Apurva Vishwanath 

सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संविधान पीठ ने गुरुवार (27 अगस्त, 2020) को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के आरक्षण कोटे के उप-वर्गीकरण पर कानूनी बहस को फिर से खोल दिया है, जिसे आमतौर पर SC और ST के लिए “कोटा के भीतर कोटा” कहा जाता है।

सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों के बीच समान प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने के लिए राज्य सरकारों को कोटे के तहत कोटा देने को मंजूरी देते हुए मामले को सात जजों की संविधान पीठ को सौंप दिया। कोर्ट ने ऐसा इसलिए किया क्योंकि 2005 के एक फैसले में, सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की बेंच द्वारा ही फैसला दिया गया था कि एससी/एसटी को मिले आरक्षण का उप वर्गीकरण का अधिकार राज्यों को नहीं है।

चूंकि मौजूदा संविधान पीठ भी पांच जजों की ही है, इसलिए समान संख्या वाली पीठ पुराने फैसले को नहीं पलट सकती है। इसलिए कोर्ट ने मामले को सात जजों की संविधान पीठ को भेज दिया। ताकि मामले पर ठोस और अंतिम फैसला आ सके। अब जब मुख्य न्यायाधीश सात जजों की संविधान पीठ का गठन करेंगे, तब मामले की सुनवाई होगी और दोनों फैसलों पर विचार किया जाएगा।

एससी कोटे में उप-वर्गीकरण क्यों?: कई राज्यों का यह तर्क रहा है कि आरक्षण होने के बावजूद अनुसूचित जातियों के तहत आने वाली कई जातियों के लोग आरक्षण का लाभ नहीं उठा सके हैं और वो आज भी दूसरी जाति के मुकाबले सरकारी नौकरी या शिक्षा पाने से वंचित हैं। अनुसूचित जातियों के भीतर यह गैर बराबरी कई रिपोर्टों में रेखांकित की गई है। इसी से निपटने के लिए स्पेशल कोटा तैयार किया गया है।

उदाहरण के लिए, आंध्र प्रदेश, पंजाब, तमिलनाडु और बिहार में, सबसे कमजोर दलितों के लिए विशेष कोटा शुरू किया गया था। 2007 में बिहार ने अनुसूचित जाति के भीतर जातियों की पहचान करने के लिए महादलित आयोग का गठन किया था।

तमिलनाडु में जस्टिस एम. एस. जनार्थनम की रिपोर्ट के अनुसार, एससी कोटे के भीतर 3% कोटा अरुंधतिअर जाति को दिया जाता है। राज्य में एससी आबादी का 16% होने के बावजूद अरुधंतिअर जाति के लोगों के पास केवल 0-5% नौकरियां ही हैं।

साल 2000 में न्यायमूर्ति रामचंद्र राजू के निष्कर्षों के आधार पर ही आंध्र प्रदेश की विधायिका ने अनुसूचित जाति के तहत 57 उप-समूहों को वर्गीकृत करते हुए एक कानून पारित किया था और उनकी आबादी के अनुपात में शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में 15% एससी कोटा का बंटवारा किया था।

हालांकि, 2005 में सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून को असंवैधानिक बताते हुए इस पर रोक लगा दी थी और कहा था कि राज्यों को ये अधिकार नहीं है। कोर्ट ने कहा था कि राज्यों के पास एससी और एसटी की पहचान करने वाली प्रेसीडेंशियल लिस्ट के साथ छेड़छाड़ करने की शक्ति नहीं है। पंजाब में भी ऐसे कानून हैं जिसके तहत बाल्मीकि और मज़हबी सिखों को कोटा के अंदर वरीयता दी गई है; इसे भी सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी और अंततः कोर्ट का नवीनतम आदेश आया है।

प्रेसीडेंशियल लिस्ट क्या है?: संविधान में एससी और एसटी को समानता देने के लिए विशेष उपचार का प्रावधान किया गया है, इसके तहत किसी खास जाति या जनजाति का उल्लेख नहीं किया गया है बल्कि उनकी जगह अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति कहा गया है। यह शक्ति सिर्फ केंद्रीय कार्यकारी- राष्ट्रपति के पास निहित है।

अनुच्छेद 341 के अनुसार, राष्ट्रपति द्वारा अधिसूचित जातियों को एससी और एसटी कहा जाता है। एक राज्य में SC के रूप में अधिसूचित जातियां दूसरे राज्य में SC नहीं भी हो सकती हैं। ये अलग-अलग राज्यों में विवादों को रोकने के लिए अलग-अलग बनाई गई हैं। ताकि किसी जाति विशेष को आरक्षण दिया गया है या नहीं, ये पता चल सके। केंद्रीय सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय की वार्षिक रिपोर्ट 2018-19 के अनुसार, देश में 1,263 एससी जातियां थीं। अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड, अंडमान निकोबार द्वीप और लक्षद्वीप में किसी भी जाति को अनुसूचित जाति में शामिल नहीं किया गया है।

2005 के ई. वी. चिनैय्या बनाम आंध्र प्रदेश और अन्य राज्यों के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया था कि किसी जाति को अनुसूचित जाति के रूप में शामिल करने या बहिष्कृत करने की शक्ति केवल राष्ट्रपति के पास है, और राज्य उस सूची के साथ छेड़छाड़ नहीं कर सकते। आंध्र प्रदेश ने तब कोर्ट में उस कानून की कॉपी जमा की थी जिसमें कहा गया था कि राज्यों को शिक्षा के विषय पर कानून बनाने, नामांकन में आरक्षण देने की शक्ति राज्यों के पास है। हालांकि, अदालत ने इस तर्क को खारिज कर दिया था। कोर्ट ने कहा था कि संविधान सभी अनुसूचित जातियों को एक एकल सजातीय समूह मानता है।