कुछ दिन पहले ही कांग्रेस ने आधिकारिक तौर पर 22 जनवरी को अयोध्या में राम मंदिर के प्राण प्रतिष्ठा समारोह में शामिल होने से इनकार कर दिया था। कांग्रेस के फैसले पर बीजेपी ने निशाना साधा। हालांकि राम मंदिर आंदोलन में कांग्रेस का भी अहम रोल रहा है। मध्य प्रदेश चुनाव के पहले कांग्रेस के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार कमलनाथ ने द इंडियन एक्सप्रेस को बताया था कि राजीव गांधी ही वह व्यक्ति थे जिन्होंने मंदिर का ताला खुलवाया था। बाबरी मस्जिद 1980 के दशक के बीच में खुली थी। हालांकि कांग्रेस के शीर्ष नेता इस मुद्दे पर बोलने से बचते रहे हैं। कभी भी पार्टी नेताओं का राम मंदिर मुद्दे पर एक राय नहीं रही।
1949 से कांग्रेस के अलग सुर
अगर हम देखें तो 22-23 दिसंबर, 1949 की रात को बाबरी मस्जिद के अंदर राम लला की मूर्ति को गुप्त रूप से रखे जाने के बाद से कांग्रेस इस मामले पर अलग-अलग स्वर में बोल रही है। उस रात अभिराम दास नाम के एक व्यक्ति ने चुपचाप मस्जिद के अंदर चला गया था और गार्ड की शिफ्ट बदलने वाली थी और मूर्ति को वहीं रख दिया गया। जिला मजिस्ट्रेट केकेके नायर ने यूपी के मुख्य सचिव को काफी देरी से संदेश भेजा और जवाब मिला कि यथास्थिति बरकरार रखी जानी चाहिए और मूर्ति को नहीं हटाया जाना चाहिए।
थोड़ा पीछे जाए तो यह प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू थे जिन्होंने 1950 में कांग्रेस के गोविंद बल्लभ पंत के नेतृत्व वाली राज्य सरकार पर मूर्ति हटाने के लिए दबाव डाला था। फिर भी कांग्रेस एक सुर में नहीं बोल पा रही थी। वह फैजाबाद से कांग्रेस विधायक बाबा राघव दास थे, जो मुख्यमंत्री द्वारा चुने गए एक तपस्वी थे, जिन्होंने 1948 में विधानसभा उपचुनाव में समाजवादी आचार्य नरेंद्र देव को हराया था। राघव दास ने मूर्ति हटाए जाने पर विधानसभा और पार्टी से इस्तीफा देने की धमकी दी थी। यह बात नीलांजन मुखोपाध्याय ने अपनी पुस्तक ‘डिमोलिशन एंड द वर्डिक्ट’ में लिखी है।
नेहरू ने जताई थी चिंता
केके नायर ने मूर्ति हटाने के खिलाफ तर्क दिया और कहा कि अगर सरकार इसे हटाना चाहती है तो उनकी जगह किसी अन्य अधिकारी को नियुक्त किया जाना चाहिए। उनकी राय स्वीकार कर ली गई और मस्जिद को कुर्क कर नगर निगम बोर्ड के नियंत्रण में दे दिया गया। यह मूर्ति अभी भी अंदर थी। यहां तक कि जब नेहरू ने चिंता व्यक्त की, तब सरदार पटेल ने बल्लभ पंत को लिखा कि आक्रामकता या जबरदस्ती के रवैये पर आधारित कोई भी एकतरफा कार्रवाई बर्दाश्त नहीं की जाएगी। इसका मतलब यह भी था कि मूर्ति वही रहेगी। इस फैसले को बाद में न्यायिक मंजूरी भी मिल गयी जबकि नायर को डीएम के पद से हटा दिया गया था। उनकी पत्नी शकुंतला नायर ने बाद में हिंदू महासभा के टिकट पर यूपी के गोंडा से 1952 का लोकसभा चुनाव लड़ा और जीता।
इसके बाद जवाहर लाल नेहरू ने 1950 में अयोध्या का दौरा न करने का फैसला किया और उसी वर्ष 17 अप्रैल को सीएम बल्लभ पंत को लिखा कि वह इसलिए नहीं जाएंगे ताकि मेरे पुराने सहयोगियों के साथ टकराव न हो और मैं वहां बहुत असहज महसूस करता हूं, क्योंकि मुझे लगता है कि यह सांप्रदायिकता है।
फिर कांग्रेस नेताओं में हुआ टकराव
राम लला की मूर्ति को रखने के प्रकरण के बाद 1980 के दशक की शुरुआत तक राम मंदिर आंदोलन नहीं हुआ। गौरतलब है कि यह पहल किसी भाजपा नेता ने नहीं की थी। इसके बाद यह कांग्रेस नेता और यूपी के पूर्व मंत्री दाऊ दयाल खन्ना पहले राजनेता थे, जिन्होंने मई 1983 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को पत्र लिखकर अयोध्या, काशी और मथुरा को हिंदुओं को बहाल करने की मांग की थी। यूपी से कांग्रेस के दिग्गज नेता और केंद्रीय मंत्री कमलापति त्रिपाठी ने दयाल खन्ना को आगाह किया कि वह बारूद से खेल रहे हैं और हिंदू-मुस्लिम एकता की कांग्रेस की नीति को नष्ट कर रहे हैं।
ऑर्गेनाइजर के पूर्व संपादक शेषाद्रि चारी उन कुछ लोगों में से एक हैं, जिन्होंने 1982 में राम जन्मभूमि आंदोलन को राष्ट्रीय मुद्दा बनाने के लिए मुंबई में आरएसएस की पहली बैठक में भाग लिया था। वह याद करते हुए इंडियन एक्सप्रेस को बताते हैं, “मुझे स्पष्ट रूप से याद है कि मोरापंत पिंगले जी, पहले आरएसएस व्यक्ति थे जिन्होंने परिवर्तन के बारे में सोचा था आंदोलन को एक राष्ट्रीय मुद्दा बनाने के लिए दो राजनेताओं का नाम लिया गया जो इसका समर्थन कर सकते थे। उनके नाम दाऊ दयाल खन्ना और डॉ. करण सिंह थे। उस समय भाजपा बहुत छोटी थी और अटल जी के गांधीवादी समाजवाद के आदर्श वाक्य में इतनी डूबी हुई थी कि वह कुछ भी करने में सक्षम नहीं थी।”
लेकिन केवल दयाल खन्ना अकेले नहीं थे बल्कि बुजुर्ग कांग्रेसी और पूर्व अंतरिम प्रधानमंत्री गुलज़ारीलाल नंदा ने 1983 में राम नवमी पर श्री राम जन्मोत्सव समिति की स्थापना की थी। इस अवसर पर आयोजित भोज में आरएसएस के नेता भी शामिल हुए थे।
विनय सीतापति ने अपनी 2020 की किताब ‘जुगलबंदी: द बीजेपी बिफोर मोदी’ में लिखा है कि दयाल खन्ना 1983 में पश्चिम यूपी के मुजफ्फरनगर में विश्व हिंदू परिषद (VHP) द्वारा आयोजित एक हिंदू सम्मेलन में मुख्य वक्ता थे। गुलजारीलाल नंदा भी मौजूद थे और आरएसएस के प्रोफेसर राजेंद्र सिंह (रज्जू भैया) भी मौजूद थे। 1984 में VHP ने राम जन्मभूमि को मुक्त करने के लिए एक समिति का गठन किया। यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के गुरू और गोरखपुर के महंत अवैद्यनाथ इसके प्रमुख और दयाल खन्ना इसके महासचिव थे। समिति ने राम और सीता की मूर्तियां लेकर बिहार के सीतामढी से अयोध्या तक यात्रा शुरू की।
कर्ण सिंह ने भी इस समय कई सांस्कृतिक पहल कीं। उन्होंने विराट हिंदू सभा (VHS) बनाई, जिसमें आरएसएस के लोग शामिल थे। निलंजल मुखोपाध्याय अपनी किताब में लिखते हैं, “अक्टूबर 1981 में वीएचएस के सदस्य के रूप में उन्होंने दिल्ली में एक बड़ी सभा को संबोधित किया था, जिसमें वीएचपी के अशोक सिंघल की भी सक्रिय भागीदारी देखी गई थी।”
राजीव गांधी की भूमिका
1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद प्रधानमंत्री के रूप में राजीव गांधी का कार्यकाल भी कांग्रेस सरकार के परस्पर विरोधी संकेतों से भरा था।रूढ़िवादी मुस्लिम राय के दबाव के कारण तलाकशुदा महिला को गुजारा भत्ता सुनिश्चित करने वाले शाहबानो फैसले को पलटने के लिए कांग्रेस के संसदीय बहुमत का के तुरंत बाद राजीव गांधी ने फैजाबाद अदालत के आदेश के तुरंत बाद बाबरी मस्जिद के ताले खुलवा दिए। उन्होंने ऐसा हिंदुओं तक को खुश करने के लिए किया था। तब उनकी सरकार ने सलमान रुश्दी की सैटेनिक वर्सेज पर भी प्रतिबंध लगा दिया था, जिससे भारत इस पुस्तक पर प्रतिबंध लगाने वाला पहला देश बन गया था। 1987 में दूरदर्शन ने रामानंद सागर द्वारा निर्मित 78-L एपिसोड का धारावाहिक रामायण चलाया। यह दर्शकों के बीच एक प्रमुख आकर्षण बन गया। सीतापति लिखते हैं कि राजीव ने कांग्रेस के लिए प्रचार करने में राम की भूमिका निभाने वाले अरुण गोविल को भी शामिल किया था।
1989 में ही भाजपा ने पालमपुर प्रस्ताव के माध्यम से राम जन्मभूमि आंदोलन को आधिकारिक समर्थन दिया था। राजीव गांधी ने VHP को राम मंदिर के लिए शिलान्यास समारोह आयोजित करने की अनुमति देकर जवाब दिया।
हालांकि आज़ादी के बाद से उत्तर भारत में मुस्लिम वोट बैंक के कारण कांग्रेस की राम मंदिर की भावना को बढ़ावा देने की सीमाएं सीमित थीं। लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में भाजपा पर ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं था। 1990 में लाल कृष्ण आडवाणी ने गुजरात के सोमनाथ से अयोध्या तक अपनी रथ यात्रा के माध्यम से बढ़त हासिल की। बिहार के मुख्यमंत्री के लालू प्रसाद ने आडवाणी को समस्तीपुर में गिरफ्तार करवा दिया और इस तरह राज्य के मुसलमानों के बीच लालू लोकप्रिय हो गए। 30 अक्टूबर 1990 को जब पुलिस ने कारसेवकों को मस्जिद पर हमला करने से रोकने के लिए उन पर फायरिंग की थी, तब मुलायम सिंह यादव यूपी में सत्ता में थे। इससे मुलायम यादव भी मुसलमानों के चहेते बन गये।
6 दिसंबर 1992 को भाजपा नेताओं की उपस्थिति में बाबरी मस्जिद के विध्वंस की बात सामने आई। नेतृत्व ने कहा कि वे भीड़ को नियंत्रित करने में विफल रहे। इसके बाद भारत में हिंदुओं के बीच भाजपा लोकप्रिय हो गई। न तो कल्याण सिंह के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार के तहत आने वाली पुलिस और न ही केंद्र में पीवी नरसिम्हा राव सरकार को रिपोर्ट करने वाली सीआरपीएफ मस्जिद को ध्वस्त होने से रोक सकी।
लालू-मुलायम की वजह से कांग्रेस को नुकसान
अब कांग्रेस के शासन में ताला खुलने और शाहबानों केस से मुसलमान दूर हो रहा था, इस बीच अडवानी की गिरफ़्तारी और कारसेवकों पर चली गोली के कारण लालू और मुलायम मुस्लिमों के चहेते बन गए। इसके बाद जब बाबरी विध्वंस हुआ, तब बीजेपी हिंदुओं के बीच काफी लोकप्रिय हो गई। ऐसे में कांग्रेस को दोनों तरफ से नुकसान हो रहा था और उसे क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन की राजनीति करनी पड़ी। उसके बाद से कांग्रेस यूपी-बिहार में कमजोर होते चली गई।
यहां फंसने और यूपी और बिहार से सफाया होने के बाद, कांग्रेस को मुस्लिम वोटों की जरूरत थी, इसलिए 1990 के दशक में गठबंधन युग शुरू होते ही उसने क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन रणनीति पर चर्चा शुरू की।