राजनेता, राजनीतिक पंडित, सर्वेक्षण, मतदाता सब कह रहे हैं इन दिनों कि नरेंद्र मोदी को हराना मुश्किल नहीं, नामुमकिन है। हो सकता है, सही कह रहे हों। इतने लोग कैसे गलत हो सकते हैं। लेकिन दिल्ली में कई लोग ऐसे हैं, जिनको याद आ रहा है 2004 वाला लोकसभा चुनाव, जब सब गलत साबित हुए। मेरी भी कुछ यादें ताजा हो गई हैं बीस वर्ष पहले के उस चुनाव की, जब मुझे खुद पूरा विश्वास था कि अटल बिहारी वाजपेयी को सोनिया गांधी किसी भी हाल में हरा नहीं सकेंगी। इतना पक्का विश्वास था मुझे कि सीएनएन पर मैंने यह भविष्यवाणी कर भी दी थी।

याद आया मुझे कि परिणाम आने से एक दिन पहले मैं अपनी बहन के घर खाना खाने गई थी, जहां कुछ भाजपा समर्थक थे, कुछ राजनीतिक पंडित भी। मेरी बहन को ‘टैरो कार्ड’ पढ़ने का हुनर है। सो, हम सबने उसे मजाक में अटलजी के भविष्य के बारे में पत्ते पढ़ने को कहा था। उसने पत्ते जब खोले इस सवाल को पूछ कर, तो जवाब मिला कि अटलजी के भविष्य में निराशा दिख रही है।

अगले दिन जब परिणाम आए और ऐसा ही जब हुआ, तो हम हैरान रह गए थे। उस लोकसभा चुनाव की थोड़ी-बहुत झलक दिख तो रही है इस चुनाव में, लेकिन एक फर्क जरूर है कि उस 2004 वाले चुनाव में कांग्रेस पार्टी पूरी तरह एक निजी कंपनी में परिवर्तित नहीं हुई थी। सोनिया गांधी के आसपास कई वरिष्ठ राजनेता थे, जिनकी राजनीतिक जड़ें मजबूत थीं। कुछ मुख्यमंत्री थे, कुछ पूर्व मंत्री और कई सारे ऐसे लोग, जो जमीनी हकीकत से जुड़े हुए थे। इस बार ऐसा नहीं है।

प्रधानमंत्री ने पिछले सप्ताह संसद में जब परिवारवाद पर डट के हमला किया, उनकी बात में दम दिखा। सोनिया गांधी ने अपने परिवार को सत्ता में वापस लाने के लिए कांग्रेस की जड़ें कमजोर की हैं, अपने को दरबारियों से घेर कर। जो कभी देश का सबसे ताकतवर राजनीतिक दल हुआ करता था, अब इतने वर्षों से दरबार में तब्दील हो चुका है।

राहुल गांधी जितनी भी यात्राओं पर निकलें, जितनी बार दिखाने की कोशिश करें अपने आप को कोयला मजदूरों और सब्जीवालों से गले मिलते हुए, बात इसलिए नहीं बन रही है कि ऐसा लगता है, इन यात्राओं से कोई लाभ नहीं हुआ है कांग्रेस को। कारण सबसे बड़ा यही है कि राहुल के करीबी सलाहकारों में ज्यादातर ऐसे लोग हैं, जिनमें राजनीतिक समझ इतनी थोड़ी है कि मोदी का जब सोशल मीडिया पर मुकाबला करते हैं, नुकसान करने के बदले उनकी मदद ही करते हैं।

मोदी ने लोकसभा में जब कहा कि दस साल विपक्ष में रहने के बाद भी ऐसा लगता है कि विपक्ष की भूमिका क्या होनी चाहिए, शायद उनको ही सिखाना पड़ेगा। विपक्ष में भारतीय जनता पार्टी जब थी तो उसने अपनी अधिकतर शक्ति पार्टी की नींव को मजबूत करने में लगाई। गुजरात, मध्यप्रदेश, राजस्थान और कर्नाटक में मुख्यमंत्री ऐसे थे, जो अपने बल पर जीत सकते थे। किसी एक राजनेता या किसी एक परिवार के नाम पर नहीं।

कांग्रेस पार्टी भी शक्तिशाली बनाई जा सकती थी पिछले दस वर्षों में, लेकिन ऐसा करने के बदले सबसे ज्यादा ध्यान दिया है कांग्रेस ने सोनिया गांधी के वारिसों की छवि चमकाने पर। याद कीजिए कि 2019 में इस दल का तुरुप का पत्ता कोई नई नीति, कोई नई रणनीति नहीं थी, प्रियंका गांधी थीं उनका तुरुप का पत्ता।

कांग्रेस की दूसरी कमजोरी यह है कि पिछले एक दशक में उसने अपनी रणनीति थोड़ी-सी भी नहीं बदली है। पिछले दो लोकसभा चुनावों में राहुल गांधी की कोशिश यही रही कि किसी न किसी तरह मतदाताओं को समझा पाएं कि मोदी एक भ्रष्ट राजनेता हैं जो सिर्फ अपने मुट्ठी भर अमीर दोस्तों के लिए काम कर रहे हैं।

अंबानी, अडाणी के नाम 2014 में भी लाए थे अपने भाषणों में और 2019 में ‘चौकीदार चोर है’ का नारा साथ में जोड़ दिया था। बार-बार कहा कि मोदी ने अनिल अंबानी की जेब में तीस हजार करोड़ रुपए रफाल सौदे से चुरा कर डाल दिए हैं। इतना भी नहीं मालूम था राहुल गांधी को कि अनिल अंबानी के व्यवसाय का बुरा हाल था उस वक्त। आज भी है। अब अंबानी के बदले अडाणी का नाम लेते हैं, लेकिन मोदी को बदनाम करने से आगे अब भी नहीं निकल पाए हैं।

इंडियन एक्सप्रेस से बातचीत में पिछले सप्ताह प्रशांत किशोर ने कहा था कि ऐसा बिल्कुल नहीं है कि भारतीय जनता पार्टी की कमजोरियां नहीं हैं। समस्या यह है कि विपक्ष आलसी हो गया है। याद दिलाया इस राजनीतिक रणनीतिकार ने कि नोटबंदी के बाद मोदी कितने कमजोर दिख रहे थे।

याद दिलाया कि कोविड के दौर में जब लोग लाखों की संख्या में मरने लगे थे और टीकों की तैयारी तक नहीं थी भारत सरकार में, तो मोदी कितने कमजोर दिखे थे। मौके और भी गिनाए प्रशांत किशोर ने जब विपक्ष ने असली मुद्दों को उठाने के अवसर खोए थे अपनी नाकामी के कारण। ठीक कह रहे हैं प्रशांत किशोर, लेकिन शायद अब बहुत देर हो चुकी है।

भविष्यवाणी करने से मैं अब दूर रहती हूं, लेकिन इस बार जो होनेवाला है, वह इतना साफ दिख रहा है कि कहने पर मजबूर हूं कि आनेवाले लोकसभा चुनावों में हम वही दृश्य देखने वाले हैं जो हमने 2014 में देखे थे और फिर 2019 में। राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष में सिर्फ कांग्रेस पार्टी है, जिसका नामो-निशान हर राज्य में है, लेकिन अब भी दरबारियों से घिरे हुए हैं इस दल के आला नेता। अब भी न कोई नया मुद्दा उठाया गया है, न कोई नया संदेश।