पुण्य प्रसून वाजपेयी
संघ परिवार से जो गलती वाजपेयी सरकार के दौर में हुई, वह मोदी सरकार के दौर में नहीं होगी। जिन आर्थिक नीतियों को लेकर वाजपेयी सरकार को कठघरे में खड़ा किया गया, उनसे कई कदम आगे मोदी सरकार बढ़ रही है लेकिन उसे कठघरे में खड़ा नहीं किया जाएगा। हालांकि मोदी सरकार का विरोध होगा।
नीतियां राष्ट्रीय स्तर पर नहीं राज्य दर राज्य के तौर पर लागू होंगी। यानी सरकार और संघ परिवार के विरोधाभास को नियंत्रित करना ही आरएसएस का काम होगा। तो क्या मोदी सरकार के लिए संघ परिवार खुद को बदल रहा है। यह सवाल संघ के भीतर ही नहीं भाजपा के भीतर उन कार्यकर्ताओं का भी है, जिन्हें अभी तक लगता रहा कि आगे बढ़ने का नियम सभी के लिए एक जैसा होता है। एक तरफ संघ की विचारधारा दूसरी तरफ भाजपा की राजनीतिक जीत और दोनों के बीच खड़े प्रधानमंत्री मोदी। सवाल सिर्फ इतना कि राजनीतिक जीत जहां थमी वहां भाजपा के भीतर के उबाल को थामेगा कौन। और जहां आर्थिक नीतियों ने संघ के संगठनों का जनाधार खत्म करना शुरू किया, वहां संघ की फिलासफी यानी ‘रबड़ को इतना मत खींचो कि वह टूट जाए’, यह समझेगा कौन।
असल में हर किसी का अंतर्विरोध ही हालात संभाले हुए है या कहें कि मोदी सरकार के लिए तुरुप का पत्ता बना हुआ है। लेकिन जादुई छड़ी प्रधानमंत्री मोदी के पास रहेगी या सरसंघचालक मोहन भागवत के पास यह समझना कम दिलचस्प नहीं। मौजूदा वक्त में मोदी सरकार के किसी भी मंत्री से ज्यादा तवज्जो उसी के मंत्रालय पर पीएम मोदी के बोलने को दिया जाता है। जिसका असर यह भी हो चला है कि पीएम कुछ भी कहीं भी बोलें उसका एक महत्व माना जाता है और मंत्री अपने ही मंत्रालय के बारे में कितने बड़े फैसले ही क्यों ना ले ले वह पीएम के एक बयान के सामने महत्वहीन हो जाता है। गुरु गोलवरकर के बाद कुछ यही परिस्थितियां संघ परिवार के भीतर भी बन चुकी हैं। संघ के मुखिया ही हर दिन देश के किसी न किसी हिस्से में कुछ कहते हैं, जिन पर सभी की नजर होती है। लेकिन संघ के संगठनों के मुखिया कहीं भी कुछ कहते हैं तो उस पर किसी का ध्यान नहीं जाता।
ऐसे में तलवार की धार पर सरकार चल रही है या संघ परिवार यह सत्ता के खेल में वाकई दिलचस्प है। क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी की नीतियों को लागू कराने के तरीके संघ के स्वयंसेवकों की तर्ज पर हैं और सरसंघचालक की टिप्पणियां नीतिगत फैसले के तर्ज पर हैं। इसीलिए बीते आठ महीनों को लेकर जो भी बहस सरकार के
मद्देनजर हो रही है, उसमें प्रधानमंत्री का हर एलान तो शानदार है लेकिन उसे लागू नौकरशाही को करना है और नौकरशाही स्वयंसेवकों की टीम नहीं होती इसे कोई समझ नहीं पा रहा है।
यह हालात आने वाले वक्त में सरकार के लिए घातक हो सकते हैं। वहीं दूसरी तरफ संघ के मुखिया सरकार की तर्ज पर चल पड़े हैं। मसलन भारतीय मजदूर संघ को इजाजत है कि वह मोदी सरकार की मजदूर विरोधी नीतियों का विरोध करे। क्योंकि सरसंघचालक इस सच को समझते हैं कि देश भर में अगर 60 हजार शाखाएं लगती हैं तो उनकी सफलता की बड़ी वजह भारतीय मजदूर संघ से जुड़े एक करोड़ कामगार भी हैं।
लेकिन मुश्किल यह है कि स्वयंसेवक तो संघ की विचारधारा को विस्तार देने में लगे हैं और मोदी सरकार की नीतियों का ऐलान संघ के सपनों के भारत की तर्ज पर हो रहा है जिसमें नौकरशाही फिट बैठती ही नहीं है। प्रधानमंत्री की नीयत खराब नहीं है लेकिन मोदी स्वयंसेवकों की टोली के जरिए ही देश के बिगड़े हालात पर नियंत्रण करना चाह रहे हैं। और स्वयंसेवकों को पीएम का फार्मूला इसलिए रास नहीं आ सकता क्योंकि समूचा विकास ही उस पूंजी पर टिकाया जा रहा है जिस पूंजी के आसरे विकास हो भी सकता है इसकी कोई ट्रेनिंग किसी स्वयंसेवक को नहीं है। ट्रेनिंग ही नहीं बल्कि जिस वातावरण में संघ परिवार की मौजूदगी है या संघ परिवार जिन क्षेत्रों में काम कर रहा है, वहां विकास का सवाल तो अब भी सपने की तरह है। यानी संघ परिवार जिन हालात में काम कर रहा है और मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों का एलान जिस तबके के लिए किया जा रहा है, वह न सिर्फ संघ की विचारधारा से दूर है बल्कि देश के हालात से भी दूर है। तो फिर रास्ता अंधेरी गली की तरफ जा रहा है या फिर देश को एक खतरनाक हालात की तरफ ले जाया जा रहा है।
यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है कि संघ अब वाजपेयी सरकार की तर्ज पर मोदी सरकार को परख नहीं रहा। वाजपेयी सरकार के दौर में रज्जू भैया ने संघ के तमाम संगठनों पर नकेल कसी थी। लेकिन जब आर्थिक नीतियों को लेकर विरोध शुरू हुआ तो 2004 के चुनाव में संघ परिवार राजनीतिक तौर पर निष्क्रिय हो गया। बेहिसाब खर्च करने के बाद भी शाइनिंग इंडिया अंधेरे में समा गया क्योंकि देश अंधेरे में था। लेकिन 2015 में अगर हालात को परखें तो मोहन भागवत ने संघ के तमाम संगठनों को छूट दे रखी है कि वे अपनी बात कहते रहें, मोदी सरकार की नीतियों पर विरोध जताते रहें। क्योंकि संघ को राजनीतिक तौर पर सक्रिय रखना दिल्ली की जरूरत है और दिल्ली के जरिए संघ को विस्तार मिले यह संघ की रणनीतिक जरूरत है। मौजूदा वक्त में सबसे बड़ा सवाल यही है कि अगर भाजपा की चुनावी जीत का सिलसिला थमता है या फिर मोदी सरकार के आइने में संघ परिवार की विचारधारा कुंद पड़ती है तो मोदी सरकार और संघ परिवार के बीच ‘सेफ पैसेज’ देने का सिलसिला क्या गुल खिलाएगा।
(टिप्पणीकार आजतक से संबद्ध हैं)