‘न खुदा ही मिला न विसाल-ए-सनम
न इधर के हुए न उधर के हुए
रहे दिल में हमारे ये रंज-ओ-अलम
न इधर के हुए न उधर के हुए’
तो क्या 23 कलमों की नाराजगी महज कागजी साबित हुई? अभी-अभी तो विद्रोही ‘सत्ता का सत्य’ परेशान और पराजित होकर सुबह के भूले की तरह शाम को लौटा था। फिर इस भुलक्कड़ के हश्र को इतनी जल्दी कैसे भुला दिया गया? पाती की पटकथा अपने अनुमान के अंजाम पर पहुंची और बागी बातें बैरक में लौट कर जब तक सूरज-चांद रहेगा, सोनिया-राहुल तेरा नाम रहेगा जैसी बातें बनाने लगीं। भारत में प्रेम में खून से चिट्ठी लिखने का मिजाज पुराना है और कांग्रेस देश की सबसे पुरानी पार्टी है तो ये रस्म भी निभाना है।
चिट्ठी लिखने वाले 23 नेताओं पर नजर डालें तो इनमें जनाधार से जुड़े और जमीन से उखड़े दोनों तरह के लोग हैं। इनमें कई राज्यसभा इसलिए भेजे गए क्योंकि इनकी पहचान गांधी परिवार के वफादार की है। अब ये यह नहीं कह सकते कि मेरी बात नहीं सुनी गई तो पार्टी से इस्तीफा दूंगा। इन्हें भी पता है कि कांग्रेस है तो ये हैं। जम्मू-कश्मीर से लाए गए खास चेहरे गुलाम नबी आजाद को याद भी नहीं होगा कि आखिरी चुनाव कब जीता था। पार्टी को कश्मीर से एक चेहरा चाहिए था तो हर बार राज्यसभा का ताज पहना दिया जाता था। आज इनकी राज्यसभा सदस्यता खत्म हो जाए तो ये मैदान में जाकर चुनाव लड़ने से बेहतर घर बैठना पसंद करेंगे।
राहुल गांधी की इस बात को भी सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता कि इस वक्त यह शिगूफा जानबूझ कर छोड़ा गया और इसके पीछे कहीं न कहीं कांग्रेस विरोधी शक्तियां हैं। इतने बड़े प्रदर्शन से मिले सिफर नतीजे के बाद इन्हें अहसास हो गया होगा कि कांग्रेस की बुनियाद के बिना इनकी अट्टालिका ढह जाएगी। कपिल सिब्बल ने जितनी तेजी से ट्वीट विलोपित कर अपनी वफादारी समारोपित की वो इस पूरी गंभीर कवायद को प्रहसन में बदल गया। इनका मकसद गांधी परिवार को चोट पहुंचाना था ही नहीं। अगर ऐसा होता तो ये सारे इस्तीफा दे देते कि परिवार पार्टी नहीं छोड़ रहा तो हम ही पार्टी छोड़ दें। राजस्थान असंतुष्टों के लिए सबक तो बन गया है। पार्टी ने जिस तरह पायलट प्रकरण को सुलझाया उससे बागी नेता को अपना सब कुछ खो कर पार्टी की शर्तों पर वापस आना पड़ा।
राजस्थान से लेकर चिट्ठी विवाद तक ने राहुल गांधी के कद को और मजबूत किया है। इससे साबित होता है कि वे आज भी पार्टी के अदृश्य अध्यक्ष हैं। उनकी टीम को कोई हिला नहीं सका। गहलोत और कमलनाथ राहुल की मुहर के बाद ही मुख्यमंत्री बने थे। इसके साथ ही विपक्ष के राहुल पर पक्ष के जितने वार होते हैं उससे लगता है कि वो उनमें विकल्प का चेहरा पहचान रहा है।
कांग्रेस के अंदर खेमेबंदी स्पष्ट है। सोनिया और राहुल के अलग-अलग सेनानी टकराते ही रहते हैं, जिसे लंबे समय से नए और पुराने खांचे में बांटा जा रहा है। लेकिन यह पहचान उतनी आसान नहीं है। कांग्रेस शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने जिस तरह से प्रतिक्रिया दी उससे स्पष्ट रहा कि गांधी परिवार को लेकर कोई भ्रम नहीं है। ये कांग्रेस के मजबूत जनाधार वाले क्षेत्रीय क्षत्रप हैं। ऐसा कोई जिसका राष्ट्रीय जनाधार हो और गांधी परिवार से भी न हो फिलवक्त है नहीं, और किसी को अगर थोप भी दिया जाएगा तो उनके लिए भी समस्या यही है। यह चीज साफ तौर से उभरी है और मांग उठी है कि जनाधार वाले लोगों के बीच से विकल्प का आधार बने।
जिन लोगों ने यह मुद्दा उठाया भले ही उनमें से कई का कोई जनाधार नहीं है, लेकिन एक साफ संदेश गया कि सांगठनिक स्तर पर जो कांग्रेस की स्थिति है वहां ऐसे मंच की कमी है जहां लोग अपनी बात रख सकें। दो नेता हैं लेकिन संवाद का मंच एक भी नहीं है। अब एक ऐसे मंच की जरूरत समझाई गई जहां नेतृत्व के पास कार्यकर्ता की पहुंच हो और वो अपनी बात रख सकें। स्वाभाविक है कि जब मंच ही नहीं होगा तो सांगठनिक विस्तार की कोई योजना बने भी तो कहां पर? अभी तो भविष्य ही नहीं दिख रहा था। भविष्य को सिर्फ जनाधार से नहीं देखा जा सकता है। पार्टी को हर तरह के लोगों की जरूरत होती है। जिनका जनाधार नहीं है उनकी भी कुछ खास भूमिका है और वे भी सत्ता में हिस्सा चाहते हैं।
सत्ता को हासिल करने के लिए जिस सांगठनिक ढांचे की जरूरत है वो अगर नहीं होगा तो इनका वजूद भी नहीं होगा। इस छटपटाहट को अब खारिज भी नहीं किया जा सकता। इस पूरे मामले से दो सकारात्मक परिणाम भी निकले हैं। ये 23 योद्धा भारत के लोकतंत्र में अपना अभूतपूर्व योगदान यह कह कर दर्ज करा सकते हैं कि कम से कम हमने ‘असहमति’ को लेकर अपनी आवाज तो उठाई। एक उम्मीद जगा सकते हैं कि जब पूरे देश में असहमति के लिए जगह नहीं है तो कांग्रेस इसका मान रख रही है। अब जबकि असहमति हर जगह विद्रोह का प्रतीक बना दी गई है तो कांग्रेस में इसे ‘असहमति’ के रूप में ही दर्ज किया गया। इस बार यह तो दिखा कि भाजपा से अलग है कांग्रेस। कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में कहा गया कि आगे से सार्वजनिक मंच पर जाने के बजाए संगठन की बात अंदर ही करनी चाहिए। असहमत सुरों का अपमान नहीं किया गया और शुरुआती उठापठक के बाद सबने संयम बरता।
इस घटनाक्रम में एक चीज साफ दिखी कि जो समझौता एक तरह से राजस्थान में हुआ वही समझौता केंद्रीय स्तर पर किया गया। राजस्थान में असहमति का स्वर उठा था और उससे संगठन के स्तर पर निपटा गया। एक व्यक्ति के राज पर उठे सवाल के बाद समिति बनाई गई। दूसरे समूह के विधायकों के लिए भी सत्ता में हिस्सेदारी का दरवाजा खोला गया। कुछ पुराने लोगों के इर्द-गिर्द घूम रही सत्ता में नए चेहरों को भी पहचान दी गई।
दूसरी तरफ सोनिया और राहुल जो अलग-अलग धड़े के रूप में दिख रहे थे सामूहिक स्वर में सामने आए। दोनों के साथ आने से ही समाधान भी निकल जाता है। वही रणनीति केंद्र में भी अपनाई गई। असहमति का स्वर दिखने के बाद ध्रुवीय दूरी वाले सत्ता के केंद्रों को एक बिंदु पर मिलना पड़ा। इनके मिलन से समाधान ये निकला कि सोनिया गांधी अंतरिम अध्यक्ष का कार्यकाल जारी रख रही हैं जैसे राजस्थान में गहलोत ने अपना पद जारी रखा। लेकिन सोनिया गांधी के साथ एक सलाहकार मंडल को जोड़ा गया है। इस मंडली में ज्यादातर राहुल गांधी के करीबी ही रहेंगे यह माना जा सकता है।
कांग्रेस में दो अलग-अलग शक्ति केंद्रों का असर संगठन के तौर पर भी नीचे तक विभाजन के रूप में दिखाई दे रहा था। छोटे नेता और कार्यकर्ता पार्टी से उम्मीद खो रहे थे। उम्मीद कर सकते हैं कि इस संकट से जिस तरह बचा गया उसका सबक आगे बढ़ाया जाएगा। शक्ति के केंद्र अलग-अलग हो पार्टी को तोड़ने के बजाए सांगठनिक तरीके से जोड़ने की ओर कैसे बढ़ें इस पर फौरी कदम उठाते हुए चिट्ठी को तार समझा जाए और सुधार की दिशा में कोई देर न की जाए।