शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती महाराज ने ‘सेक्युलर’ शब्द को लेकर एक बड़ा बयान दिया है। उनका कहना है कि यह शब्द मूल रूप से भारतीय संविधान में शामिल नहीं था, बल्कि बाद में जोड़ा गया। उनके अनुसार, यह शब्द संविधान की मूल प्रकृति से मेल नहीं खाता, और इसी कारण यह विषय समय-समय पर चर्चा में आता रहता है। शंकराचार्य ने धर्म की परिभाषा देते हुए कहा कि धर्म का अर्थ होता है सही और गलत में फर्क करना, सही को अपनाना और गलत को त्याग देना। लेकिन ‘सेक्युलर’ बनने का मतलब है कि सही या गलत से कोई लेना-देना न रखना, जो किसी भी व्यक्ति के जीवन में संभव नहीं है। इसलिए, उनका मानना है कि यह शब्द भारतीय सोच के अनुकूल नहीं है।

हाल ही में आरएसएस (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले ने आपातकाल की 50वीं वर्षगांठ पर संविधान में किए गए बदलावों पर सवाल उठाए। उन्होंने कहा कि इमरजेंसी के दौरान संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवाद’ और ‘धर्मनिरपेक्षता’ जैसे शब्द जोड़े गए थे, और अब समय आ गया है कि इन्हें हटाने पर गंभीरता से विचार किया जाए। उनके इस बयान से विवाद खड़ा हो गया था, लेकिन अब केंद्र सरकार के दो वरिष्ठ मंत्रियों ने भी उनके विचारों का समर्थन किया है।

केंद्रीय मंत्रियों ने आरएसएस नेता के विचार का किया था समर्थन

केंद्रीय मंत्री और भाजपा नेता शिवराज सिंह चौहान ने दत्तात्रेय होसबोले के विचार का समर्थन करते हुए कहा कि इस मुद्दे पर सोचने की जरूरत है। वहीं, प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्य मंत्री डॉ. जितेंद्र सिंह ने भी आरएसएस नेता की बातों को उचित ठहराया। हालांकि, इस संवेदनशील मुद्दे पर भारतीय जनता पार्टी की तरफ से अब तक कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया सामने नहीं आई है।

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इसको लेकर उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने भी अपनी राय रखी थी। उन्होंने कहा कि संविधान की प्रस्तावना को बदला नहीं जाना चाहिए क्योंकि यह उसके मूल स्वरूप का प्रतिनिधित्व करती है। उन्होंने यह भी कहा कि दुनिया के किसी अन्य लोकतांत्रिक देश में संविधान की प्रस्तावना में बदलाव नहीं किया गया है, केवल भारत में ऐसा हुआ है। उन्होंने बताया कि 1976 में 42वें संविधान संशोधन अधिनियम के जरिए प्रस्तावना में ‘समाजवादी’, ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘अखंडता’ जैसे शब्द जोड़े गए थे।

धनखड़ ने यह भी उल्लेख किया कि बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर ने संविधान निर्माण में अथक मेहनत की थी, और यदि ये शब्द इतने महत्वपूर्ण होते तो वे इन्हें मूल प्रस्तावना में अवश्य रखते।

उन्होंने जस्टिस हेगड़े और जस्टिस मुखर्जी के एक फैसले का हवाला देते हुए कहा कि प्रस्तावना को संविधान की आत्मा माना गया है, और यह अपरिवर्तनीय है। वहीं, जस्टिस सीकरी ने भी कहा था कि संविधान को प्रस्तावना में व्यक्त किए गए आदर्शों के आधार पर ही पढ़ा और समझा जाना चाहिए।