कांग्रेस अयोध्या नहीं जाने वाली है, 22 जनवरी को जो राम मंदिर का प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम होने जा रहा है, देश की सबसे पुरानी पार्टी ने उसके निमंत्रण को अस्वीकार कर दिया है। कांग्रेस ने इसे बीजेपी का इवेंट बताकर राजनीति से प्रेरित कह दिया है। लेकिन सभी के मन में सवाल वही है- कांग्रेस ने ये सियासी जोखिम लिया है या फिर सियासी ब्लंडर हो गया है?
अब इस सवाल का जवाब तभी मिल सकता है जब कांग्रेस के धर्मसंकट को ठीक तरह से समझा जाए। जब कांग्रेस नेता सोनिया गांधी को राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम का न्योता मिला था, पार्टी की तरफ से खुलकर कोई बयान नहीं दिया गया। ऐसा भी नहीं था कि तुरंत हामी भर दी गई हो। लगातार हो रही उस देरी ने तब बता दिया था कि देश की सबसे पुरानी पार्टी मुश्किल में है। उसकी मुश्किल ये थी कि अगर वो राम मंदिर कार्यक्रम में गई, वो सीधे-सीधे बीजेपी को फायदा दे रही है, पीएम मोदी को चमकने का एक और मौका दे रही है। इसके ऊपर देश का मुसलमान आज भी काफी हद तक कांग्रेस के साथ बना हुआ है, ऐसे में वो नाराज ना हो जाए, इसका डर भी पार्टी के लिए लाजिमी था।
हिंदी पट्टी में सफाया, फिर भी ऐसा फैसला?
ये नहीं भूलना चाहिए कि बीजेपी के लिए कांग्रेस का ये स्टैंड लेना ही हर नजर से फायदेमंद है। अंदरखाने पार्टी तैयार बैठी थी कि अगर कांग्रेस ने राम मंदिर कार्यक्रम में आने से मना कर दिया, उसे हिंदू विरोधी बताने में देर नहीं लगेगी। इसके ऊपर 2014 के बाद से तो मोदी-शाह की जोड़ी ने सबसे ज्यादा कांग्रेस पर तुष्टीकरण की राजनीति करने का आरोप लगाया है। ऐसे में कांग्रेस के इस एक फैसले का सीधा मतलब ये निकलता है कि चुनावी मौसम में बीजेपी को बैठे-बिठाए एक मुद्दा दे दिया गया है।
बड़ी बात ये है कि कांग्रेस ने इस तरह का फैसला उस समय लिया है जब हाल ही में हिंदी पट्टी राज्यों में उसका पूरी तरह सफाया हो गया। उसने मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ अपने हाथ से गंवा दिया। इन तीनों ही राज्यों में हिंदुओं की संख्या अच्छी-खासी है, लेकिन फिर भी कांग्रेस ने ये रिस्क उठाया है। अब जानकार मानते हैं कि कांग्रेस ने अगर ये रिस्क उठाया है तो उसके कुछ बड़े कारण जरूर होंगे। एक कारण तो इसका दक्षिण भारत से सामने आता है।
केरल का दबाव, मंदिर से दूरी?
असल में केरल में कांग्रेस का गठबंधन इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग के साथ चल रहा है। IUML ने राम मंदिर कार्यक्रम को लेकर कांग्रेस को सलाह दी थी कि वो बीजेपी के जाल में ना फंसे, यहां तक कहा गया था कि हर धर्मनिर्पेक्ष दल को ऐसा करने से बचना चाहिए। अब दक्षिण में केरल कांग्रेस के लिए काफी निर्णायक है। ये एक ऐसा राज्य है जहां पर अभी भी कांग्रेस का संगठन मजबूत चल रहा है। उसके ऊपर मुस्लिम लीग का भी वहां अच्छा वोटबैंक है। ऐसे में माना जा रहा है कि इस वजह से भी कांग्रेस ने अपना रुख बदला होगा।
कांग्रेस में दक्षिण बनाम उत्तर
इसके ऊपर कांग्रेस को लेकर ये भी कहा जा रहा है कि राम मंदिर के मुद्दे पर पार्टी की एक राय नहीं है। ये पूरी तरह उत्तर बनाम दक्षिण का मुद्दा बन चुका है। एक तरफ अगर उत्तर भारत के कई नेता राम मंदिर कार्यक्रम में जाने का समर्थन कर रहे हैं तो वहीं दक्षिण के नेता उससे बच रहे हैं। लेकिन पिछले कुछ समय में जिस तरह से कांग्रेस हाईकमान ने दक्षिण भारत की सियासत पर खास फोकस किया है, उसे देखते हुए माना जा रहा है कि उसने ज्यादा तवज्जो भी वहां की विचारधारा को दी है। ये बात भी गौर करने वाली है कि कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे खुद कर्नाटक से आते हैं।
मुस्लिम वोट कांग्रेस के लिए जरूरी!
अब ये तो कांग्रेस का अपना सियासी कारण है, लेकिन बीजेपी जो सबसे बड़ा आरोप लगाती है, उससे भी कांग्रेस बच नहीं सकती है। देश में 15 फीसदी के करीब मुसलमान हैं, उनका सबसे ज्यादा वोट कांग्रेस को ही मिलता आ रहा है। उत्तर भारत के कई राज्यों में तो एकतरफा ये वोटबैंक कांग्रेस की तरफ खिसक चुका है। अगर बात 2019 के लोकसभा चुनाव की ही कर ली जाए तो वहां भी पार्टी को उत्तर भारत के कई राज्यों में 50 फीसदी से भी ज्यादा मुस्लिम वोट मिला था। ये साफ इशारा करता है कि कांग्रेस को अपने इस वोटबैंक के खिसकने का डर है।
वैसे भी हाल ही में मध्य प्रदेश चुनाव में मिली करारी शिकस्त ने कांग्रेस को बता दिया है कि वो सॉफ्ट हिंदुत्व पर ज्यादा आसनी से बैटिंग नहीं कर सकती है। हिंदुत्व बीजेपी की पिच है, वो उसमें माहिर है, ऐसे में वहां पर उसे हराना पार्टी के लिए मुश्किल है। लेकिन मुस्लिम सेंधमारी बीजेपी के लिए करना मुश्किल है और वहां कांग्रेस का अपर हैंड है। ऐसे में माना जा रहा है कि पार्टी एक वोटबैंक के लिए अपने दूसरे मजबूत वोटबैंक को खोना नहीं चाहती है। इसे ऐसे भी समझा जा सकता है कि मुस्लिम वोटर फिर भी एकमुश्त होकर वोट कर जाते हैं, लेकिन हिंदुओं में जाति से लेकर दूसरे कई मुद्दों पर बंटवारा रहता है। ऐसे में पार्टी को इस बात का अहसास है कि वो हिंदुओं का भी कुछ वोट अपने पाले में करेगी और मुस्लिम वोट तो उसे मिल ही जाएगा।
अखिलेश तो जाने वाले थे, फिर क्या मजबूरी?
अब अगर कांग्रेस ने इस निमंत्रण को स्वीकार नहीं किया है तो इंडिया गठबंधन के कई दूसरे दलों ने भी अपने कारण बताकर इस कार्यक्रम से दूरी बना ली है। कुछ नेताओं ने तो अपने पुराने स्टैंड को भी बदलने का काम कर दिया है। उदाहरण के लिए सपा प्रमुख अखिलेश यादव राम मंदिर कार्यक्रम में जाने को तैयार बैठे थे। उन्हें तो बस निमंत्रण का इंतजार था। उन्हें बाद में निमंत्रण गया भी, लेकिन अखिलेश ने उसे स्वीकार करने से ही मना कर दिया। कारण दिया कि वे अनजान लोगों से कैसे निमंत्रण ले सकते हैं। जिनकी तरफ से वो न्योता आया, वे उन्हें जानते तक नहीं।
अब अखिलेश ने कहने को जो भी कारण दिया हो, लेकिन ये बात समझने लायक है कि मुस्लिम वोट के बीच तो सपा भी पड़ी है। एक जमाने में मुलायम सिंह यादव खुद इस बात को स्वीकार करते थे कि बाबरी मस्जिद कांड ने उनकी मुस्लिम हितेषी छवि बनाने का काम किया था। 2016 में तो उन्होंने यहां तक कहा था कि 16 जानें तो कम थीं, अगर 30 भी जानें जातीं तो देश की एकता के लिए मैं अपना फैसला वापस नहीं लेता। उस बयान में मुलायम कारसेवकों पर चलाई गई गोली की बात कर रहे थे। अब वो एक विचारधारा थी, लेकिन उसी की वजह से सपा को मुस्लिम का यूपी में एक बड़ा वोट शेयर मिला है। अब जब अखिलेश ने अचानक से जाने से ही मना कर दिया है, संकेत साफ है कि राजनीति से बढ़कर कुछ नहीं।
एक को खुश, कई को नाराज?
वैसे जाने से मना तो ममता बनर्जी ने भी कर दिया है। उनके भी अपने तर्क हैं, वे भी हिंदू-मुस्लिम एकता की बात कर रही हैं। लेकिन कुछ जानकार मानते हैं कि देश के मुसलमान को राम मंदिर से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता है। ये मुद्दा उनके लिए उतना बड़ा है ही नहीं क्योंकि फैसला सुप्रीम कोर्ट की तरफ से आया ना कि किसी पार्टी ने खुद लिया है। ऐसे में सवाल उठता है कि कहीं एक को खुश करने के लिए विपक्षी पार्टियों ने कई को नाराज तो नहीं कर दिया?