स्कूलों और उनके संघों को चलाने वाले निजी शिक्षण संस्थानों ने गुरुवार को बॉम्बे हाईकोर्ट को बताया कि कोरोना महामारी के दौर में बढ़ी हुई फीस वसूलने पर रोक लगाने का अधिकार राज्य सरकार को नहीं है। निजी स्कूल्स ने हाई कोर्ट से कहा कि इस मामले में महाराष्ट्र सरकार अपने अधिकार से परे काम कर रही है।
चीफ जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस गिरीश एस कुलकर्णी की खंडपीठ शैक्षणिक संस्थानों द्वारा दायर की गई याचिका पर सुनवाई कर रही थी। यह याचिका आईसीएसई और सीबीएसई से मान्यता प्राप्त स्कूल चलाने वाले एसोसिएशन ऑफ इंडियन स्कूल्स, ग्लोबल एजुकेशन फाउंडेशन, कसेगांव एजुकेशन ट्रस्ट और संत ज्ञानेश्वर मौली संस्था शामिल हैं।
30 मार्च को जारी एक परिपत्र में, राज्य के स्कूल शिक्षा विभाग ने कहा था कि निजी स्कूल पेरेंट्स को कोरोना लॉकडाउन के दौरान फीस देने के लिए मजबूर नहीं कर सकते। इस निर्णय से दुखी होकर, पूरे महाराष्ट्र के शैक्षणिक संस्थानों ने हाई कोर्ट में याचिका दायर की है।
26 जून को, निजी स्कूलों को राहत देते हुए हाई कोर्ट ने सरकार के फीस वसूलने पर रोक लगाने के फैसले (जीआर) पर अगले आदेश तक रोक लगा दी थी। जिसके बाद राज्य ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। स्कूलों की ओर से पेश वरिष्ठ वकील हरीश साल्वे ने गुरुवार को कहा कि जीआर मनमाना था, किसी भी वैधानिक शक्ति के अभाव में जारी किया गया था और किसी भी पेशे या व्यवसाय का अभ्यास करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (जी) का उल्लंघन है।
यह तर्क देते हुए कि एक महामारी के दौरान आपदा प्रबंधन अधिनियम का उपयोग मनमाने ढंग से नहीं किया जा सकता है, साल्वे ने उदाहरण देते हुए कहा कि क्या आपदा प्रबंधन कानून के तहत टाटा, बिड़ला व रिलायंस को 500 करोड़ रुपए जमा करने के लिए कहा जा सकता है, क्या इस कानून के तहत राज्य सरकार केंद्र के प्रस्ताव के अंतर्गत 14 से 15 प्रतिशत वस्तु व सेवा कर बढ़ा सकती है? यदि बढ़ा भी दे तो इसे अदालत रद्द कर देगी।
उन्होंने कहा कि कोरोना को हमे अपने संविधान को संक्रमित नहीं करने देना चाहिए। राज्य सरकार ने अपने अधिकार क्षेत्र के बाहर जाकर निजी स्कूलों को फीस बढ़ाने से रोका है। इसलिए इस संबंध में 8 मई 2020 को जारी किए गए शासनादेश को रद्द कर दिया जाए। क्योंकि आपदा प्रबंधन कानून के आधार पर इस तरह का शासनादेश नहीं जारी किया जा सकता है। खंडपीठ ने सोमवार को इस याचिका पर सुनवाई रखी है।
