सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक हालिया फैसले में स्पष्ट किया है कि संसद या किसी राज्य की विधानसभा अगर कोर्ट के आदेश के बाद कोई कानून बनाती है, तो उसे अदालत की अवमानना नहीं माना जा सकता। जब तक कोई संवैधानिक अदालत उस कानून को अमान्य नहीं ठहराता, तब तक वह कानून पूरी तरह वैध और लागू माना जाएगा।

यह फैसला न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना और एस.सी. शर्मा की पीठ ने 15 मई को सुनाया। मामला 2012 में दायर एक अवमानना याचिका से जुड़ा था, जिसमें यह आरोप लगाया गया था कि छत्तीसगढ़ सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन नहीं किया। कोर्ट ने 2011 में ‘सलवा जुडूम’ जैसी निगरानी समितियों को खत्म करने और विशेष पुलिस अधिकारियों (SPO) के तौर पर आदिवासियों को हथियार देने पर रोक लगाने का निर्देश दिया था।

छत्तीसगढ़ सरकार ने नहीं माना था कोर्ट का आदेश

इसके बावजूद छत्तीसगढ़ सरकार ने उसी साल सितंबर में ‘छत्तीसगढ़ सहायक सशस्त्र पुलिस बल अधिनियम, 2011’ पारित किया, जिसके तहत माओवादी हिंसा से निपटने के लिए एक सहायक बल तैयार किया गया। इसमें पुराने SPO को शामिल कर उन्हें वैध करार दे दिया गया।

यह याचिका दिल्ली यूनिवर्सिटी की पूर्व प्रोफेसर नंदिनी सुंदर, लेखक रामचंद्र गुहा और आंध्र प्रदेश के पूर्व जनजातीय मामलों के सचिव ई.ए.एस. शर्मा ने दाखिल की थी। कोर्ट ने अपने फैसले में कहा, “अगर किसी अदालत के आदेश के बाद कोई विधानसभा कानून बनाती है, तो वह आदेश की अवमानना नहीं मानी जाएगी। जब तक वह कानून संविधान विरोधी घोषित नहीं किया जाता, तब तक उसे ‘कानून का बल’ प्राप्त रहेगा।”

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सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि हर राज्य विधानमंडल के पास कानून बनाने की पूरी स्वतंत्रता है, लेकिन उसकी वैधता पर फैसला करने का अधिकार संवैधानिक अदालतों के पास है। कोर्ट ने दो टूक कहा कि केवल कोई कानून बनाने को अदालत की अवमानना कहना उचित नहीं है, भले ही वह कानून कोर्ट के पुराने फैसले को चुनौती देता हो।

फैसले में कहा गया कि यह सब भारत के संविधान में वर्णित ‘पावर्स के विभाजन’ (Separation of Powers) की मूल भावना का हिस्सा है। यानी न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका – सभी की अपनी-अपनी सीमाएं और शक्तियां हैं, और इनका सम्मान होना चाहिए।