजार करोड़ पहुंच गई।

हर पार्टी का नेता, मंत्री, विधायक , पार्षद गोसीखुर्द का ठेकेदार हो गया। हर ठेके में करोड़ों के वारे-न्यारे हुए। साढ़े पांच हजार करोड़ अभी तक गोसीखुर्द डकार चुका है। लेकिन केंद्रीय जल आयोग को कहना पड़ा कि जितना दिया गया, जब उतना भी काम नहीं हुआ तो फिर बाकी साढ़े नौ हजार करोड़ क्यों दिए जाएं। मौका फिर चुनाव का है तो हर कोई उम्मीद जगाने में लगा है कि बाकी पैसा भी वह जीतते ही ले आएगा और हर उजड़ने वाले की जिंदगी संवार देगा।

उजड़ने वालों के बीच ढांढ़स बंधाने वाले और संघर्ष के लिए तैयार करते समाजसेवी विलास भोंगाडे की मानें तो गोसीखुर्द परियोजना के एलान के बाद तो दो पीढ़ियां वोट डालने के लिए जन्म ले चुकी हैं। जो पीढ़ी इस साल 18 की हुई, यानी पहली बार वोट डालेगी, उसकी त्रासदी देख लीजिए। वही लड़के तीस रुपए रोज पर रिक्शे पर लाउडस्पीकर पर माइक से चिल्लाते हुए घूम रहे हैं कि 15 तारीख वोटिंग का दिन है। और इसी दिन गांव खाली करना है। इस बार पोलिंग बूथ पाथरी गांव में नहीं बनेगा, बल्कि पुनर्वास गांव में बनेगा। यानी हर दिन तीस रुपए भी पीढ़ियों की जिंदगी को चंद रुपयों के मुआवजे तले दफन करने को तैयार है। दूसरा कोई रास्ता नहीं है।

लूट का अर्थशास्त्र सिर्फ गोसीखुर्द बांध परियोजना के ठेके पर नहीं टिका है बल्कि मुआवजे का गणित भी हर किसी को एक-दो बरस से ज्यादा जीने का अधिकार देने को तैयार नहीं है। पाथरी गांव के इलाके में एक एकड़ खेती की जमीन की कीमत है, आठ से दस लाख रुपए। लेकिन मुआवजा दिया जा रहा है तीस से चालीस हजार रुपए। संजय देशमुख के पास साढ़े छह एकड़ खेती की जमीन थी। मुआवजा मिला दो लाख पचास हजार। घर मिट्टी का था तो उसके एवज में चालीस हजार रुपए मिले। जो नई जगह दी, वहां घर बनाने में लग गए सवा लाख रुपए। पानी के लिए ट्यूबवैल लगाना पड़ा जो पचास हजार में लगा। हाथ में बचे सवा लाख रुपए। बैंक को देकर छह लाख रुपए का ट्रैक्टर खरीद लिया। किसानी छोड़ अब ट्रैक्टर ड्राइवर होकर जीना है। बंैक को हर महीने तीन हजार रुपए देने हैं। कमाई हर दिन की 120 रुपया है। यानी हर दिन ट्रैक्टर चलता रहे तो हर दिन बीस रुपए और छह सौ रुपए महीने में जिंदगी चलानी है। इस अर्थशास्त्र से कौन-सा गांव शहर होगा या कौन-सा विकास रोजगार या जीने की सुविधा देगा।

पहली बार समूचे महाराष्ट्र में हर राजनीतिक दल, हर उम्मीदवार विकास शब्द कुछ इस तरह रख रहा है मानो यह जादुई शब्द हर किसी की जिंदगी संवार देगा। जबकि विकास की इसी अविरल धारा में सिर्फ गोसीखुर्द ही नहीं बल्कि 28 सिंचाई परियोजना तले सत्तर हजार करोड़ का घोटाला हो गया। पाथरी गांव के चार सौ परिवार ही नहीं बल्कि समूचे महाराष्ट्र के तीन हजार गांवों के दो लाख परिवार या तो मुआवजे का आखिरी दाना खाकर मरने की कगार पर हैं या फिर पारंपरिक काम छोड़ शहरों की गलियों से लेकर सड़क तक पर एक जून की रोटी के जुगाड़ में खामोशी से मरे जा रहे हैं, क्योंकि चुनावी लोकतंत्र को जिंदा रखना है।