एक सामाजिक रोग है जो मैंने सिर्फ अपने इस भारत महान में पाया है। मैंने इस बीमारी का नाम रखा है : नकारात्मकता। इसके असर देखने वालों ने देखे होंगे हाल में समाप्त हुए चुनावों में विशेष तौर पर विपक्षी नेताओं के प्रचार में। मिसाल के तौर पर आपने अगर राहुल गांधी के भाषण ध्यान से सुने होंगे तो याद होगा कितनी बार उन्होंने वादा किया कि जाति जनगणना वो जरूर कराएंगे उनकी सरकार बन जाने के फौरन बाद। इस डर से कि उनकी बात कुछ मतदाताओं को समझ में ना आई होगी उन्होंने स्पष्ट किया कि ‘जितनी आबादी उतना हक’।
यह सोच नकारात्मकता नहीं तो क्या है? जो वास्तव में भारत को एक विकसित देश बनते देखना चाहते हैं वे लोग उल्टा कहेंगे कि हमको जल्दी से जल्दी देश में इतना धन, इतना रोजगार पैदा करना चाहिए ताकि गरीबी और बेरोजगारी का नामोनिशान मिटाया जाए। समस्या यह है कि अपने देश में अधिकतर राजनेता ऐसे मिलेंगे आपको जो इस तरह के गलत किस्म के वादे करते हैं चुनावों के मौसम में जब आरक्षण शब्द बहुत इस्तेमाल होता है। अब ध्यान दीजिए कि महाराष्ट्र में क्या हो रहा है। इस राज्य में मराठे आरक्षण मांग रहे हैं अपने आपको पिछड़ी जातियों में गिन कर, अपने आपको कुनबी समाज में शामिल करके। आरक्षण हासिल करने के लिए मराठाओं के नए राजनेता अनशन भी कर चुके हैं।
मजे की बात यह है कि मराठे महाराष्ट्र के सबसे ताकतवर लोग हैं। मैंने जब मराठाओं के नए हीरो, मनोज जरांगे पाटिल के एक समर्थक से पूछा कि वे आरक्षण को क्यों इतना बड़ा मुद्दा बना रहे हैं तो जवाब यह मिला, ‘जी वो इस मांग को इसलिए रख रहे हैं क्योंकि अब सेना में भी भर्तियां होती हैं पहले उनकी जिनके लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण है। सो मराठाओं को बेदखल किया जाता है। क्या ये अन्याय नहीं है? क्या उनको भी आरक्षण नहीं मिलना चाहिए’।
मैंने इस व्यक्ति से बहस नहीं की, लेकिन आपसे पूछना चाहती हूं कि क्या समय नहीं आ गया है हर किस्म के आरक्षण को समाप्त करने का? न तो सरकारी नौकरियों में किसी जाति के लिए आरक्षण होना चाहिए, न ही शिक्षा संस्थाओं में, न सेना में। जिन जातियों को सदियों से शिक्षा से दूर रखा गया है उनके लिए कुछ खास चीज करनी हो तो सरकार की तरफ से स्कूल और कालेज में जाने के लिए मदद मिलनी जरूर चाहिए आर्थिक तौर पर, लेकिन आरक्षण नहीं। तथाकथित पिछड़ी जातियों के लिए तो बिल्कुल बंद हो जाना चाहिए।
जबसे पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने का काम हमारे राजनेताओं ने किया है वोट की दौड़ में देश का नुकसान हुआ है लाभ नहीं। आरक्षण के वादे इतनी जातियों से किए गए हैं कि सर्वोच्च न्यायालय ने हस्तक्षेप किया।जाति जनगणना का राग सबसे ज्यादा सुनने को मिल रहा है बिहार में। नीतीश कुमार की लोकप्रियता इससे बेशक बढ़ गई हो इस वादे के बाद, लेकिन क्या मुख्यमंत्री जी बिहार के रोशन भविष्य के लिए ऐसा कर रहे हैं या वोट के लिए? आज भी बिहार की गिनती देश के सबसे गरीब, पिछड़े राज्यों में होती है। बिहार में बेरोजगारी इतनी ज्यादा है कि वहां के लोग अपने घरों से दूरदराज प्रांतों में जाते हैं रोजगार की तलाश में। और नौकरियां भी ऐसी जो स्थानीय लोग करने को तैयार नहीं हैं यानी घरेलू नौकर बनना।
आरक्षण समाप्त करने की बात जो मैंने इस लेख में की है वह 2014 के लोक सभा चुनावों में सुने गए एक वाक्य को याद करके। भारतीय हिंदू विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग के छात्रों ने लंबी बातचीत में कहा कि वे नरेंद्र मोदी को वोट दे रहे हैं इस वास्ते कि उनको विश्वास है कि आरक्षण को वो जरूर समाप्त करने की कोशिश करेंगे। इन छात्रों ने मुझे बताया था उस दिन कि उनके विश्वविद्यालय में आरक्षण का रोग इतना गंभीर हो गया है कि काबिल विद्यार्थियों के बदले जाति के आधार पर ज्यादा बच्चे दाखिला लेते हैं।
जिन देशों में असली विकास और असली समृद्धि देखी है मैंने उन देशों में आरक्षण के बदले काबिलियत की कदर की जाती है। उन देशों में गरीबी हटाई गई है धन पैदा करके। बेरोजगारी खत्म की गई है रोजगार के अवसर बढ़ा कर। ऐसा जब तक हम भारत में नहीं करेंगे तब तक हमारी गिनती होती रहेगी दुनिया के सबसे गरीब देशों में। लेकिन ऐसी बातें हमारे राजनेता कहने से डरते हैं। वे जानते हैं कि अगर उन पर गरीबों के खिलाफ होने का आरोप लग गया तो वो चुनाव जीत नहीं पाएंगे, क्योंकि हमारे देश में अधिकतर मतदाता आज भी गरीब हैं और उन जातियों से हैं जिनको पूरा भरोसा है कि उनकी तरक्की तब ही होगी, जब उनको आरक्षण मिलेगा।
आरक्षण लेने की इस दौड़ में अब स्थिति यह है कि ऊंची जातियों के लोग भी अपने आपको पिछड़ी जाति की श्रेणी में शामिल करवाने में जुट गए हैं। मराठा इन दिनों कोशिश कर रहे हैं कुनबी जाति के साबित हों ताकि आरक्षण मिले सरकारी नौकरियों में। नतीजा यह कि पिछली जाति के राजनेता नाराज हो गए हैं और उनके खुलकर विरोध करने लग गए हैं मराठाओं की मांग का।
कहने का मतलब यह है कि आरक्षण अब तमाशा बन गया है। ऐसा नकारात्मक ढोंग बन गया है जिससे देश का सिर्फ नुकसान होगा। कब आएगा वह दिन जब देश के रहनुमा इस बात को कहने की हिम्मत दिखाएंगे?सब जानते हैं कि आरक्षण हटाने की जरूरत है लेकिन ऐसा कहने से डरते हैं इसलिए कि चुनावों में हारने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। सो अच्छा हुआ कि इस बार वो लोग हारे हैं जिन्होंने आरक्षण के वादे किए थे।