राकेश सिन्हा
अबूधाबी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा मंदिर का उद्घाटन एक महत्त्वपूर्ण संदेश को समेटे हुए है। वह है सभी प्रतिकूलताओं और प्रतिरोधों के बावजूद सभ्यताओं के बीच संवाद संभव है। इसलिए शत-प्रतिशत मुसलिम आबादी वाले देश यूनाइटेड अरब अमीरात यानी यूएई में मंदिर निर्माण को सामान्य घटना समझना, उसके प्रति घोर अन्याय होगा।
तीन दशक पहले पश्चिमी चिंतक हटिंग्टन ने सभ्यताओं के बीच संघर्ष की बात कही थी, जिस पर पश्चिम ने विमर्श को खूब प्रोत्साहित किया। हटिंग्टन पहचान और प्रभुत्व की प्रवृत्तियों के टकराव की विकल्पहीन संभावना देख रहे थे। पर अबूधाबी ने उसे अर्ध-सत्य साबित कर दिया है।
मंदिर का निर्माण दो देशों और उसके शासकों की पूर्ण सहमति और परस्पर सद्भाव से हुआ है। सहजता इसमें परिलक्षित होती है। मोदी और यूएई के शेख मोहम्मद बिन जायद दो सभ्यताओं के प्रतिनिधि भी हैं। यह इसलिए भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि आधुनिक भारत में मोदी यहां के सभी प्रधानमंत्रियों से भिन्न हैं। उनके व्यक्तित्व में अध्यात्म के प्रति रुझान जगजाहिर है। उन्होंने भारत के दर्शन, वैशिष्ट्य और विरासत की उपेक्षा, अवहेलना और अपराधबोध के चक्रव्यूह से बाहर निकालने का काम किया है।
याज्ञवल्क्य से महावीर और बुद्ध तक दर्शन धर्म की बहुआयामी व्याख्याओं से गुजरता रहा है। धर्म आधारित आस्था हमें संकीर्ण नहीं बनाती है। हमारी आध्यात्मिक सोच, समझ और सफर को नहर की तरह काट-छांटकर नहीं बनाती है, बल्कि नदी का रूप बना रहता है, जो अपना प्रवाह और तय स्वयं निर्धारित करता है।
इसलिए मोदी की धार्मिक गतिविधियों में सक्रिय भागीदारी भारत की पुनर्खोज है, जो औपनिवेशिक काल से ही पाश्चात्य प्रभाव में अपने वैशिष्ट्य, मूल पिंड और पहचान के प्रति उदासीनता और विस्मृति, दोनों का शिकार था। धर्मनिरपेक्षता के नाम पर अपनी विरासत का मर्दन होता रहा। आधुनिक हिंदू का तात्पर्य सांस्कृतिक जड़ों से कटा होना हो गया।
इसलिए 2014 के बाद भारतीय राज्य में जब उस दलील और आत्मग्लानि को खारिज करना शुरू किया, तब मोदी पर बहुमतवादी होने का आरोप मूल विमर्श बन गया। इसमें भारत और भारत के बाहर के बुद्धिजीवी शामिल थे। मगर जब तर्क और तथ्य यथार्थ से मीलों दूर हो, तो उसको ध्वस्त होने में भी वक्त नहीं लगता है।
धर्मनिरपेक्षता के पैरोकार भूल गए कि ब्रिटेन के हाउस और आफ लार्ड्स (जो भारत के राज्यसभा के समांतर है) में रानी चर्च आफ इंग्लैंड से छब्बीस पादरियों को मनोनीत करती है। दूसरी तरफ, अमेरिका में कुछ अपवाद को छोड़कर राष्ट्रपति पद पर एक नहीं, दो बाइबिलों पर हाथ रख कर शपथ ली जाती है। कभी-कभी तो संख्या तीन हो जाती है।
फिर भी जो बुद्धिजीवी सौ वर्ष से बौद्धिक संसार को राह दिखाने का दावा करते रहे हैं, वे अपने चिंतन के पुनर्मूल्यांकन का कोई स्थान नहीं छोड़ते हैं। वास्तव में भारत का इतिहास अपनी प्राचीनता में दुनिया पर छाप छोड़ता रहा है। भले नेहरूवादी-मार्क्सवादी भारत को संविधान संचालित भूमि का टुकड़ा मानते हों, पर दुनिया भारत को हिंदू सभ्यता का प्रतिनिधि मानती है। हम दूसरों से अलग है, पर हमारा इतिहास आस्थाओं पर प्रहार या प्रतिशोध का नहीं रहा है।
इसीलिए मोदी का आध्यात्मिक व्यक्तित्व और भारतीय दर्शन के प्रति मुखरता ने उन्हें सभ्यताई प्रतिनिधि बना दिया। मोदी ने अरब के शासक को केरल के चेरामन मस्जिद का प्रतिबिंब भेंट किया, जिसका इतिहास हिंदू धर्मनिरपेक्षता की व्यापकता का प्रतीक है। हिंदू राजा ने मंदिर को मस्जिद में तब्दील कर अरब के व्यापारियों के लिए इबादत का स्थान बना दिया था। इस्लामी दुनिया अपनी नजरों से भारत के वर्तमान और भविष्य का मूल्यांकन कर रही है, जो पश्चिमी और नेहरूवादी धारणा को नकार रही है। मोदी को पांच से अधिक इस्लामी देशों ने सर्वोच्च राष्ट्रीय सम्मान दिया है। इसमें बहरीन भी शामिल है।
आजादी के बाद इस्लामी देशों से भारत का संबंध रहा है, पर वहां तुष्टीकरण की नीति थी। कश्मीर पर नीति या कदम उठाने से पहले हम अपनी संप्रभुता की स्वयं अवहेलना कर उनकी संतुष्टि या नाराजगी का खयाल रखते थे। इजराइल से हम न चाहते हुए भी दूरी बना कर रखते थे। 2014 के बाद अनुच्छेद 370 भी गया और इजराइल से डंके की चोट पर संबंध भी बना।
इस्लामी मुल्कों के विरोध की बात तो दूर, वे भारत की पहल, नीतियों और नेतृत्व में अंतरराष्ट्रीय राजनीति की नई संभावना देखने लगे। यही सभ्यताओं के बीच संवाद है। न्यूयार्क या पेरिस में आक्सफर्ड या हावर्ड में वाशिंगटन पोस्ट या विदेश मामलों में इस पर विश्लेषण की आशा करना पश्चिम की आधिपत्यवादी मानसिकता से अपरिचित बने रहना होगा।
नई दुनिया की संभावनाओं के लिए नई दिल्ली, अबूधाबी और ढाका विश्वविद्यालयों और अपने अखबारों पर आत्मविश्वास के साथ कदम बढ़ाना ही उसकी उपादेयता को स्थापित करेगा। आज पश्चिम या इस्लामी मुल्क एक समृद्ध या सशक्त भारत ही नहीं, बल्कि एक सभ्यता के रूप में देख रहे हैं। मगर इसके लिए पाश्चात्य मानसिक प्रभावों से मुक्त होकर कठोर बौद्धिक परिश्रम की आवश्यकता है।