राजकिशोर का लेख ‘हम धर्म के बिना नहींं रह सकते’ (7 जनवरी) पढ़ा। सचमुच आज धर्म को विमर्श के केंद्र में लाना जरूरी हो गया है। हाल ही में पाकिस्तान के स्कूली बच्चों और फ्रांस के कार्टूनिस्टों की बर्बर हत्या सोचने को मजबूर करती है कि धर्म या मजहब हिंसा और बैर के पर्याय क्यों बन गए हैं। इकबाल ने तो कहा था ‘मजहब नहींं सिखाता आपस में बैर रखना…।’ फिर यह कैसा धर्म है और कैसा मजहब? सांप्रदायिक कट््टरवाद धर्म नहीं, सदाचरण और नीति को धर्म कहा जाता है। लेकिन आज इसे संप्रदाय के अर्थ में सीमित कर देने से तमाम तरह की भ्रांतियां उत्पन्न होने लगी हैं। धर्मच्युत लोग ही धर्म के ठेकेदार बन गए हैं और धर्म को बदनाम कर रहे हैं।
एक समय था जब इसी धर्म ने समाज को अनुशासित तरीके से जीना सिखाया। एक अनजानी-अनदेखी शक्ति ने अपने भय से समाज में अपराध को नियंत्रित कर रखा था लेकिन विज्ञान ने उस भय को मिटा कर मानव को निर्भीक होने के साथ कुटिल अमानुष भी बना दिया। उसकी इस कुटिलता ने धर्म को अपनी सुविधानुसार गढ़ कर साधारण जन को ठगने का धंधा बना लिया और पाखंड को धर्म का नाम दे डाला। जबकि धर्म पाखंड नहीं है।
धर्म तो हमारी जीवनचर्या का हिस्सा है जहां हम अपने साथ-साथ दूसरों की सहूलियत का ध्यान रखते हैं। लेकिन जब धर्म का गठबंधन राजनीति या धर्म के सत्ताधीशों से होता है तो वह शोषण का हथियार बन जाता है और तमाम कुरीतियों का माध्यम भी। लेकिन यदि धर्म आडंबर और पाखंड से बच कर आत्मनियमन, आत्मअंकुश की राह पर चलने के लिए प्रेरित करे तो शायद दुनिया में हो रही तमाम हिंसक वारदातों पर रोक लग जाए। लेकिन राजनीतिक और धर्म के मठाधीश अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए धर्म को बदनाम करते हैं।
धर्म आस्था पर टिका है और विज्ञान तर्क यानी बुद्धि पर। संपूर्णता दोनों के समन्वय से प्राप्त की जा सकती है। अकेले विज्ञान भी उतना ही अनिष्टकारी हो सकता है जितना धर्म। भावना और तर्क का समन्वय ही मनुष्य को ऊंचा बना सकता है। धर्म का अंधा अनुकरण उसे गर्त में धकेल सकता है। संत विनोबा भावे ने कहा था कि धर्म और राजनीति का युग बीत गया, अब उनका स्थान अध्यात्म और विज्ञान ग्रहण करेंगे। धर्म और विज्ञान परस्पर विरोधी हैं क्योंकि धर्म आस्था, पूर्वग्रह और हठवाद की राह ले जाता है जबकि विज्ञान श्रद्धा और आस्था की जगह तार्किकता की मांग करता है।
लेकिन यह भी सच है कि विज्ञान की सीमाएं हैं जबकि धर्म अनंत है। नीति और सदाचरण को धर्म कहा जाए तो धर्म की परिभाषा उपयोगी होगी लेकिन इसे संप्रदाय के अर्थ में सीमित कर दिया जाए तो यह हठवाद और कट्टरपंथ का रूप धारण कर लेता है और पाखंड और असहिष्णुता के रूप में कट्टरवाद का पर्याय बन जाता है। सच्चा धर्म जीवन और जगत से प्रेम करना सिखाता है। यही वजह है कि नानक, कबीर, बुद्ध सबने धर्म के साथ मानव का संबंध जोड़ कर मानव धर्म का पालन कर मानवता की राह चलने का संदेश दिया।
’विभा ठाकुर, रोहिणी, दिल्ली
फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta
ट्विटर पेज पर फॉलो करने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/Jansatta