मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के महासचिव सीताराम येचुरी के साथ सबसे अच्छी बात यह है कि वे बातचीत के दौरान गूढ़ मार्क्सवादी शब्दावलियों का प्रयोग नहीं करते। अपनी विद्वत छवि से ज्यादा इस बात का ख्याल रखते हैं कि सामने वाला उनकी बात समझे। अच्छी हिंदी भी बोलते हैं और वामपंथी पार्टी के शीर्ष पद पर होने के बावजूद हंसी-ठहाकों से परहेज नहीं करते। आम जनता के बीच कौन सी बात चुटकी लेकर कहनी है यह उन्हें खूब पता है। भारत में ताजा हालात में वामपंथ हाशिये पर है, बंगाल में करारी हार के साथ अन्य क्षेत्रों में खिसकते जनाधार से उबरना है। आर्थिक संकट की मार श्रमिक, खेतिहर वर्ग पर पड़ रही है जो बृहत संघर्ष का क्षेत्र है। इन चुनौतियों पर माकपा महासचिव के साथ जनसत्ता के कार्यकारी संपादक मुकेश भारद्वाज की लंबी बातचीत के चुनिंदा अंश।

सवाल- हरियाणा में माकपा की मजबूत जमीन तैयार करने वालीं जगमती सांगवान ने आरोप लगाए कि पार्टी जनसंघर्ष की अपनी नीतियों से भटक रही है और चुनाव जीतने की होड़ में जनवादी नीतियों से समझौता कर रही है। ये आरोप बंगाल को लेकर लगे थे और वहां माकपा-कांग्रेस गठबंधन पर सवाल भी उठ रहे थे। आरोप था कि कांग्रेस से गठजोड़ पार्टी लाइन से मेल नहीं खाती और हल्के शब्दों का इस्तेमाल कर बंगाल नेतृत्व को बचाने की कोशिश की गई थी।

जवाब- बंगाल में हालात अलग थे। प्रदेश अर्धफासीवादी आतंक झेल रहा था। हमारी प्राथमिकता थी कि वहां लोकतंत्र की बहाली की जाए। इसलिए कांग्रेस से हाथ मिलाने का फैसला किया गया। लेकिन वह ऐसा फैसला नहीं था कि देश भर में लागू किया जाए। बंगाल में जरूरी था इसलिए किया और अभी आगे भी जारी रहेगा।


सवाल- पार्टी लाइन व जनवादी केंद्रीयतावाद को माकपा की जीवनरेखा माना जाता रहा है। लेकिन इससे समझौता और छेड़छाड़ के आरोप पार्टी के अंदर से ही लग रहे हैं। बंगाल में माकपा और कांग्रेस का वर्ग शत्रु वाल रिश्ता रहा था। भारत में सबसे ज्यादा समय तक कांग्रेस का ही शासन रहा है और भारत की मौजूदा दशा-दिशा के लिए बहुत हद तक इसी की नीतियां जिम्मेदार है। बंगाल में कांग्रेस पर माकपा अपने कैडरों की हत्या के आरोप लगाती रही है। और, चुनावों में नाकाम होने के बाद भी माकपा यह गठबंधन जारी रखने का फैसला कर चुकी है। इसकी वजह?

जवाब- यह कहना गलत होगा कि पश्चिम बंगाल में हमारा कांग्रेस के साथ गठबंधन का फैसला गलत था या फिर यह नाकाम रहा। सच यह है कि इसका लाभ ही हुआ। 2008 से लेकर 2016 तक हर चुनाव में हमारा मतदान फीसद कम हो रहा था। इस बार हम उस पर काबू पाने में सफल रहे। दरअसल जैसी स्थिति बंगाल में थी वैसी देश में कहीं भी नहीं। वहां राजनीतिक आतंकवाद था जो तृणमूल कांग्रेस ने फैलाया है। वहां नागरिक अधिकारों का भी जम कर उल्लंघन हो रहा था। इसलिए वहां साझे संघर्ष की रणनीति कामयाब रही। इस आतंकवाद से निपटने के लिए कांग्रेस के साथ यह गठबंधन जारी है। दुखद यह है कि वहां भारतीय जनता पार्टी भी इस मामले में तृणमूल कांग्रेस के साथ ही है। इसी आतंकवाद के कारण पिछले पांच सालों में हमने 186 कामरेड खो दिए। साठ हजार से भी ज्यादा लोग आंतरिक पलायन को मजबूर हो गए। अपना घर-बार छोड़ कर अपनी पुश्तैनी जगहों से भागने के लिए मजबूर हो गए।


सवाल- माकपा के अंदरूनी लोकतंत्र पर सवाल उठ रहे हैं, खास लोगों का वर्चस्व होने के आरोप पार्टी काडर ही उठा रहे हैं। हमारी पार्टी में जबर्दस्त लोकतंत्र है। हमारे मतभेद होते हैं लेकिन वे आपस में ही हल किए जाते हैं। पार्टी जो भी फैसला एक बार ले लेती है वह तब तक लागू रहता है जब तक उस पर पुनर्विचार नहीं होता। जहां तक जगमती सांगवान का सवाल है वे पश्चिम बंगाल इकाई के खिलाफ सख्त कार्रवाई चाहती थीं। उनके प्रस्ताव पर विचार हुआ और उस पर मतदान में 77 लोगों ने उनके प्रस्ताव के खिलाफ, 4 ने समर्थन में वोट दिया जबकि कुल 90 सदस्यों में से 6 ने खुद को मतदान की प्रक्रिया से बाहर रखा। तो फिर यह बवाल क्यों?

जवाब- क्योंकि जगमती सांगवान बहुमत के इस फैसले से सहमत नहीं थीं। उन्होंने कहा कि वे इस्तीफा दे रही हैं। त्रिपुरा के मुख्यमंत्री, जो उस समिति के अध्यक्ष थे, ने कहा भी कि वे बाकी एजंडा तय करने के बाद बात कर लेंगे। लेकिन सांगवान ने उनकी भी नहीं सुनी। बैठक का बहिष्कार कर चली गर्इं और बाहर जाकर मीडिया के सामने बात रख दी। अब इसके बाद कोई विकल्प नहीं था। लिहाजा उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई करनी पड़ी।


सवाल- फ्रांस में नए श्रम कानून का लागू होना, यूरोपीय संघ से ब्रिटेन का बाहर निकलना, आर्थिक संकट का असर है कि मजदूर सड़क पर उतर रहे हैं। अस्मितावादी राजनीति के कारण राष्ट्रवाद का एजंडा भी फैल रहा है। भारत में भी यही हालात हैं। देश में श्रमिक शक्तियों के संघर्ष को किस तरह से देखते हैं?

जवाब- पिछले साल 2 सितंबर की हड़ताल ऐतिहासिक थी। इस बार और भी बड़ी होगी। सभी तैयारियां की जा रही हैं। इस बार तो अभी तक भारतीय मजदूर संघ भी साथ है। सच यह है कि उदारीकरण का जहर तेजी से फैल रहा है और इसके कारण मेहनतकश पिस रहा है। सभी मुल्कों में इसके मद्देनजर श्रम कानूनों में बदलाव हो रहे हैं। फ्रांस, यूरोप में तो उदारीकरण व बचत के नाम पर कई कठोर कदम उठा लिए गए हैं। स्थायी नौकरियां पहले ठेके, फिर तदर्थ और अब तो अस्थायी में बदल दी गई हैं।


सवाल- उदारीकरण के इस दौर में असंगठित क्षेत्र का दायरा बढ़ रहा है और श्रमिक हितों की अनदेखी भी। इस क्षेत्र को संगठित करने के लिए क्या रणनीति है?

जवाब- खेद की बात है कि देश में संगठित क्षेत्र पूरी तरह बिखर गया है। इस समय संगठित क्षेत्र में सात फीसद से भी कम नौकरियां हैं जबकि बाकी 93 फीसद अनौपचारिक ही हैं। अब हमारी अगली चुनौती असंगठित क्षेत्र को संगठित करने की है। इसके बिना मजदूर वर्ग की ताकत सामने नहीं आएगी। यह हो भी रहा है। आंगनबाड़ी, आशा और मिड डे मील योजनाओं के कर्मचारियों ने संगठित होने की दिशा में कदम बढ़ा दिए हैं। ये लोग देश की सामाजिक व आर्थिक व्यवस्था में इतना महत्त्वपूर्ण योगदान देकर भी अपने अधिकारों से महरूम हैं।


सवाल- किसान और मजदूरों को लेकर राजग सरकार की नीतियों पर क्या कहना है?

जवाब- इस सरकार की नीतियां तो बहुत ही हास्यास्पद हैं। कीमतों पर कोई काबू नहीं। आलम यह है कि देश में दाल आयात की जा रही है और दाम 120 रुपए प्रति किलो वसूला जा रहा है। जबकि देश के किसान से दाल खरीदने का न्यूनतम निर्धारित मूल्य 42 रुपए 50 पैसे है। अब अगर अपने देश के किसान को ही बढ़ी हुई कीमत दी जाती तो शायद यह नौबत ही न आती। देश में मजदूर के अलावा जिस तबके का बुरा हाल है, वह किसान है। ग्रामीण क्षेत्र में खेती मजदूरी की दरों में जबर्दस्त कमी आई है। खेती के लिए इलाका कम होता जा रहा है। किसान आत्महत्या करने को मजबूर हैं। हमारा अगला लक्ष्य खेती के क्षेत्र में बराबरी लाने के लिए अपने काम में और इजाफा करना है।


सवाल- अस्मितावादी राजनीति के दौर में वर्ग संघर्ष की भूमिका को कैसे देखेंगे? माकपा में भी दलित विमर्श से संबंधित मंच बनाए गए हैं। हालांकि आरोप यह है कि पार्टी ने इस मुद्दे पर बहुत देर से कदम उठाया है। लेकिन अब समाज की इस नई पहचान की कदमताल वर्ग संघर्ष की लड़ाई से कैसे होगी?

जवाब- यह सच है कि पूंजीवादी विकास होगा तो वर्ग भेद होगा ही, बढ़ेगा भी। देखना है कि यह किस हद तक है। हमारे पहले के व्यवहार में शायद कुछ कमी रही हो लेकिन अब दलित विमर्श को लेकर अपनी कमजोरियों को पहचान कर उनका निवारण किया जा रहा है। अब जय भीम और लाल सलाम का नारा एक साथ है। हम आर्थिक के साथ-साथ सामाजिक बराबरी की ओर कदम बढ़ा चुके हैं।


सवाल- तो कहीं यह बहुजन समाज पार्टी और मायावती के साथ गठबंधन का इशारा तो नहीं?

जवाब- (ठहाका लगाते हुए) जातिवाद एक गंभीर समस्या है। लेकिन अब शोषित जातियों में आक्रोश बढ़ रहा है और विद्रोह के स्वर फूट रहे हैं। दिक्कत यह है कि उन्हीं वर्गों के जातिवादी नेता इसका राजनीतिक लाभ उठाने की फिराक में रहते हैं। अभी तक दलित और आदिवासी समाज में आपसी तालमेल की हमारी कोशिशों के परिणाम उत्साहवर्धक रहे हैं। इस दिशा में प्रयास जारी रहेंगे।


सवाल- कांग्रेस वैचारिक रूप से वामपंथियों पर निर्भर थी। अब राजग सरकार में विभिन्न संस्थानों से वामपंथी विचारों की बेदखली स्वाभाविक ही मानी जा रही है। नंबूदरीपाद के गढ़ में गोलवलकर पांव जमा रहे हैं। शैक्षणिक और अकादमिक क्षेत्र में वामपंथ के लिए जो चुनौती पेश हुई है, उसे आप कैसे देखते हैं?

जवाब- इतिहास से छेड़छाड़ का जो प्रयास मौजूदा सरकार के राज में हो रहा है वह सबसे घातक है। यह हमारे देश के संवैधानिक चरित्र और धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणतंत्र की भावना के भी प्रतिकूल है। सरकार एक योजनाबद्ध तरीके से इसे उच्च शिक्षा संस्थानों जैसे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, हैदराबाद और इलाहाबाद के विश्वविद्यालय में लागू कर रही है। अपनी विचारधारा के लोगों को नियुक्त किया जा रहा है। भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सुनियोजित षड्यंत्र के तहत यह सब करके हिंदू राष्ट्र की स्थापना का प्रयास ही नहीं वरन हिंदुत्त्ववादी मानसिकता को थोपने की कोशिशें भी चल रही हैं। यह हुआ तो हमारे संविधान का मूल ढांचा ही छिन्न-भिन्न हो जाएगा।


सवाल- कड़े शब्दों में कहें तो भारत को कांग्रेस मुक्त करने का दावा करनेवाली मौजूदा सरकार वामपंथ को बंगाल की खाड़ी में डुबोने का एलान कर चुकी है। राजग सरकार की नीतियों के बरक्स आप वामपंथ के भविष्य को किस तरह देख रहे हैं।

जवाब- कांग्रेस मुक्त भारत महज एक बहाना भर है। असल साजिश खुद को थोपना है। कांग्रेस रहे न रहे, देश के संवैधानिक चरित्र को बचाना होगा वरना हम एक बहुत कठिन समय की ओर बढ़ रहे हैं। हम हर तरह के संघर्ष के लिए तैयार हैं। मोदी अभी तक चुनावी बिगुल ही बजा रहे हैं। उन्हें अब चुनावी भूमिका से निकल कर शासकीय मुद्रा में आना होगा। पिछले दो वर्ष में मोदी ने उदारीकरण को मनमोहन सिंह से भी तेजी से लागू कर दिया है। लोगों का आम जीवन हिला कर रख दिया है। सांप्रदायिक दंगे हो रहे हैं। शिक्षा और फलसफे को हिंदुत्व के रंग में रंगा जा रहा है। सबसे खतरनाक लक्षण अधिनायकवाद के हैं। अरुणाचल व उत्तराखंड में जो हुआ वह अधिनायकवाद की भावना के कारण ही था। जो बिल पास नहीं होता उसे अध्यादेश या धन बिल बना कर निकाला जाता है। यह सोच गलत है। इससे देश को बचाना होगा।