इसे विडंबना ही कहेंगे कि जो विद्यार्थी चिकित्सा विज्ञान की पढ़ाई कर रहे हैं, वही तनावग्रस्त होकर मानसिक दुर्बलता का शिकार बन रहे हैं। जबकि ऐसे छात्रों को मानसिक रूप से पूर्ण परिपक्व होना चाहिए। राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (एनएमसी) के एक कार्यबल ने आनलाइन सर्वेक्षण करके बताया है कि मेडिकल के लगभग 28 फीसद स्नातक और 15.3 फीसद स्नातकोत्तर छात्रों ने मानसिक स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से जूझने की बात स्वीकार की है। सर्वेक्षण में 25,590 स्नातक छात्र, 5,337 स्नातकोत्तर छात्र और 7,035 संकाय सदस्यों ने भागीदारी की। इस परिणाम के बाद सलाह दी गई है कि ‘रेजिडेंट डाक्टर’ प्रति सप्ताह 74 घंटे से अधिक काम न करें। सप्ताह में एक दिन की छुट्टी लें और प्रतिदिन सात से आठ घंटे नींद लें।
छात्रों में अकेलेपन या सामाजिक अलगाव की भावना तेजी से पनप रही है
मेडिकल छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य और कल्याण पर आई राष्ट्रीय कार्यबल की रपट के अनुसार पिछले 12 महीनों में 16.2 फीसद एमबीबीएस छात्रों ने मन में स्वयं को नुकसान पहुंचाने या आत्महत्या का विचार आने की बात मानी है। जबकि एमडी और एमएस छात्रों के मामलों में यह संख्या 31 फीसद दर्ज की गई है। रपट के मुताबिक छात्रों में अकेलेपन या सामाजिक अलगाव की भावना तेजी से पनप रही है। 35 फीसद छात्र इसका अक्सर अनुभव करते हैं और 39.1 फीसद छात्रों ने कभी-कभी इस विकृत भावना का अनुभव किया है।
मेडिकल की पढ़ाई करने वाले छात्रों में गहरे तनाव का उभरना चिंता का विषय
चिकित्सक और चिकित्सा विज्ञान की पढ़ाई करने वाले छात्रों में गहरे तनाव का उभरना वाकई चिंता का विषय है। चिकित्सा शिक्षा एक तो लंबे समय तक चलने वाली कठिन और उबाऊ पढ़ाई है, फिर इस पेशे में आने के बाद सबसे ज्यादा गंभीर दायित्व का निर्वाह करना पड़ता है। इसके अलावा, चिकित्सकों के साथ मरीजों और उनके परिजनों द्वारा दुर्व्यवहार और मारपीट आम बात हो गई है। कई मामलों में उपचार के दौरान रोगी की मौत को परिजन, चिकित्सक की लापरवाही ठहराने लगे हैं।
ऐसे मामलों में अस्पतालों में मारपीट और तोड़फोड़ के मामले तो बढ़ रहे हैं, जातिगत और संप्रदाय विशेष के लोग अस्पताल में समूह की ताकत दिखाकर पुलिस और प्रशासन को पंगु बनाने की भी कोशिश करते हैं। ऐसे मामलों में निर्दोष चिकित्सक के विरुद्ध दबाव में झूठी प्राथमिकी दर्ज कर दी जाती है। राजनीति भी अकसर जाति और संप्रदाय के समूह के साथ खड़ी दिखाई देती है। ऐसे में कानून बौना नजर आता है। 18.2 फीसद चिकित्सा छात्रों को परामर्शदाताओं से भी अपेक्षित सहयोग नहीं मिलता, क्योंकि वे खुद दहशत में आ चुके होते हैं। ऐसे माहौल में तनाव से निपटने के लिए ज्ञान और कौशल की कमी की पूर्ति के लिए प्रशिक्षण मात्र झुनझुना है।
सर्वेक्षण में 56.6 फीसद छात्रों ने अपने शैक्षणिक भार को संभालने योग्य, पर अत्यधिक बताया। 20.7 फीसद छात्रों ने शैक्षणिक भार बहुत ज्यादा बताया। केवल 1.5 फीसद छात्रों ने इसे हल्का बताया। सर्वेक्षण में पाया गया कि ‘असफलता का डर’ स्नातकोत्तर छात्रों में एक अहम मुद्दा है। इससे 51.6 फीसद छात्र सहमत हैं, कि यह उनके प्रदर्शन पर नकारात्मक असर डालता है। असफलता का डर देश के कोचिंग संस्थानों में एमबीबीएस में प्रवेश लेने की प्रतिस्पर्धा में लगे छात्रों को सता रहा है। इसलिए देखने में आ रहा है कि कोटा में छात्र निरंतर आत्महत्या कर रहे हैं।
देश के 322 सरकारी चिकित्सा महाविद्यालयों से हर वर्ष 48,012 छात्रों को ‘नीट’ के माध्यम से प्रवेश दिया जाता है। इन कालेजों में 27,868 दंत चिकित्सक, 52,720 आयुष और 603 पशु चिकित्सक छात्रों को प्रवेश की सुविधा मिलती है। अगर निजी मेडिकल कालेजों में भर्ती होने वाले छात्रों को भी जोड़ लिया जाए, तो देश के करीब 707 मेडिकल कालेजों में 1,09,048 छात्र प्रवेश लेते हैं। इनके अलावा, दूसरे देशों से भी एमबीबीएस की पढ़ाई करके आए युवा भारत में चिकित्सक का पेश अपनाते हैं। वैश्विक स्तर पर भारतीय चिकित्सकों की उम्दा साख है। दुनिया की सबसे बड़ी चिकित्सा शिक्षा प्रणाली भी भारत में है। इसलिए अब उम्मीद की जा सकती है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन का जो एक हजार की आबादी पर एक डाक्टर की मौजदूगी पैमाना है, वह आने वाले कुछ समय में पूरा हो जाएगा। फिलहाल हमारे यहां यह अनुपात 0.62:1000 है।
अब तक सरकारी चिकित्सा संस्थानों की शैक्षिक गुणवत्ता पर सवाल उठते रहे हैं, लेकिन ध्यान रहे कि लगभग 60 फीसद मेडिकल कालेज निजी क्षेत्र में हैं। ये संस्थान छात्रों से भारी-भरकम शुल्क तो वसूलते ही हैं, कैपीटेशन फीस लेकर प्रबंधन के कोटे में छात्रों की सीधी भर्ती भी करते हैं। इस सुविधा में आरक्षण और योग्यता के दावे ढकोसला हैं। विश्व बैंक की एक रपट के मुताबिक 33 फीसद भारतीय चिकित्सक डिग्री हासिल करने के बाद विदेश चले जाते हैं। इनमें से डेढ़ हजार डाक्टर अमेरिका का रुख करते हैं।
चिकित्सा विशेषज्ञों का मानना है कि आज के विद्यार्थी उन पाठ्यक्रमों में अध्ययन करना नहीं चाहते, जिनमें विशेषज्ञता प्राप्त करने में लंबा समय लगता है। इसके उलट, वे ऐसे पाठ्यक्रमों में दक्षता हासिल करना चाहते हैं, जहां जल्दी विशेषज्ञ की उपाधि प्राप्त कर धन कमाने के अवसर मिल जाते हैं। गुर्दा, नाक, कान, दांत, गला रोग और विभिन्न तकनीकी जांच विशेषज्ञ 35 वर्ष की उम्र के बाद शल्य क्रिया शुरू कर देते हैं, जबकि हृदय और तंत्रिका-तंत्र विशेषज्ञों को यह अवसर 40-45 वर्ष की उम्र के बाद मिलता है।
इन सबके बावजूद, एमबीबीएस शिक्षा के साथ कई तरह के खिलवाड़ हो रहे हैं। कायदे से उन्हीं छात्रों को मेडिकल कालेज में प्रवेश मिलना चाहिए, जो सीटों की संख्या के अनुसार ‘नीट’ परीक्षा से चयनित होते हैं। लेकिन आलम यह है कि जो छात्र ‘रैंक’ में नहीं हैं, उन्हें भी धन के बूते प्रवेश मिल जाता है। दरअसल, जो मेधावी छात्र निजी कालेज की फीस दे पाने में सक्षम नहीं हैं, वे मजबूरी में अपनी सीट छोड़ देते हैं। बाद में इसी सीट को निचली श्रेणी में स्थान प्राप्त छात्र खरीदकर प्रवेश पा जाते हैं। इस सीट की कीमत करोड़ों में है। गोया, जो छात्र एमबीबीएस में प्रवेश की पात्रता नहीं रखते, वे अपने अभिभावकों की कमाई के बूते इस पवित्र और जिम्मेदार पेशे के पात्र बन जाते हैं। ऐसे में इनकी अपने दायित्व के प्रति प्रतिबद्धता कम और पैसा कमाना ही एकमात्र लक्ष्य हो जाता है।
देश के सरकारी कालेजों में एक वर्ष का शुल्क करीब छह लाख रुपए है, जबकि निजी महाविद्यालयों में यही शुल्क 90 लाख रुपए है। यही धांधली एनआरआइ और अल्पसंख्यक कोटे के छात्रों के साथ बरती जा रही है। एमडी में प्रवेश के लिए निजी संस्थानों में जो प्रबंधन के अधिकार क्षेत्र और अनुदान आधारित सीटें हैं, उनमें प्रवेश शुल्क की राशि कई करोड़ रुपए है। इसके बावजूद सामान्य प्रतिभाशाली छात्र के लिए एमबीबीएस परीक्षा कठिन बनी हुई है। ऐसे में चिकित्सा की पढ़ाई करने वाले छात्र अवसाद का शिकार तो होंगे ही।