रोहित कुमार
स्वाद एक अर्जित अनुभव है। मगर किसी भी स्वाद का निर्धारित या आत्यंतिक स्वरूप नहीं होता। इस तरह स्वाद अपने आप में एक स्वतंत्र अनुभव है। एक ही वस्तु के स्वाद का अनुभव सबका एक जैसा नहीं होता। हर किसी का अनुभव अलग और अपना होता है। इसलिए स्वाद अंतिम रूप से अनिर्वचनीय हो जाता है। दरअसल, जीभ जिन रसों की अभ्यस्त हो जाती है, वही व्यक्ति का स्वाद बन जाता है। वही स्वाद उसे सदा पसंद आता है।
बचपन से जिन चीजों को खाने-पीने की आदत पड़ जाती है, उन्हीं का स्वाद पसंद आता है। उनसे इतर स्वाद को जीभ अस्वीकृत कर देती है। जो वस्तु दूसरों के लिए सुस्वादु हो सकती है, उसी को खाकर किसी को उबकाई भी आ सकती है। वैसे, शरीर का अपना एक नैसर्गिक स्वाद-स्वभाव है। शरीर को बहुत सारी चीजें चाहिए ही नहीं होती हैं। मगर हम अपनी स्वादेंद्रिय के प्रभाव में बहुत सारी ऐसी चीजें खा-खा कर उसे अपने रसाग्रह का अभ्यस्त कर देते हैं। फिर शरीर उन चीजों की मांग करने लगता है।
रस का बोध
आस्वाद थोड़ा व्यापक स्वाद का अनुभव है। यह केवल जीभ का अनुभव नहीं होता। इसमें हमारे कान, नाक, आंखें भी रस ग्रहण करती हैं। आस्वाद एक प्रकार से रसों का बोध है। किसी चीज को देख कर हमारे भीतर जो भाव जागता, जिन रसों का संचार होता है, वही आस्वाद है। मगर आस्वाद भी सबका भिन्न होता है। यह भी एक प्रकार से अर्जित बोध है।
इसीलिए किसी दृश्य, किसी चित्र को देख कर, किसी कविता को पढ़ कर हर किसी में एक ही प्रकार से भाव नहीं उभरते। उन पर सबकी प्रतिक्रिया एक-सी नहीं होती। दरअसल, आस्वाद भी बचपन से धीरे-धीरे अर्जित किया जाता है। हमारे भीतर चीजों को देखने का नजरिया बहुत सारी चीजों से बनता है। उसके बनने में वैचारिक वातावरण, तर्क करने का तरीका, आस्था, विश्वास, सामाजिक-सांस्कृतिक माहौल आदि काम करते हैं। इसलिए स्वाद और आस्वाद में बहुत सारे आग्रह भी सहज भाव से भर जाते हैं।
स्वाद का वैश्वीकरण
हमारा बहुत सारा स्वाद-स्वभाव बाजार ने विकसित कर दिया है। जो रस-भाव पहले परिवार और समाज विकसित करता था, वह अब बचपन से ही बाजार बनाने लगता है। पहले हर किसी के भोजन-आस्वाद में स्थानीयता बसी होती थी। अब स्वाद का भी वैश्वीकरण हो गया है। बाजार हमें स्वाद के नए-नए माध्यम सुझाता रहता है। पारंपरिक व्यंजनों का स्वाद अब युवा पीढ़ी भूल चुकी है। उसकी जीभ पर बाजार का स्वाद चढ़ चुका है।
उसमें भी बेहतर से बेहतर स्वाद देने के दावे हैं। विज्ञापनों की लड़ाई है। तय करना मुश्किल है कि किस कंपनी का बना डिब्बाबंद भोजन सबसे बेहतर है। स्वाद के भी अब ब्रांड हैं। स्वाद भूमंडलीकृत दुनिया में वर्चस्व की लड़ाई में पिला पड़ा है। इसी तरह हमारा आस्वाद भी बाजार तय करने लगा है। किस चीज को किस नजर से देखना है, किस चीज का क्या अर्थ हो सकता है, यह सब बाजार तय करने लगा है। इस तरह व्यक्ति का अपना कोई स्वाद और आस्वाद नहीं रह गया है। इनके प्रति अपना कोई वैचारिक आग्रह नहीं रह गया है। बाजार ने एक प्रकार की सैद्धांतिक शून्यता का वातावरण बना दिया है।
स्वाद और आस्वाद से ऊपर की चीज है अस्वाद। जब किसी चीज के स्वाद के प्रति आग्रह रह ही न जाए, किसी चीज को देखने का कोई आग्रहपूर्ण नजरिया रह ही न जाए, तब आता है अस्वाद। योगदर्शन स्वाद निग्रह, अस्वाद पर जोर देता है। दरअसल, स्वाद हमें झमेले में फंसाता है। आस्वाद हमें झगड़ों के लिए प्रेरित करता है। अस्वाद इन सबसे मुक्त करता है। जैन मुनि स्वाद लेकर भोजन नहीं करते। वे शरीर के पोषण के लिए खाते हैं।
स्वाद के लिए नहीं खाते। करपात्री लोग भी अंजुरी में जितना भोजन आ जाए, उतना भर खाते हैं। उस अंजुरी में ही सब कुछ भर लेते हैं। सारी सामग्री मिला लेते हैं। उसे हबर-हबर खा लेते हैं। उन्हें भी स्वाद के प्रति आग्रह नहीं होता। अगर हम केवल स्वाद के लिए खाना छोड़ दें, तो बहुत तरह के झमेलों से मुक्त हो सकते हैं। स्वाद से बीमारियों का जन्म होता है।
रसना ही हमारे उदर में उपद्रव पैदा करती है। मगर बाजार के मतिभ्रम में हम भोजन पोषण के लिए नहीं, स्वाद के लिए करते हैं। स्वाद के लिए दर-दर भटकते फिर रहे हैं। भोजन पकाने में रोज नए-नए प्रयोग कर रहे हैं। जबकि शरीर को तो बहुत सारी चीजों की जरूरत ही नहीं होती। शरीर को तो नमक की भी जरूरत नहीं, चाय, काफी, मसालों की जरूरत भी नहीं। अस्वाद से ही वस्तुओं का मूल स्वाद आता है।
घालमेल का विचार
मगर हम हैं कि हर चीज का स्वाद बदलने पर तुले हुए हैं। हमारी जीभ तेल, नमक, मसालों की ऐसी गुलाम हो चुकी है कि उसे किसी भी चीज का वास्तविक स्वाद पता ही नहीं है। हमें वास्तविक स्वाद अब पसंद ही नहीं। इसीलिए हम खाद्य और अखाद्य का भेद भूल चुके हैं। क्या खाना चाहिए और क्या नहीं खाना चाहिए, अंतर ही नहीं कर पा रहे। बल्कि खाद्य और अखाद्य का ऐसा घालमेल कर रखा है हमने कि खाद्य को भी अखाद्य बना दिया है।
शास्त्र सिद्ध है कि आहार का विचार से गहरा संबंध होता है। योगदर्शन शरीर शुद्धि के लिए सबसे अधिक आहार शुद्धि पर जोर देता है। आहार के प्रति अस्वाद का भाव पैदा हो जाए, तो विचार की शुद्धता भी पैदा हो। चीजों को देखने का नजरिया बदले। चीजों को देखने का सम-रस भाव पैदा हो। वैचारिक संकीर्णताओं के झड़ जाने के बाद ही समाज में समरसता पैदा होती है।
मनुष्य का जीवन समरस तभी बनता है, जब उसमें अस्वाद की वृत्ति पैदा हो जाए। स्वाद और आस्वाद वैचारिक झगड़े पैदा करते हैं, अस्वाद उन झगड़ों को मिटाता है। गांधी ने तो अस्वाद व्रत ही लिया था। कभी उनके वर्धा आश्रम जाएं, तो वहां भोजन करने की विधियां लिखी हैं। वे अस्वाद को पल्लवित करती हैं। पहले भोजन के प्रति अस्वाद का भाव जागना जरूरी है, फिर हमारा आस्वाद शुद्ध हो ही जाएगा।