अंशुमान शुक्ल
लखनऊ। समाजवादी पार्टी को सोलहवीं लोकसभा के चुनाव में मिली करारी शिकस्त के बाद यह समझ आ गया है कि समाज के सभी वर्गों को साथ लिए बिना उसका बेड़ा अब पार हो पाना संभव नहीं।
ढाई साल बाद उत्तर प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव में माहौल की पृष्ठभूमि तैयार करने की पुरजोर कोशिश कर रहे पार्टी के वरिष्ठ नेता बार-बार एक बिंदु पर आकर ठहर जा रहे हैं। वे अब तक यह तय नहीं कर पा रहे हैं कि तुष्टीकरण के आगे के सियासी क्षितिज को किस नजरिए से देखें। हालांकि खुद अखिलेश यादव कई मर्तबा गोपनीय बैठकों में यह कह चुके हैं कि अकेले अल्पसंख्यक मतदाताओं की बदौलत विधानसभा चुनाव में उन्हें पूर्ण बहुमत हासिल नहीं हो सकता था। लेकिन वरिष्ठों ने उनकी बात को उस वक्त अनसुना कर दिया था। लखनऊ में आठ अक्तूबर से सपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक आयोजित है जिसमें नई दिशा पर चलने के संकेत आम हो सकते हैं।
समाजवादी पार्टी इस वक्त मंथन के दौर से गुजर रही है। सोलहवीं लोकसभा के चुनाव में मुलायम सिंह यादव की उम्मीदों पर पानी फिरने के बाद पार्टी इस बात को लेकर चिंतित है कि ढाई साल बाद प्रदेश में होने वाले विधानसभा के चुनाव से पहले जनता के सामने सपा की कैसी तस्वीर खींची जाए? राजनीति के जानकारों का कहना है कि राष्ट्रीय कार्यकारणी में समाजवादी पार्टी सभी वर्गों और धर्मों को साथ लेकर चलने का संकेत दे सकती है। ऐसा कर सपा तुष्टीकरण की अपनी छवि से पार पाने की कोशिश तो करेगी ही, ढाई साल बाद होने वाले विधानसभा के चुनाव से पहले वह यह साबित करने का प्रयास भी करेगी कि सभी को साथ लेकर चलना मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की प्राथमिकता है।
दरअसल समाजवादी पार्टी ने नई रणनीति बनाई है जिसके तहत अब अखिलेश यादव के नए सोच का ध्वज पकड़ाने की तैयारी है। सपा का यह सोच सभी की अलमबरदारी का पक्षधर बताया जा रहा है। जबकि मुलयम सिंह यादव को अभी भी मुस्लिम तुष्टीकरण का ध्वजवाहक ही बनाए रखने की रणनीति सपा बहुत पहले ही बना चुकी है।
उत्तर प्रदेश में हुए उपचुनाव में मिली सफलता ने समाजवादी पार्टी को प्राणवायु तो प्रदान की है। लेकिन पार्टी के दिग्गज नए सिपहसालारों को मायावती के कार्यकाल में हुए उपचुनाव की याद दिलाते नहीं थक रहे हैं। 2009 में पंद्रहवीं लोकसभा के चुनाव में मिली करारी शिकस्त के बाद बहुजन समाज पार्टी ने सपा सरीखा कारनामा किया था। सात नवंबर वर्ष 2011 को ग्यारह विधानसभा सीटों के बाद लोकसभा सीट पर उपचुनाव हुए। इसमें सात पर बसपा ने जीत दर्ज की थी। लेकिन ठीक एक साल बाद हुए विधानसभा चुनाव में उसका ताकत हासिल करने का मुगालता धराशायी हो गया था। उत्तर प्रदेश का तख्त गंवाकर उसे इसकी कीमत चुकानी पड़ी थी। इस घटना को समाजवादी पार्टी आलाकमान नजीर के तौर पर देख रहा है। राजनीति के जानकारों का कहना है कि खुद नेताजी उपचुनाव में मिली जीत को आधार मानने से हिचक रहे हैं। उन्हें उस सूत्र की तलाश है जिसके बल पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रभाव से प्रदेश को उबारने में वे कामयाब हो सकें।
उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी को अगर दोबारा सत्ता पर कब्जा जमाए रखना है तो उसे सबकी पार्टी होने की छवि को बनाना होगा। इस काम में अब तक वह बहुत पीछे है। आठ से दस अक्तूबर तक लखनऊ में आयोजित पार्टी की राष्टÑीय कार्यकारिणी में इस बात पर गहन मंथन होगा कि ऐसी कौन-सी नीतियां बनाई जाएं जो सभी को समान भाव से लाभ तो पहुंचाएं ही, सपा को सबकी पार्टी का हक भी दिला सकें। साथ ही उन नीतियों को बंद करने पर भी मंथन जारी है जिसकी बदौलत पार्टी पर तुष्टीकरण की छाप गहरे से अपना रंग जमाती जा रही है और जनता के बीच इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है।