भारत के लक्षद्वीप द्वीपसमूह के कई द्वीप 14 साल में समुद्र में समा जाएंगे। आइआइटी, खड़गपुर के समुद्र विज्ञान संस्थान की ओर से किए गए एक अध्ययन में यह बात कही गई है। इसकी रिपोर्ट अंतरराष्ट्रीय पत्रिका ‘ऐलसेवियर’ के ताजा अंक में छपी है। रिपोर्ट में द्वीप के प्रवाल समूहों को भारी नुकसान पहुंचने का भी जिक्र किया गया है। रिपोर्ट में जान का नुकसान कम करने के लिए द्वीप के लोगों को सबसे सुरक्षित द्वीप पर बसाने की सिफारिश की गई है।

आइआइटी, खड़गपुर के समुद्र विज्ञान संस्थान और केंद्र सरकार के डिपार्टमेंट आॅफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी के वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं की टीम ने अपने अध्ययन में पाया है कि जलवायु परिवर्तन से लक्षद्वीप में हर साल समुद्र का स्तर 0.4 मिलीमीटर से 0.9 मिलीमीटर तक बढ़ेगा। इससे द्वीप के कई हिस्से समुद्र में समा जाएंगे। रिपोर्ट में वर्ष 2035 तक 70 से 80 फीसदी जमीन समुद्र के गर्भ में समाने का अंदेशा जताया गया है।

आइआइटी खड़गपुर के समुद्र विज्ञान संस्थान के प्रोफेसर प्रसाद के भास्करन बताते हैं, ‘लक्षद्वीप में कई ऐसे छोटे द्वीप हैं, जो जमीन की पतली पट्टी के तौर पर ही बच जाएंगे। इनमें सबसे ज्यादा नुकसान चेतलाट द्वीप को होगा। उसका 82 फीसद हिस्सा पानी में डूब जाएगा।’ रिपोर्ट में कहा गया है कि राजधानी कावारत्ती का 70 फीसद हिस्सा भी प्रभावित होगा। अगाती स्थित द्वीप के एकमात्र हवाईअड्डे पर तो नुकसान का असर अभी से नजर आने लगा है। रिपोर्ट में सरकार से बिप्रा, मिनिकॉय, कालपेनी, कावारत्ती, अगाती, कल्तान, कदमात और अमिनी द्वीप को बचाने के लिए तटों की सुरक्षा के ठोस कदम उठाने की सिफारिश की गई है। एंड्रोथ द्वीप को सबसे कम 30 फीसद नुकसान होने की आशंका है। लक्षद्वीप की ज्यादातर आबादी को वहां बसाया जा सकता है। रिपोर्ट के मुताबिक, अरब सागर में समुद्र का जलस्तर बढ़ने की दर बंगाल की खाड़ी के मुकाबले तेज है। बंगाल की खाड़ी में ताजा पानी वाली कई नदियां मिलती हैं। इस वजह से उसके पानी का खारापन कम है। यही वजह है कि अंडमान निकोबार द्वीप समूह के मुकाबले लक्षद्वीप को ज्यादा खतरा है।

तटवर्ती इलाकों के डूबने का व्यापक सामाजिक-आर्थिक असर होने का अंदेशा है। समुद्र के जलस्तर में वृद्धि की वजह से तटीय इलाकों में लोग सबसे अधिक प्रभावित हो सकते हैं। कई द्वीपों पर आवासीय इलाके तट के बेहद नजदीक हैं। वैज्ञानिक और जलवायु विशेषज्ञों की रिपोर्ट के मुताबिक, द्वीप पर मानव गतिविधियों में वृद्धि के कारण यहां पर कई नए खतरे पैदा होंगे। पर्यावरण विशेषज्ञों का कहना है कि लक्षद्वीप को विकास की सख्त जरूरत है, इन विकास परियोजनाओं को जलवायु परिवर्तन के नजरिये से देखना होगा। लगभग 70 हजार लोगों की आबादी वाला लक्षद्वीप भले ही पर्यटकों के लिए स्वर्ग नजर आता हो, हकीकत इसके उलट है। बीते दिनों में सरकार की तरफ से लक्षद्वीप के विकास को लेकर ऐसी योजनाओं का प्रस्ताव आया है, जिनसे पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान होने और स्थानीय लोगों के अधिकारों का हनन होने की आशंका बढ़ गई है।

वरिष्ठ वैज्ञानिक और नेचर कंजर्वेशन फाउंडेशन के संस्थापक ट्रस्टी रोहन आर्थर के मुताबिक, ‘साल 1998 के बाद से यहां के प्रवाल समूहों ने कम से कम दो बार ऐसी सामूहिक क्षति झेली है। समुद्र के लगातार गर्म होने की वजह से ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति होने लगी है। अब ऐसी घटनाओं के बीच का अंतराल भी घटने लगा है। इस समय 32 वर्ग किलोमीटर में फैले हुए लक्षद्वीप के द्वीपों पर 70 हजार लोग रहते हैं। आने वाले कुछ समय में उनके सामने एक विकराल सवाल खड़ा होगा कि आखिर वे लोग कब तक जलवायु परिवर्तन से पैदा होने वाले कठिन हालातों में यहां रह सकेंगे। लक्षद्वीप के लोग जलवायु परिवर्तन की वजह से विस्थापन झेलने वाले भारत के पहले समूह हो सकते हैं।’

रवींद्रन समिति की रिपोर्ट :
वर्ष 2014 में जस्टिस रवींद्रन समिति की रिपोर्ट आई। इसमें लक्षद्वीप और उसके समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र की संवेदनशीलता का जिक्र करते हुए उसे बचाए रखने के लिए तथाकथित विकास की एक सीमा तय करने की भी सिफारिश की गई थी। इस रिपोर्ट के सामने आने के बाद भी उसकी सिफारिशों के उलट ही काम किया गया। नीति आयोग की ओर से लक्षद्वीप को विकसित करने की योजना से स्पष्ट है कि जस्टिस रवींद्रन कमेटी की रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है।